आवारा बादल

15-04-2021

आवारा बादल

प्रवीण कुमार शर्मा  (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

आवारा बादल हूँ मैं
और तू है सावन की घटा;
शाश्वत है इनका मिलन
श्रावण मास में।
फिर क्यों तू अपना मुँह बिचकाती है
जब निहारता हूँ मैं तुझे।
माना कि तेरे पास रूप की नमी है,
मेरे पास भी तो है आवारापन की उच्छृंखलता।
कितनी भी दूर चली जा तू मुझसे
महसूस होगी तुझे मेरी उच्छृंखलता।
अच्छा लगता है तेरा इस तरह से मुँह  बिचकाना
क्योंकि यही अदा तो करती है मजबूर
पीछा करूँ तेरा बनकर आवारा बादल।
अनुरोध है एक तुमसे कि मत आने दिया करो
लटों को चेहरे पर;
जब ये लटें लहराती हैं तो
मेरा मन भी हिलोरे लेता है
और दुस्साहसित होता है
तुम्हें निहारने को।
सावन की प्यास हूँ मैं और
सावन की घटा हो तुम।
तुम मैं हो जाओ और
मैं तुम।
तुम प्यासी सृष्टि बन जाओ
मैं बरसता बादल।
मैं बरसाऊँ खुशियाँ
और तुम उन्हें समेटो अपने आँचल में;
ताकि पृथ्वीवासी सराबोर हो जाएँ,
सृष्टि और पालनकर्ता के मधुर मिलन में।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
लघुकथा
कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें