अब दूरियाँ सब हों दहन

15-07-2021

अब दूरियाँ सब हों दहन

डॉ. मोहन बैरागी (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

भीगती बूँदों से आँखें तेज़ चलती अनगिनी धड़कन
शुष्क अधरों से अबोले संवाद के मध्य केवल मन
 
कुन्तलों से जब धार पानी की बही
अक्षरों ने कहानी ख़ुद अपनी कही
व्याकरण जब देह के संयोजित हुए
बुझ गयी अग्निशिखा रह गए धुँए
 
इन्द्रधनु लुप्त काले मेघ से जो घिर गया सारा गगन
शुष्क अधरों से अबोले संवाद के मध्य केवल मन
 
इक छुवन से हिल गया जब ताल
वे डोलते फिर रह गए सब शैवाल
अनकही प्रीत ने मंत्र ये क्या पढ़ा
रोकने ख़ुद आपको ख़ुद से लड़ा
 
जो सिहर गयी ठंडी कँटीली और लहरती वो पवन
शुष्क अधरों से अबोले संवाद के मध्य केवल मन
 
बाँसुरी की धुन कोई बजने लगी
सेज फूलों की धरा पर सजने लगी
एक मिलन का दीप जलने लगा
साँझ का सूरज कहीं ढलने लगा
 
आस पूरी कर करो जतन अब दूरियाँ सब हों दहन
शुष्क अधरों से अबोले संवाद के मध्य केवल मन

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