अजब विधान

15-03-2020

अजब विधान

गोविन्द सेन  (अंक: 152, मार्च द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

डोकरी बार-बार श्रद्धापूर्वक दुर्गा माँ की प्रतिमा की ओर मुँह कर माथा नवाते हुए हाथ जोड़ रही थी। आश्रम में दुर्गा माँ की आदमक़द प्रतिमा स्थापित थी। ‘माता माय...माता माय...कृपा बनाए रखना’ जैसा कुछ डोकरी बुदबुदा रही थी। आश्रम के मुख्यद्वार से कुछ दूर नीम का पेड़ है। वह उसी के नीचे खड़ी थी। लगता था कि उसको दिखता भी कम है और वृद्धावस्था के कारण चलने में भी तक़लीफ़ है। पर दुर्गा माँ के दर्शन करने की उसकी तीव्र इच्छा थी। उसके हावभाव में माँ के लिए असीम और सच्ची श्रद्धा झलक रही थी। वह जितनी वृद्ध थी उतनी ही उसकी श्रद्धा पक्की थी। घाघरा, पोलका और साड़ी भले ही फटे-पुराने और रंग उड़े थे, पर साफ़-सुथरे थे। वह माता के दर्शन के लिए घर से नहा-धोकर आई थी। यथासंभव पवित्र होकर। मैं उसे देखकर अभिभूत हो गया। दुर्गा माँ के लिए मेरे मन में उतनी श्रद्धा न होने का मलाल भी भीतर थोड़ी देर के लिए कौंध गया।

“चल माय, हवं तुख भित्तर ली चलूँ। माता का दरसन कर लीजे आराम सी,” मैंने उससे कहा।

“नय भई! हवं भित्तर नी जय सकती,” डोकरी को लगा कि मैंने कोई अनहोनी बात कह दी हो।

“क्यों, माय?” मैंने उसके मुँह से कारण जानना चाहा।

“हवं नीची जात छे नी।”

“तो??”

“हवं त ह्यांज सी माता माय का हात जोड़ लवंगा रे भई।”

आख़िर मैं उन्हें भीतर ले जाकर दर्शन करने के लिए राज़ी न कर सका।

आश्रम में एक पेड़ के नीचे बाबा पीले रंग के शिलाखण्डों से बने एक काम चलाऊ चबूतरे पर बैठे थे। उनके शरीर पर मात्र लंगोटी और जनेऊ थी। बाकी बदन उघाड़ा था। बारहों महीने उनकी यही वेश–भूषा रहती है। बहुत हुआ तो कमर पर एक सफ़ेद पंछा लपेट लिया, बस। दाढ़ी और सिर के बाल बेतरतीब बढ़े हुए थे। बाल घने नहीं थे। दाढ़ी के बाल ठोड़ी पर एक गुच्छे के रूप में सिमटे थे। सिर के बाल भी वैसे ही। क़लम से नीचे कनपटी के कुछ भाग पर तो बाल क़रीब-क़रीब थे ही नहीं। मूँछें लटक कर ठोढ़ी के गुच्छे में मिल गई थी। सिर और दाढ़ी के आधे से ऊपर बाल सफ़ेद हो चुके थे। 

चबूतरा मोटी रेत से भरा था। चारों ओर एक दिव्य शांति बरस रही थी। आसपास भक्तगण बाबा के प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करते हुए बैठे थे। सभी भक्तों की चोटियाँ बढ़ी थीं जिनमें क़रीने से गठानें लगी हुई थीं। मैं भी दूर से ही बाबा को प्रणाम कर बैठ गया। बाबा वेद-पुराण, रामायण, महाभारत आदि की गूढ़ चर्चा कर रहे थे। बाबा की वाणी गंभीर थी। वे धीमे और शांत स्वर में बोल रहे थे। लग रहा था बाबा के पास ज्ञान-जल से भरा कोई घट हो और उस घट से सभी प्यासे भक्तों को वे घूँट-घूँट ज्ञान-जल पिला रहे हों। भक्तगण उस ज्ञान-जल को भीतर जज़्ब कर रहे थे और धन्य हो रहे थे। वे पूरी सावधानी बरत रहे थे कि इस दिव्य जल की एक बूँद भी व्यर्थ न जाए। 

