आशा और निराशा

01-05-2019

आशा और निराशा

सागर कमल

आशा
एक अतिक्षीण डोरी-सी, कभी तो अदृश्य 
जिस पर हम जीवन के महत्वपूर्ण 
निजी सुख-दुःखपूर्ण आवरण 
टाँगते हैं,  सुखाते हैं 

 

और निराशा? 

 

मुखद्वार में ठुकी, एक अरसे से रुकी 
थोड़ा-सा आगे को झुकी 
स्थूल और मज़बूत कील के जैसी 
जो घर से बाहर निकलते 
रोज़ ही आते-जाते 
माथे से टकराती है 
और अक्सर घायल कर जाती है, 
तो क्यों न डोरी को कील से 
बाँध, तानकर स्थिरता दी जाए? 
क्योंकि अंततः 
निराशा का शब्दांत भी 
आशा ही तो है॥ 

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