अब और नहीं

30-04-2012

अब और नहीं

अलका प्रमोद

रात्रि के ग्यारह बज गए थे पर विधा अभी तक नहीं लौटी थी, ममता द्वार तक पता नहीं कितने चक्कर लगा चुकी थी। ­सर्दी के कारण बाहर दूर दूर तक प्राणी मात्र का पता नहीं था, कोहरे ने वातावरण को और भी रहस्यमय बना दिया था। ममता को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। यूँ तो ऋचा ने चलते समय उसे आश्वासन दिया था “आँटी आप चिन्ता मत करें, मैं विधा को अपनी गाडी में साथ ले आऊँगी” पर उन्हें तो दस बजे तक आ जाना था अब तो ग्यारह बज चुके थे वैसे भी ऋचा भी थी तो लड़की ही, इतनी रात्रि में दो लड़कियाँ, कोई गाड़ी रोक ही ले तो क्या कर लेंगी। इस समय ममता के स्मृति पटल पर न जाने कहाँ कहाँ की अनेक घटनों आ कर लुका छिपी कर रही थीं। मन हटाने के लिये उसने टीवी खोल लिया, पर उसमें भी उसका मन न लगा। ऋचा के घर वह अब तक कम से कम पाँच छ: बार फोन कर चुकी थी,पर हर बार उधर से खीजे स्वर में उत्तर मिलता “अभी नहीं आई है” जो उसे इस बात की अनकही चेतावनी देता कि ‘अब मुझे डिस्टर्ब मत करियेगा।’ वह अपमानित सी स्वयं को लानत भेजती कि वह थोड़ा धैर्य क्यो नहीं रख पाती है, कालेज के कार्यक्रम में देर हो गई होगी। पर कुछ ही क्षणों में असुरक्षा और आशंका अभी अभी हुए अपमान पर इतना आच्छादित हो जाती कि व्यग्र हो कर उसके हाथ पुन: फोन पर पहुँच जाते। तभी घंटी बजी, उसने लगभग दौड़ कर द्वार खेाला तो सामने ऋचा खड़ी थी। वह उसे सामने पा कर उसी पर बरस पड़ी “तुम लड़कियाँ भी अति करती हो इतनी देर हो गई और यह भी नहीं होता कि एक फोन ही कर देती और अब विधा कहाँ छिपी है? उससे कहो झूठमूठ डरने का नाटक ना करे” पर यह कहते कहते जब उसकी दृष्टि निश्चल खड़ी ऋचा और पीछे खड़े खाकी वर्द वाले पर पड़ी तो वह हतप्रभ रह गई। कुछ अनहोनी हुई है यह तो वह समझ गई, उसने ऋचा को झझकोर दिया “विधा कहाँ है,तुमने तो कहा था कि तुम उसे साथ ले आओगी ?’’ तब ऋचा को किनारे कर साथ आए पुलिस वाले ने बताया “देखिये मैडम थोड़ा धैर्य रखिये मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप की बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही।”  यह सुन कर ममता तड़प उठी उसने इंस्पेक्टर को लगभग डाँटते हुए कहा, “लज्जा नहीं आती ऐसी अपशकुन की बातें कहते हुए, तुम क्या मेरी बेटी को पहचानते हो?’’

“देखिये हमे किसी ने फोन पर बताया कि कालेज के पिछवाड़े एक लड़की का शव पड़ा है, हमने छानबीन की तो उसके पर्समें एम.एस.डी. कालेज का पहचान पत्र मिला। हम एम.एस.डी. कालेज गए तो पता चला कि वहाँ वार्षिक समारोह हो रहा है, इससे पहले कि हम अंदर जाते हमें बाहर ही यह मैडम मिल गईं, इन्होंने ही बताया कि यह आधा घंटे से अपनी मित्र को खोज रही हैं,कुछ ही क्षणों में उसका कार्यक्रम होने वाला है और पता नहीं वह कहाँ है। तब हम उन्हे उस स्थान पर ले गए जहाँ वह शव था और तब इन्होने पुष्टि की कि यह आपकी बेटी विधा का शव है।”

