अभिसार की रात

01-07-2021

अभिसार की रात

कविता झा (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मुख से लाल मलिन सी, करे सखी चौखट को परोक्ष पार,
कलकल जाती सरित सी, हिय में प्रेम-भाव लिए अपार,
मिलने सागर से आज।
 
पीड़ ना पूछो उस सरिता से, बाधित हुआ जिसका गमन,
व्यर्थ ना करो आकर तुम, कहे चंद्र को कल जोड़ नमन,
अभिसार की ये मधुर रात।
 
चाँद कौमुदी से सकुचाती भयत्रस्त, श्वास भी मौन, पग भी शांत,
उजियारे में गोचर सर्वस्व, प्रिय ने क्यों चुनी शुक्ल पक्ष की रात,
कैसे हो सफल ये अभिसार।
 
विरह से विकल निर्बल पीड़ित सी, मधुमास बना हो जैसे शिशिर,
अग्नि में समाए लुटा सर्वस्व पतंगा, कुमुद बिन व्यथित जैसे मिलिंद,
मधुप सी समर्पित सजनी आज।
 
मुकुलित सुगंधित किसलिय, सूख हुआ जीवन प्राणहीन, नयन सुन्न,
आहत हुआ ज्यों कली का भ्रमर, अशक्त जीवन प्रेम में कलिका सम,
ताके बेसुध भँवरे का मार्ग।
 
ज्यों चकोर देखे प्रेमग्रस्त छुप कर, चाँदनी को टुक टुक बेसुध एकटक,
निश्छल प्रेम में विह्वल मानस, भाव से विभोर हृदय का निर्मल स्पंदन,
मिलन की आस में बार बार।
 
पिपासा चातक प्यास-व्याकुल, प्रेम भेद ना करे कभी स्वीकृत,
आकुल अगोरे बाट नक्षत्र का, ना मिले तो मरने को हो जाए आतुर,
वियोगी विरह में त्यागे प्राण।
 
सखी! बारिश को कहो कल बरसे, मत पूछो प्रेयसी के मन का हाल,
पिया मिलन को उद्यत सर्वस्व तन मन, क्षण-क्षण टूटे मिलन की आस,
पिया मिलन जाएगी सुनारी आज।
 
बारिश टोप शूल सम चुभे बदन पर, लागे जैसे हृदय पर हुआ आघात,
बने बाधा मिलन में प्रिय से, जलाए कामुकता में सकल तन मन आज,
प्रेयसी चाहे प्रिय का साथ।

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