अगर तुम न होते

22-09-2007

अगर तुम न होते

संजय ग्रोवर

व्यंग्य का शौक उन्हें बचपन से था। हर आदमी को अपना कार्य क्षेत्र व प्रतिबद्धताएँ तय करनी पड़ती हैं। जब वे तीन वर्ष के थे तभी उन्होंने निश्चय कर लिया था कि लोग अगर मानसिक विकृतियों व सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य लिखते हैं तो मैं लोगों की शारीरिक बीमारियों, क्षेत्रीय बोलियों व मानसिक परेशानियों पर लिखूँगा। कुछ लेखक इनका प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हैं तो मैं वो भी नहीं करूँगा। मैं सीधे-सीधे इन्हीं पर लिखूँगा। सो पहले दिन से ही आप एक हाथ में कापी-कलम-दवात और दूसरे में इंच-टेप थर्मामीटर व स्टेथस्कोप लेकर घूमते थे। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के निर्णायकों की तरह आपने भी आदमी की एक आदर्श नाप बना ली थी। कोई अगर कम ज्यादा होता तो आप तुरन्त उस पर व्यंग्य लिख देते थे। अगर ऋषि अष्टावक्र आपके समय में हुए होते तो सात-आठ सौ व्यंग्य तो आपने उन्हीं पर लिख डाले होते। कुब्जा और मंथरा के शरीरों पर आपने एक भी व्यंग्य क्यों नही लिखा, शोध का विषय है।

छुटपन से ही आप बुरी तरह सृजनात्मक थे। बच्चों की पत्रिकाओं में आपने छियालीस व्यंग्य एक ऐसे पड़ोसी पर लिखे जो हकलाता था। तिरेपन व्यंग्य आपने उस महिला पर लिखे जो न को ल कहती थी। तीन सौ व्यंग्य अकेले आपने उस आदमी पर लिखे जिसका पेट मोटा था। ढाई सौ व्यंग्य आपने पतले आदमी पर और सवा दो सौ व्यंग्य गंजों पर लिखे। हाँलांकि उक्त शारीरिक क्षेत्रों में से कईयों में आपका भी अच्छा-खासा दखल था। मगर उक्त सामाजिक प्रतिबद्धताओं की वजह से आप इतना व्यस्त रहते थे कि अपने लिए आपको समय ही नहीं मिलता था। एक बार आपके शहर में एक विकलांग बच्चा पैदा हो गया। तब कुछ लेखकों ने चिकित्सा-तंत्र पर लेख लिखे। कईयों ने प्रशासन के ढीलेपन पर व्यंग्य लिखे। कुछ ने बच्चे के माँ-बाप को लापरवाही बरतने का दोषी ठहराया। कई पत्रिकाओं ने इस बीमारी पर लेख छापे। मगर आपकी तो बात ही कुछ और! आपने उस बच्चे पर और उसके विकल अंगों पर व्यंग्य लिखे। आपकी मौलिक सोच के अनुसार कसूर न प्रशासनिक अक्षमता का था, न चिकित्सा तंत्र का, न माँ-बाप का। खुद बच्चा इस सबके लिए दोषी था, क्यों कि जन्मजात विकलांग था। इस तरह बाल-पत्रिकाओं की मार्फत बच्चों में अच्छे संस्कार डालते-डालते कब आप बड़े हो गए, न तो आपको पता चला न ही दूसरों को।

बड़े हुए तो स्वाभाविक था कि लोगों से आपके विचार टकराने लगें। एक बार तो आपको कुछ लेखकों के विचार इतने बुरे लगे कि आपने फौरन सम्बद्ध शहरों में मौजूद अपनी ’अमूर्त्त साहित्यिक-गुप्तचर-संस्था’ के एजेण्टों से उन लेखकों के शरीरों और बीमारियों के ’डिटेल्स’ मँगाए। तब आपने तिहत्तर व्यंग्य उनके शरीरों पर और पिच्यासी उनकी बीमारियों पर लिखे। हरियाणवी बोली पर एक सौ सैंतीस और बिहारी बोली पर दो सौ एक व्यंग्य आपने इसलिए लिखे कि इन प्रदेशों में रहने वाले कुछ लेखकों व राजनेताओं से आपके ’वैचारिक मतभेद’ थे। इसी क्रम में छप्पन व्यंग्य आपने एक मुख्यमंत्री की नाक पर और चौवालीस एक प्रधानमंत्री के बालों पर लिखे। एक पड़ोसी के चश्मे पर आप अभी तैंतीस व्यंग्य ही लिख पाए थे कि उसने चश्मा लगाना छोड़ दिया। आपके दिल को ठेस पहुँची। तब आपने उसकी आँखों पर बाईस व्यंग्य लिख डाले और डिप्रेशन से बाहर आ गे। अण्डा होती जा रही आपकी सृजनात्मकता फिर से चूजे देने लगी। इसी सृजनात्मकता को निचोड़ कर आपने तकरीबन ड़ेढ़ हजार व्यंग्य लोगों के नामों को बिगाड़ते हुए लिखे और लगभग पौने दो हजार व्यंग्य पत्नी की कथित मूर्खताओं पर लिखे।

