आवारा हो गया यह शहर

01-11-2020

आवारा हो गया यह शहर

राजेश ’ललित’ (अंक: 168, नवम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

गली में झाँकता 
मिला यह शहर
पकड़ लाया हूँ 
आवारा हो गया
कहता फिर रहा
मुझे पहचान लो
मैं मर रहा हूँ 
धीरे धीरे
उसने फिर कहा
देखो ये जंगल
ये शेर ये पेड़
सब खा गया आदमी
ये गिलहरी: ये गोरैया 
सब तस्वीर बना गया आदमी
ये ताल; ये तलैया
सब पी गया आदमी
अब भी प्यासा 
न जाने कैसे जी रहा आदमी
 
मत झाँको 
इस गली में
ये गली मरी
हुई है
रहते कुछ बुत मशीनी
बेरहम वाहन
कुचली सड़कें
सड़कों के नाम
यूँ ही बदनाम
जानवर-आदमी
सभी के ज़ुबान पर
सब के सब बेज़ुबान 
अपनी व्यथा भी
कहाँ कह पाता आदमी?
 
गली में झाँकता 
फिरता शहर
बेमतलब का शोर
बेवज़ह तोड़ फोड़
गली बाज़ार है
बाज़ार गली है
हर चीज़ यहाँ 
दिखती भली है
हर चीज़ तभी 
बिकती भली है
दाम के दाम
बेदाम भी बिकता 
यहाँ आदमी

1 टिप्पणियाँ

  • 2 Nov, 2020 08:29 AM

    अपनी व्यथा भी कहाँ कह पाता आदमी । बेदाग़ भी बिकता आदमी दिल को छू जाने वाली पंक्तियाँ हैं

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