अब बस जूते का ज़माना है
हरेन्द्र पालहर ब्राण्ड के जूते की
अपनी क़िस्मत
अपना मान और
उचित स्थान होता है।
किसी को पैर तक भी
नसीब नहीं होता
और कोई जूता
सर तक चढ़ जाता है।
जूता सर तक
क्योंकर चढ़ जाता है?
उसे पता होता है कि
कहाँ तक जाना है।
उसका इस्तेमाल
किसने कब, कैसे किया है
कभी उठाकर, कभी चाट कर,
और कभी मारकर।
जूता सर तक यूँ ही नहीं
चढ़ जाता है, कि वह जूता है,
स्वतंत्र है, जहाँ चाहे चढ़े।
वह इसलिए भी
सर तक चढ़ जाता है कि
उसे पता है किसका है,
कितना मज़बूत है।
कभी उसे -
अपने "गुण्डत्व" का मान होता है
और कभी, बड़े होने का भी
गुमान होता है।
शायद इसलिए झट से...
हाथ में आ जाता है
जूता तो आख़िर
जूता ही होता है ना -
उसकी औक़ात क्या...
उसकी बिसात क्या?
पहनने वाले से
उसकी औक़ात होती है।
ब्राण्ड कोई हो
जूते को कौन पूछता है?
कभी पहन कर
आपकी शान बढ़ता है।
कभी प्रतिद्वंद्वी के
सर पर चढ़ कर
शान से नया -
अमिट इतिहास बनाता है।
जूता होना कोई
बड़ीअनोखी बात नहीं है
जूता किसका है -
बस यही ख़ास बात है।
ग़रीब मजदूर या
आम आदमी के पड़े
तो वह तो बस,
उसी के लायक़ होता है।
जूता माननीय द्वारा-
माननीय के पड़े
तो लोकतंत्र के
चेहरे पर दाग़ होता है।
मुझे समझ नहीं आता कि
यह जूता विविध रूप
कैसे और कहाँ से अपनाता है
विविध इस्तेमाल
कौन इसे सिखाता है?
कहीं यह श्रेष्ठ होने का
दंभ तो नहीं
जो जूते को हर बार...
नई राह दिखाता है
कभी विरोधी के
सर पर, कभी शरीर पर
कभी-कभी गले में
माला बन इतराता है।
जूता जूता होता है
जाने कब बिगड़ जाये
और 4 सेकंड में
सात बार पड़ने का
नया विश्व कीर्तिमान
स्थापित हो जाये।
अब इससे
माननीय भी थरथराने लगे हैं
देखा था, सुना था-
कभी जूते की नोक पर
कभी जूते की ठोकर पर
मगर यह आज
अब यह सारी हदें
लाँघ कर आया है।
माननियों की भी
ड्योढ़ी चढ़ आया है!
अब माननीय
अपनी पार्टी के माननीय
और जनता के भेद को
भी भूल बैठा है।
उसमें भी समरसता
का भाव आया है
जूता असल में अपनी
औक़ात पे आया है।
क्यूँकि उसे आज-
यह पता चल चुका है
कि अब बस जूते का ही ज़माना है।
कि अब बस जूते का ही ज़माना है।
हरेन्द्र पाललखनऊ