आप बहुत अच्छे हो

01-05-2020

आप बहुत अच्छे हो

डॉ. मोहन सिंह यादव (अंक: 155, मई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

जनवरी की ठंड अपने पूरे रंग पर थी अभी रात के आठ बजे थे लेकिन ऐसा लगता था कि मानो आधी रात हो गई है। मैं बस स्टैंड पर शहर आने के लिए लोकल बस की प्रतीक्षा कर रहा था, जहाँ मैं खड़ा था उससे कुछ ही दूरी पर दो-तीन ऑटो रिक्शा वाले एवं टैक्सी वाले खड़े थे।

मुझे वहाँ खड़े हुए लगभग बीस-पच्चीस मिनट हो चुके थे, लेकिन बस थी कि आ ही नहीं रही थी खड़े-खड़े ठंड के कारण मेरी देह अकड़ने लगी थी..

ऑटो-रिक्शा वाले से बात की तो उसने राणा प्रताप नगर जाने के लिए सौ रुपये माँगे थे बस में जाने से पन्द्रह रुपये और ऑटो-रिक्शा में जाने से सौ  रुपये....

नहीं बाबा नहीं ...और वैसे भी घर जल्दी पहुँच कर भी क्या करना है..मैंने मन को समझाया....

ख़ामख़ाह में 85 रुपये की नक़द चपत लगेगी जबकि इन पैसों से बहुत-सी समस्याएँ सुलझ सकती थीं...

मैं इसी उधेड़बुन में था कि जाऊँ या नहीं, तभी दूर से एक बस की ‘हैड-लाइट’ नज़र आई थी बस नज़दीक आई।

मेरी नज़रें गिद्ध समान बस से चिपकीं थीं। बस बाराबंकी से आई थी और लखनऊ जानी थी; बस स्टैंड पर बस रुकी। उतरने वाली तीन-चार सवारियाँ ही थीं...

उन सवारियों में एक युवा लड़की भी थी कंधे पर सामान का एक बैग झूलता हुआ उतरने वाली अन्य सवारियाँ रिक्शा करके जा चुकीं थीं लेकिन वह युवा लड़की भी किसी अन्य वाहन की तलाश में थी...।

तभी वह लड़की ऑटो-रिक्शा वाले के पास गई, बोली, “भैया....मेडिकल कालेज के लिए कोई बस….." वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया था...।

ऑटो-रिक्शा वाले ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारने के बाद कहा, "मैडम इस समय कोई बस नहीं मिलेगी.. ऑटो रिक्शा में चलना है तो…..?"

“कितने पैसे लोगे...उसने पूछा।”

“सौ रुपये..."

“यहाँ से कितनी दूर है...?" उसने फिर पूछा।

“यही कोई 10-11 किलोमीटर!”

वह चुप हो गई ...शायद सोच रही थी ‘चार्जेज़’ बहुत ज़्यादा हैं...दूसरे वह अकेली…..। कहीं रास्ते में….वह सिहर उठी थी। उसके चेहरे पर घबराहट और भय के मिले-जुले भाव थे।

तभी वहाँ दो युवक आ गए... शक्ल से वे ‘शरीफ़’ नहीं लग रहे थे। पान चबाते हुए उनमें से एक ने उस लड़की को देख कर मुस्कुरा कर पूछा, “कहाँ जाओगी...?"

“मुझे मेडिकल कालेज जाना है...," स्वर में हल्का-सा कंपन था और पैर लरज़ रहे थे...।

“हम छोड़ देंगे," ....दाढ़ी वाला दूसरा युवक मुस्कुराया आँखों में अजीब-सी चमक लिए हुए।

ठंड और भी बढ़ गई थी लेकिन उस युवा लड़की के ललाट पर पसीने की बूँदे झिलमिलाने लगी थी, आँखों में भय के साथ-साथ नमी भी झलकने लगी थी। मैं उनके बीच ‘बिन बादल बरसात’ की तरह टपक पड़ा।

“सुनिये....," मैं लड़की का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए धीरे से बड़बड़ाया...।

सवालिया निगाहें उस युवा लड़की के साथ-साथ उन दोनों युवकों व पास ही खड़े ऑटो-रिक्शा चालक की मुझ पर उठी थीं...

