आसमान की चादर पे
अविनाश ब्यौहारआसमान की चादर पे
थिगड़े लगे हुए।
हैं टुकुर-टुकुर
देखते चाँद-तारे।
है कोई रूपसी को
घूरकर निहारे॥
पाँखुरी सी पलकें
हौले से कोई ख़्वाब छुए।
ज्यों हरीतिमा पत्तों
पर नृत्य करती।
मधु बना मुमाखी
अच्छा कृत्य करती॥
जैसे चाहत के गमलों
में नेह के अँखुए।
बुरा चलन समाज
में पाँव पसारे।
दिवस खड़े हैं
धूप में नंगे-उघारे॥
दबोच रहे हिरण
को बेरहम तेंदुए।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
- कविता-मुक्तक
- गीतिका
- ग़ज़ल
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-