अब मकाँ होते हैं कभी घर हुआ करते थे
डॉ. विजय कुमार सुखवानीअब मकाँ होते हैं कभी घर हुआ करते थे
बड़े पुरसकूँ तब शामोसहर हुआ करते थे
आमदा हैं काटने पर जिन्हें आज हम
बुजुर्गों की मानिंद वो शजर हुआ करते थे
ताउम्र माँ बाप को उठाये फिरे शानों पर
किसे यकीं होगा ऐसे बशर हुआ करते थे
आज अपने भी खटकते हैं हमें आँखों में
किसी वक्त गैर भी नूरेनज़र हुआ करते थे
इस कदर कुशादा हैं इंसान की ज़रूरतें
वहाँ इमारतें हैं जहाँ समंदर हुआ करते थे
इंसानियत वफ़ा सच्चाई ईमानदारी
इन्सान में क्या क्या हुनर हुआ करते थे
1 टिप्पणियाँ
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very nice every line ! i am very happy hardly.
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