अब ममता ऋचा पर बरस पड़ी -“मैंने तो उसे तुम्हारे भरोसे छोड़ा था, तुमने उसे अकेला क्यों छोड़ा?’’ ऋचा तो स्वयं ही इस अनहोनी से आहत थी, वह ममता की अवस्था को समझ रही थी अत: निश्चल खड़ी रही। तब तक कालेज के अन्य छात्र और प्रध्यापक भी आ चुके थे, उन्होने बताया कि कोई नहीं जानता कि विधा वहाँ कब और कैसे पहुँच गई। विधा का शव पेास्टमार्टम के लिये भेजा जा चुका था। लोगों से ज्ञात हुआ कि विधा के शरीर पर लगे खरोचों के चिन्ह स्पष्ट कर रहे थे कि मृत्यु से पूर्व विधा ने उन दरिन्दों का पर्याप्त विरोध किया होगा जिन्होंने उसके साथ बल प्रयोग किया था क्यों कि उसके शरीर पर जहाँ तहाँ खरोचों के चिन्ह थे,उसके हाथ पैर बं हुए थे और वस्त्र क्षत विक्ष थे, जो उसके साथ हुए अनाचार की कहानी कह रहे थे। पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट ने सबकी आशंका की पुष्टि कर दी। ऐसा प्रतीत होता था कि अपराधी दो अथवा दो से अधिक थे, जिन्होने अपनी क्षुधा शान्त करने के पश्चात पहचाने जाने के भय से विधा की हत्या कर दी होगी। सभी के लिये यह रहस्य था कि कार्यक्रम के मध्य विधा कब, कैसे और क्यों पिछवाड़े के उस एकान्त में पहुँच गई, जहाँ प्राय: दिन मे भी कोई नहीं जाता। विधा सीधी साधी काम से काम रखने वाली लड़की थी समय से कालेज आना अधिक से अधिक लायब्रेरी चले जाना और फिर घर जाना ही उसकी दिनचर्या थी। मित्रों के नाम पर भी ऋचा ही उसकी परम मित्र थी अन्यथा वह अल्प भाषी थी, अन्य छात्र छात्राओं से उसके बस औपचारिक सम्बन्ध थे। न तो उसकी किसी लड़के से मित्रता थी, न ही ऐसी कोई कहानी उसके सम्बन्ध में सुनी गई थी।

फिर तो कब विधा के शव का पोस्टमार्टम हुआ, कब सब परिचित एकत्र हुए, किसने उन्हें सूचित किया और कैसे अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ ममता को कुछ नहीं पता, वह यंत्रवत सब करती रही, पर उसकी चैतन्यता निस्पंद थी, वह तो अभी इसे सत्य भी नहीं मान पायी थी,उसे तो यह किसी नाटक का अंग लग रहा था। यह उसके जीवन में घटा है और विधा अब इस संसार में नहीं है, यह तो उसे तब समझ में आया जब एक एक कर अब तक उसे घेरे हुए सभी परिचित चले गए और वह एकाकी रह गई। वह पागलों की भाँति विधा को प्रत्येक कमरे में ढूँढने लगी कि क्या पता वह बचपन की भाँति उसे सताने के लिये कहीं छिप गई हो और अचानक आ कर उसे चौंका दे पर जब सामने लगे विधा के माला पड़े चित्र ने उसका कटु वास्तविकता से सामना कराया तो वह पागल सी हो गई, उसने चित्र पर पड़ी माला को नोच नोच कर फेंक दिया और वहीं धरती पर ढह कर फूट फूटकर रोने लगी। आज एकान्त में उसका करुण क्रंदन सुन कर संभवत: चर अचर सभी पत्थर हो गए जो किसी ने उसे चुप नहीं कराया। कब वह रोते रोते बेसुध हो गई, उसे भी नहीं पता, न जाने रात की कौन सी पहर में उसकी आँख खुली तो ­डर से उसके हाथ पाँव जकड़ से गए थे पर वहाँ था ही कौन जो उसे कुछ ओढ़ाता या उठा कर बिस्तर तक ले जाता, स्वयं ही प्रयास करके किसी प्रकार वह उठी और बिस्तर पर जा कर ढह गई। आज उसने जब मस्तिष्क पर जोर डाला, तो उसे याद आया कि कोई कह रहा था कि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में लिखा था कि विधा के साथ बला... पूरी बात सोचने का भी साहस नहीं था उसमें, उसने अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिया और चीख उठी “नहीं नहीं उस फूल सी कोमल बच्ची के साथ ऐसा कैसे हो सकता है, उसने किसी का क्या बिगाड़ा था।” उसकी बेटी ने तो कभी किसी से ऊँचे स्वर में बात भी नहीं की थी। सभी जानते थे कि विधा घर से सीधे कालेज जाती थी और कालेज से घर। वह तो आजकल की लड़कियों की तरह जीन्स भी नहीं पहनती थी, सादा सा सलवार कुर्ता और ओढ़नी ही तो उसकी वेशभूषा थी।