बाबा के आश्रम ने लम्बी-चौड़ी जगह घेर रखी थी। आश्रम चारों ओर से ऊँचे परकोटे से घिरा था। खोदरे ने समकोण बनाकर आश्रम की दक्षिणी और पश्चिमी  सीमा बना दी थी। भीतर जगह-जगह हवन कुंड और फूल वाले तथा छायादार पेड़ और फूलदार पौधे थे। तुलसी के चौरे तो कई थे। परकोटा पत्थर की दीवारों से बना था। लगता था कि इन दीवारों को अनगढ़ हाथों ने खड़ा किया हो। शायद इन जैसे चोटीधारी बाबा के भक्तों ने ही इन्हें खड़ा किया हो। दीवारों में भले ही उतनी सफ़ाई नहीं थी, पर श्रद्धा की कोई कमी नहीं थी।

तभी बाबा के पुराने भक्त गणपत भाई आए। उन्होंने अपनी सफ़ेद कार आश्रम के बाहर नीम के पास पार्क कर दी थी। आते ही वे बाबा के आगे दंडवत हो गए। उन्होंने सफ़ेद कुरता-पाजामा पहन रखा था।  उँगलियों  में सोने-चाँदी की अँगूठियाँ पहन रखी थीं जिनमें तरह-तरह के रत्न जड़े थे। उनकी मोटी गर्दन में सोने की क़ीमती चेन झूल रही थी। बाबा ने उन्हें  अपने दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया। गणपत भाई सट्टा किंग के नाम से जाने जाते थे। वे सट्टे के खवाल थे और इसके ज़रिए उन्होंने अपार पैसा कमाया था। बाबा के कहने पर अब वह सट्टे का काम छोड़कर प्रॉपर्टी ब्रोकर का काम करने लगे थे। यह धंधा भी ख़ूब जम गया था। इसमें भी उन्हें बहुत बरकत हो रही थी। इसे वे बाबा की कृपा ही मानते हैं। बाबा के प्रति उनका विश्वास अगाध है। वे मुक्त हस्त से आश्रम में दान करते हैं। बाबा के भक्तों में उनका विशिष्ट स्थान है।

बाबा को आसपास के इलाक़े ही नहीं दूर-दूर तक भगवान की तरह पूजा जाता था।

लोग घरों में उनकी फोटो लगाकर रखते थे। फोटो के आगे नियम से अगरबत्ती लगाते। बाबा के माथे पर कंकू-चन्दन का टीका लगाते, फूल चढ़ाते। शिश नवाते और आशीर्वाद लेते। एक भक्त कवि ने तो उनकी आरती भी बनाकर अन्य भक्तों में वितरित कर दी थी। 

लोग अपने दुःख लेकर बाबा के पास आते रहते थे। बैठे हुए भक्तों में से एक भक्त हाथ जोड़ते हुए बोला-“बाबा इना साल तऽ फसल बर्बाद हुइ गई। परका  साल डोकरा को नुक्तो कर्यो। इना साल छोरी को व्याव करणु छे। करजो पयल-सी छे। कय होयगा बाबा! भगवान भक्त न खज दुःख क्यों देय?”

“भगवान ख दोस नी देणु। यो सब पूर्व जनम को फळ छे। कोई खोटा करम कर्या होयगा। जेको फळ भुगती रयाज। बस भगवान ख मत भूल। माँ को जाप कर। दान-पुण्य कर। भाग्य बिना नर पावत नाही। कलपणु नी। ऊपर वाला ख सबकी फिकर छे। सब ठीक हुय जायगा।”

पता नहीं भक्त कुछ समझा या नहीं। पर वह चुप हो गया। मानो बाबा ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया हो। आश्रम के भीतर प्रवेश के पहले ही डोकरी की दुर्गा माँ के प्रति असीम श्रद्धा देख एक सवाल मेरे भीतर कुलबुलाने लगा था। पर बाबा से सवाल करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वैसे भी बाबा के आसपास भक्तों का जमघट था। उनके सामने सवाल उठाना जोख़िम का काम था। 

 “भगवान दयालु छे नी बाबा,”आख़िर में मैंने बाबा  से बात करने की ठान ली।

“हाँ, छे नी।”

“भोळा को भगवान छे नी बाबा।” 

“हाँ, छे।”

“रामजी न सबरी का झूठा बोर खाया था नी बाबा।”

