गाँवों ने!
ज़िंदा रखा है
सामुदायिक सहभागिता को,
मिलकर ज़िंदगी की ख़ुशी-ग़मी,
और फ़सलों के काम निपटाते हुए,
शहरों ने!
तो कब की तिलांजलि दे रखी है,
साधारण मानवीय मूल्यों को भी
रुपयों के घमण्ड में अकड़ते हुए।