एक बार विधा ने झिझकते हुए माँ से कहा था “माँ आजकल मेरी सारी दोस्त जीन्स पहनती हैं मैं भी एक ले लूँ? सब मुझे बहनजी समझते हैं।”  तो ममता बिगड़ गई थी “देख विधा तू उनसे बराबरी मत कर, तू सीधे पढ़ाई कर बस, तेरे आगे पीछे कोई भाई बाप नहीं बैठे हैं, मैं तुझे किस किस की दृष्टि से बचाऊँगी। जो फैशन करना है अपनी ससुराल जा कर ही करना।’’ उस दिन के बाद विधा ने कभी फिर नहीं कहा। ऐसी सरल बच्ची के साथ कोई क्यों कुछ करेगा? सब लोगों की बनाई बातें हैं, पर अगले ही क्षण माँ के बेटी के मोह में बौराए मन से मस्तिष्क ने तर्क किया ‘लेकिन पेास्टमार्टम की रिपोर्ट गलत थोड़े ही न होगी’ और इस सत्य से साक्षात्कार होते ही ममता का रोम रोम क्रोध की अग्नि सुलग पड़ी, उस माँ के रोम रोम ने उस अनचीन्हे अपराधी को जितनी बद्‍दुओं दे सकती थी दे डाली। उसका वश चलता तो वह उस अपराधी को अपने क्रोध की अग्नि में ही झुलसा देती। ‘वह कौन है और उसने ऐसा क्यों किया?’ यह जानने को वह व्यग्र हो उठी।

उसे समझ नहीं आ रहा था कि कालेज का कार्यक्रम छोड़ कर विधा उस एकान्त में क्यों चली गई? अवश्य उससे किसी ने कुछ ऐसा कहा होगा जो उसे वहाँ जाने पर विवश होना पड़ा होगा। ममता ने सोचा ‘अवश्य उसे किसी ने मेरे विषय में कुछ कहा गया होगा।’ ममता को याद है बचपन में एक बार विधा स्कूल से आई तो ममता घर पर नहीं मिली, उसने पड़ोस की गुप्ता चाची से पूछा तो उन्होने उसे चिढ़ाने के लिये कह दिया, “तेरी माँ को भालू उठा ले गया’’ बस इससे पूर्व कि चाची कुछ समझती विधा बस्ता वहीं पटक कर भालू को खोजने चल पड़ी थी। आज भी हो सकता है कि किसी ने उसे माँ के विषय में ही कहा होगा, जो आगा पीछा सेाचे बिना वह पगली उस एकान्त में चली गई, पर वह कौन था उसकी विधा से कोई शत्रुता थी, कि उसकी अभागन बच्ची परिस्थितिवश क्षणिक उन्माद का शिकार हो गई? यह अनेक अनसुलझे प्रश्न ममता को विक्षिप्त किये दे रहे थे, जिनके उत्तर संभवत: विधा के साथ ही विलुप्त हो गए थे। वह सोती तो विधा का दर्द से तड़पता दानवों से लड़ता, सहायता के लिये पुकारता असहाय चेहरा उसे पुकारता और वह पसीने पसीने हो कर उठ जाती, पूरी पूरी रात वह कमरे में चक्कर लगाती। पुलिस अपनी कार्यवाही कर रही थी, ममता जब तब थाने जा कर कार्यवाही के विषय में पता कर आती। एक दिन वह सो कर उठी तो फोन की कर्कश ध्वनि घनघना उठी उसने “हलो ‘‘कहा तो उधर से रहस्यमय धीमी ध्वनि में किसी ने कहा “बुढ़िया चुपचाप केस वापस ले ले नहीं तो तुझे भी तेरी बेटी के पास पहुँचा दिया जाएगा।’’ ममता क्रोध और उत्तेजना से काँपने लगी पर इससे पूर्व कि वह कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती फोन कट चुका था। उसने निश्चय कर लिया था कि चाहे जो हो जाय, अपना सब कुछ लुटा कर भी वह अपराधी को पकड़वा कर रहेगी। वैसे भी अब जीवन में बचा ही क्या है, अब तो उसके जीवन का लक्ष्य ही उस अपराधी को दंड दिलवाना है, लक्ष्य की सफलता ही ममता के मन में प्रज्जवलित क्षोभ की अग्नि को शाँत कर सकती है, उसके मन की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझा सकता है। इस विचार ने उसे कुछ राहत दी, अभी वह विचारों में उलझी ही थी कि थानेदार सुजीत सिंह आ गए, थानेदार ने उससे अनेक प्रश्न किये