“हव, खाया था।”

“मनुस-पशु-पक्षी सब  न ख भगवानज बणाया नी बाबा।’’

“हव सबख भगवानज बणाया।”

ऊपर पेड़ों पर पक्षी चहचहा रहे थे। गिलहरियाँ दौड़ लगा रही थीं। पशु-पक्षियों पर आश्रम में आने-जाने की कोई पाबन्दी नहीं थी। एक तरफ़ गाएँ चर रही थीं। 

 “कण-कण मं भगवान छे कि नी बाबा?” आख़िर हिम्मत कर मैंने बाबा से पूछ ही लिया।

“हव, छे नी, कण-कण मं भगवान छे,” बाबा ने सहज उत्तर दिया। 

“तो बायरऽ खड़ेल डोकरी मं बी भगवान होएगा।”

“हव, छे तो...?” बाबा ने मुझे अर्थपूर्ण नज़रों से देखा।

“तो हवं उन डोकरी ख भित्तर ली अऊँ। बापड़ी माता का दरसण कर लेयगा। घणी देर से हाथ जोड़ी न नीम का हेटऽ खड़ेल छे।”

“नय, वख भित्तर मत लावजे।”

“क्यों बाबा, असो क्यों?”

“बस, मन के कय द्यो नी, वख मत लावजे।”

“अरे भई, वा नीच जात की छे।”

“नीच जात की छे तो काय हुई गयो?”

“अरे, ई लोग दारू पियज, मांस-मच्छी खाय, गन्दा रयज।”

“दारू न मांस-मच्छी तो ऊँची जात का लोग बी खाज, गन्दा काम करज, ऊँ लोग तो माता का दरसण मजा सी करज,” मैंने हक़ीक़त बताकर खंडन किया।

गंदे काम करने वाले कई लोग बाबा के आश्रम में बेखटके आते हैं और अपनी ऊँची जाति के कारण बाबा के कृपा पात्र भी हैं। माता की मूरत के आगे दंडवत होते हैं। अपनी श्रद्धा का भौंडा प्रदर्शन करते हैं। उस भूरेलाल को ही लो जिसने अपनी पत्नी के होते हुए भी एक आदिवासी महिला को रखा हुआ है। यह ठीक है क्या? परस्त्रीगमन तो सबके लिए बुरा ही है, चाहे वह कोई भी हो। तो फिर कुछ लोगों को छूट क्यों? हाँ, वह चोटी रखता है। तिलक लगाता है। माता के पूजन और दान में आगे रहता है। काम करता है शराब बेचने का। वही शराब जिससे कई घर बर्बाद होते हैं।

मेरे तर्क उन्हें नागवार लग रहे थे। शूल की तरह चुभ रहे थे। बाबा की भृकुटी सहसा तन गई। उन्होंने मुझे आग्नेय दृष्टि से देखा, मानो जलाकर भस्म कर देंगे। मेरे सवाल ने उनकी ही नहीं पूरे आश्रम की शांति भंग कर दी थी।

“घणी वात आवज तुख...ज्यादा भणी गयो कय?”  

आसपास बैठे चोटीधारी भक्तों ने मुझे वहाँ से खिसकने का इशारा किया। उन्हें मेरा बाबा से जिरह करना नागवार लग रहा था। ये मुझे उठाकर आश्रम से बाहर करने की मुद्रा में आ गए। मैं भी अब वहाँ ठहरना नहीं चाहता था।

नीम के नीचे ही गणपत भाई की चमचमाती कार खड़ी थी। बाबा के आश्रम के बाहर उसी नीम के नीचे कार के पास डोकरी अभी भी हाथ जोड़े खड़ी थी। मुझे उस पर बहुत तरस आ रहा था। पर क्या कर सकता था? उसके मन मंदिर में तो माँ दुर्गा बैठी थी और माँ दुर्गा बाबा के आश्रम में विराजित थीं। आश्रम बाबा का था। बाबा की इच्छा के बिना डोकरी अन्दर नहीं घुस सकती थी।

पत्थर की चमचमाती माता भीतर थी और जीवित माता अपनी फीकी रंगत के साथ बाहर खड़ी थी। जीवित माता पत्थर की माता के दर्शन के लिए तड़प रही थी। अजब विधि का विधान है।
 

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