आशा और निराशा
सागर कमलआशा
एक अतिक्षीण डोरी-सी, कभी तो अदृश्य
जिस पर हम जीवन के महत्वपूर्ण
निजी सुख-दुःखपूर्ण आवरण
टाँगते हैं, सुखाते हैं
और निराशा?
मुखद्वार में ठुकी, एक अरसे से रुकी
थोड़ा-सा आगे को झुकी
स्थूल और मज़बूत कील के जैसी
जो घर से बाहर निकलते
रोज़ ही आते-जाते
माथे से टकराती है
और अक्सर घायल कर जाती है,
तो क्यों न डोरी को कील से
बाँध, तानकर स्थिरता दी जाए?
क्योंकि अंततः
निराशा का शब्दांत भी
आशा ही तो है॥