“ विधा के मित्र कौन थे?’’

“उसकी किसी लड़के से मित्रता थी कि नहीं?’’

“उसकी शत्रुता किससे किससे थी?’’

ममता धैर्यपूर्वक अपने दर्द को नियंत्रित करके सभी प्रश्नों के उत्तर देती रही, अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिये उसे पीड़ा के इस गरल को पीना ही था।

शनै: शनै: यह घटना प्रचारित हो गई और अनेक महिला संगठन उसके सहयोग के लिये आगे आए। ‘महिला समता संस्था’ की अध्यक्षा श्रीमती जुत्शी अपनी सहयोगी कार्यकर्ताओं के साथ स्वयं उससे मिलने आयीं और उसका उत्साहवर्धन करते हुए उसका साथ देने का आश्वासन दिया। अगले दिन अपराधी को पकड़वाने के लिये ‘महिला समता संस्था’ और अन्य अनेक संस्थाओं ने मिल कर पुलिस अध्यक्ष के कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया, अपराधी को पकड़ने के लिये नारे लगाए, पत्र पत्रिकाओं ने विचारोत्तेजक लेख लिखे.... परिणाम सामने आया और अन्त में वह दिन आ ही गया जब ममता को अपनी तपस्या पूर्ण होती लगी, अपराधी पकड़ा गया। वह कालेज का ही एक कई वर्षों से फेल हो रहा छात्र था, जो शहर के धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति का पुत्र था। घटना के इतना तूल पकड़ने और मीडिया में बात उछलने के कारण ही पुलिस को उस पर हाथ डालना पड़ा था। ज्ञात हुआ कि एक बार कालेज जाते हुए उसने विधा का हाथ थाम लिया था, प्रतिक्रिया स्वरूप विधा ने सबके समक्ष ही उस पर हाथ उठा दिया था। संभवत: उसने उसी का बदला लेने के लिये यह कुकृत्य किया।

जिस दिन वह पकड़ा गया प्रात: से ही ममता के घर पर बधाइयों का तांता लग गया। ममता उस दिन पहली बार अपनी बेटी के चित्र को आँख मिला कर देख पाई थी, उसने बेटी के चित्र पर हाथ रख कर प्रण किया “बेटी मैं तेरी रक्षा तो नहीं कर पाई पर तेरे अपराधी को अवश्य दंड दिलवाऊँगी, चाहे उसके लिये मुझे अपना जीवन भी गँवाना पड़े।” ममता ने अपना घर गिरवी रख कर प्रतिष्ठित वकील किया यद्यपि उस पर दबाव भी डाला गया पर जब उसकी सबसे अमूल्य निधि ही खो गई तो अब उसे किस बात का भय था, उसने निश्चय कर लिया कि वह अपनी बेटी के कातिल को दंड दिला कर ही रहेगी। याचिका की प्रथम सुनवाई थी, विपक्ष के वकील ने उससे कुछ प्रश्न पूछने के लिये उसे कटघरे में बुलवाया। वकील ने पूछना प्रारम्भ किया “आपकी बेटी का किस किस लड़के से सम्बन्ध था।’’