आपके दोस्ती के सर्किल में ज्यादातर लोग प्रतिभावान थे। और अलग-अलग ढंग से अपनी मेधा का इस्तेमाल करते थे। उदाहरणार्थ आपके एक मनोचिकित्सक मित्र तनाव के क्षणों में ओझा से झाड़-फूँक करवाते थे। ’अंध-विश्वास हटाओ’ समिति में मौजूद आपके कई मित्रों ने शताब्दी की सर्वाधिक ऐतिहासिक चमत्कारिक घटना के तहत गणेश जी को कई लीटर दूध पिलाया था। ’दहेज उन्मूलन संस्था’ के आपके कुछ मित्र किसी भी आपात-स्थिति के लिए हर वक्त किरोसिन तेल के पीपों से लैस रहते थे। आपके एक राष्ट्र-प्रेमी मित्र दंगों को देश-भक्ति का पर्याय मानते थे। आपके एक कामकाजी मित्र नाइन-टू-फाइव अपने दफ़्तर में टँगे मेज पर और धड कुर्सी पर फैला कर पड़े रहते थे। महीने के महीने दस हजार तनख्वाह के और बीस हजार ऊपर के ले आते और मेहनती होने का खिताब पा जाते थे। एक अन्य मित्र जो अमीरों से बहुत नफरत करते थे, सिर्फ उन्हीं माफियाओं से संबंध रखते थे जो गरीब से अमीर बने होते थे। दिन में उनके प्रेम के पट्टे में बंधे सामाजिक असमानताओं पर नजर रखते और नाइट-शिफ़्ट में पट्टा खुला कर अन्य कलात्मक धंधों पर निकल जाया करते थे। आपके एक मानवतावादी मित्र जो मनुष्य की भलाई के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, रात को जिस बदनाम चिंतन को कांट-छांट कर अपना बना लेते थे, दिन में उसे दुत्कार कर दूर भगा देते थे। मानव जाति के हित में जब मन ओ व्यक्तिवादी बन जाना और जब इच्छा हो सामाजिक हो जाना उनकी मीठी सी मजबूरी थी। सभ्यता-संस्कृति के कट्टर संरक्षक आपके एक मित्र जो सामने हर स्त्री को माँ-बहन-बेटी-देवी जपते थे, पीछे उनका जिक्र एक आँख दबा कर कादर खानीय मुद्रा में द्विअर्थी संवादों के जरिए किया करते थे।

सामाजिक कार्य आपको बचपन से ही माफिक आते थे। आपको बडा अरमान था कि आप कुछ विधवाओं को पालें। ’विधवा-पालन’ का शौक आपको जुनून की इस हद तक था कि आप दूसरी सामाजिक समस्याओं को ठीक से समझ तक नहीं पाते थे। मगर आपकी बदकिस्मती कि कई सालों तक कोई स्त्री विधवा न हुई। कई सालों के लम्बे इंतजार के बाद एक बार जब आप कश्मीर में थे, आपको सूचना मिली कि कन्याकुमारी में एक स्त्री विधवा हो गयी है। आपकी खुशी का ठिकाना न रहा। किसी ने ठीक ही कहा है कि धैर्य का फल मीठा होता है। आप पूरे इन्तजाम के साथ वहाँ गए और उस विधवा को साथ ले आए। हालांकि उसने पचासियों बार कहा कि उसे मदद की कोई जरूरत नहीं है।, वह पढ़ी-लिखी है, हर तरह से सक्षम है, आप से ज्यादा कमा सकती है, आपसे बेहतर ढंग से परिवार को पाल सकती है। मगर आप नहीं माने। इतने सालों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अच्छा काम करने का जो इकलौता मौका हाथ लगा था, आपसे छोड़ते न बना।

इन्हीं सब महानताओं की वजह से आप बचपन से ही मेरे प्रेरणा-स्रोत रहे। मुझे इस बात का सख्त अफसोस है कि आपका यह ’एकलव्य-शिष्य’ आपकी तरह लायक नहीं बन पाया। बडी इच्छा थी कि आपसे मिलकर अपने शरीर में कमियाँ निकलवाऊँ और बीमारियाँ गिनवाऊँ। (मगर इस कशमकश में भी हूँ कि आपसे अँगूठा कटवाऊँ या आपको अँगूठा दिखाऊँ!?!?)
काश! आप जीवित होते!

पुनश्च:- आपकी विनम्रता ऐसी कि आप हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी आदि को अपने समकक्ष मानते थे। अगर नहीं भी मानते तो कोई क्या कर लेता?

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