अग्नि

सुषमा दीक्षित शुक्ला  (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हे! अग्निदेव हे! प्रलयंकर,
तेरे कितने अद्भुत स्वरूप।
तुम पंचतत्व के प्रबल अंग,
तुम सूर्य देव के एकरूप।
 
तुम से ही भोज्य बने भोजन,
तुमसे ही रोटी पकती है।
जब शरद ऋतु की ठिठुरन हो,
तुम से ही गर्मी मिलती है।
 
फेरों के साक्षी तुम बनते,
जब परिणय जोड़ी सजती है।
बन जाते तुम हो काम दूत,
जब प्रेम अगन जल उठती है।
 
जब क्रोध तुम्हारा रूप धरे,
ईर्ष्या की आग पनपती है।
प्रतिशोध भरा जब हृदयों में,
तब अग्नि भाव में जलती है।
 
तुम से ही सजता हवन कुंड,
तुम से ही ज्योति मिलती है।
जब देह त्यागता मानव है,
तब मुक्ति तुम्हीं से मिलती है।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
किशोर साहित्य कविता
स्मृति लेख
लघुकथा
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
कविता-मुक्तक
गीत-नवगीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में