“आप की आय तो सीमित है कहीं आपकी बेटी अपने कालेज के व्यय के लिये कुछ ऐसा वैसा तो नहीं करती थी? प्राय: ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा हो जाता है।”  ममता तो हतप्रभ रह गई वह चीख पड़ी “वकील साहब अपनी जुबान को वश में करिये।” पर वकील शां बना रहा उसने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा “देखिये ममता जी इसमें अनहोनी कोई बात नहीं आजकल अच्छे अच्छे घर की लड़कियाँ भी सब कर रही है और माँ बाप या तो जानते नहीं या जान कर अनजान बने रहते हैं।” शब्द ममता के हदय में पिघले लावे के समान पड़ रहे थे इससे बड़ी गाली और क्या हो सकती थी, जिस सम्मान की रक्षा के लिये माँ बेटी ने इतने दुख सहे,अपनी इच्छाओं का गला घोटा आज उस सम्मान के चिथड़े चिथड़े हवा में तैर रहे थे फिर भी ममता स्वयं को नियंत्रित किये रही, उसे अपराधी को दंड जो दिलाना था। पत्रकारों को अपनी पत्र पत्रिकाओं के लिये अच्छा और सनसीपूर्ण मसाला मिल गया था। सब अपनी अपनी अटकलें लगा रहे थे वकीलों के तर्क और प्रश्न लोगों को हवा में ही कहानी बनाने को प्रेरित करने लगे। कुछ ने तो अपराधियों की कुत्सित मानसिकता, व्यभिचार एवं अनैतिकता के गर्त में गिरते समाज को दोशी माना था, तो कुछ की कल्पना कुछ अधिक ही उर्वर हो गई, वे एक दुखी माँ के दर्द और अत्याचारियों का शिकार हुई, मृतका के प्रति क्रूरता की अति तक संवेदनहीन हो गए और विधा के चरित्र पर ही प्रश्नचिन्ह लगा बैठे। नित्य बेसिर पैर की नई नई कहानियाँ जन्म लेने लगीं। यह ममता के लिये विधा के साथ हुए अत्याचार और उसकी मृत्यु से भी बड़े धक्के थे। ममता के हदय पर प्रति प्रश्न से लगने वाली चोटें उसे लहूलुहान कर रही थीं पर मन के रक्त के सागर में डूबते हुए भी वह अपने निश्चय पर अडिग थी।

अगली सुनवाई थी, ममता को फिर कटघरे में बुलाया गया, वकील आज ने प्रश्न ले कर आया था। पहला प्रश्न, “आप कैसे कह सकती हैं कि उसके साथ जो हुआ वह उसकी इच्छा के विरुद्ध हुआ?”

“आप की बेटी के किस किस अंग पर खरोंच के चिन्ह थे?”

“उसके कौन कौन से वस्त्र फटे थे?”

“ब ऽ ऽ ऽ स अब और नहीं” - आगे ममता कुछ नहीं सुन पाई। वह चीख पड़ी।

“मैं मुकदमा वापस लेती हूँ, नहीं चाहिये मुझे इंसाफ, कोई अधिकार नहीं है आप को मेरी मृतक बेटी का अपमान करने का।”

“क्या अंतर है आप में और इस सामने खड़े अपराधी में?”

यह कहते हुए, हाँफते हाँफते वह बेसुध हो गई। अपराधी छूट गया। लोग उसके इस कदम पर अनेक आलोचनाएँ करने लगे। अपनी सफलता पर आश्वस्त महिला संगठन सहज प्राप्त प्रसिद्धि के हाथ से निकल जाने से क्षुब्ध थे, कोई कह रहा था वह कायर निकली, कोई कह रहा था कि उसका मुँह धन से भर दिया गया पर ममता को अपनी बेटी का सार्वजनिक रूप से, फिर से हो रहा चीरहरण, किसी भी मूल्य पर सह्य न था।

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