“आप मेडिकल कालेज जा रही हैं ना....?"  जानते-बूझते हुए भी मैंने एक प्रश्न किया था। 

उस लड़की ने गर्दन ‘हाँ’ में हिलाई लेकिन उसके चेहरे पर अब भी ख़ौफ़ था।

“मुझे भी मेडिकल कालेज जाना है...अगर आप मेरे साथ चलना चाहो तो….," ना जाने कैसे ये शब्द मैं उससे कह गया था..।

मन में डर भी था कि कहीं वह लड़की मुझे ग़लत न समझ ले डर उन ‘तीनों’ से भी था जो वहाँ खड़े थे...। मुझे उस युवा लड़की से बातें करते देख वे तीनों वहाँ से हटे थे। मैंने भी राहत की साँस ली।

मेरे प्रश्न के उत्तर में वह मेरे पास खिसक आई। उसका पास आना उसकी स्वीकृति का सूचक था कि उसे मुझ पर विश्वास था बस अभी भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही थी।

“आप कहाँ से आ रही है...?" मैंने पूछा।

“बाराबंकी," ..संक्षिप्त-सा उसने उत्तर दिया।

“कहाँ जाना है...?" मैंने फिर प्रश्न किया।

“मैं ‘मेडिकल होस्टल’ में रहती हूँ," वह बोली।

कुछ देर मैं चुप रहा क्या बात करूँ यही सोचता रहा। फिर मैंने कहा, “आप को दिन में आना चाहिए था या फिर किसी को साथ लेकर...।"

“वैसे पापा को आना था, मगर उनकी तबीयत अचानक ख़राब हो गई...," वह मजबूरी बताते हुए बोली।

“तो किसी और को साथ….. मतलब भाई….."

“घर में छोटा भाई व छोटी बहन ही है इसीलिए… फिर भी मैं समय से ही चली थी लेकिन सहारनपुर में बस स्टैंड पर चालकों ने पहिया जाम कर दिया था; शायद किसी पैसेंजर से झगड़ा हो गया था....। अन्यथा मैं शाम को ही यहाँ पहुँच जाती...," उसने अपनी बेबसी व मजबूरी बताई थी।

“बस तो आ नहीं रही, क्या आप मेरे साथ ऑटो-रिक्शा में चलना पसंद करोगी....? किराया आधा-आधा कर लेंगे..," मैंने व्यावहारिक बनने की कोशिश की।

इससे पूर्व कि वह कोई जवाब देती, वही दोनों युवक एक मारुति में नज़र आये। उनमें से एक उस लड़की को देख कर चिल्लाया, “9 नम्बर क्रशिंग……”।

मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा था और शायद यही हाल उसका भी था। उसकी हालत देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वह किस क़दर भयभीत हो उठी थी। मैं कोई फ़िल्मी हीरो नहीं था कि उन दोनों का मुक़ाबला कर सकता...।

पर साथ ही मुझे साथ खड़ी लड़की का ख़्याल आया। आज निस्संदेह इस लड़की के सितारे गर्दिश में हैं; इसके साथ आज कुछ भी हो सकता है। अगर मैं न होता तो शायद यह उनके साथ चली जाती और फिर…..

मैं कल्पना-मात्र से ही सिहर उठा।

तभी बस आती नज़र आई। “लगता है बस आ रही है!” मैंने उस युवा लड़की से कहा...।

नज़रें, आ रही बस पर टिकी थीं। बस आकर रुकी थी। मैं बस में चढ़ा। मेरे पीछे वह भी चढ़ी थी; मैंने दो टिकट ली। उसने टिकट के पैसे देने चाहे थे तो मैंने मना कर दिया....। अजनबियत की पारदर्शी दीवार हम दोनों के बीच गिर चुकी थी।

हम दोनों साथ-साथ बस में बैठे थे। मैं उससे इस क़दर हट कर बैठा था, मानों मुझे या उसे छूत की बीमारी हो या फिर उसके कोमल मन पर इस धारणा को पक्की करने की ललक में था कि मैं कोई ग़लत युवक नहीं हूँ...।

मैं ऐसा क्यों कर रहा था, यह मेरी समझ से बाहर था..।

क्या मैं उसकी ओर आकर्षित हो रहा हूँ...? मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं था।

“आप क्या करते हैं...?" उसने अचानक मुझ से सवाल किया।

“मैं…..," मैं उसकी ओर देखते हुए चौंका, बोला, “बिज़नेस में हूँ... साथ में समाज सेवा से जुड़ा हूँ," बेवज़ह मैंने अपने समाज सेवा की बात कही... शायद उसे प्रभावित करने के लिए।

“किस नाम से...?" उसने खिड़की से बाहर झिलमिलाती रोशनियों की ओर देखते हुए पूछा।

"समाज सेवा समिति के नाम से... वैसे मेरा नाम भी राकेश  है।" मैं सोच रहा था कि नाम सुन कर वह कहेगी, “हाँ... मैंने इस नाम को सुना है"। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

मैं कोई बड़ा समाज सेवक नहीं था उसकी नज़र में...

वह ख़ामोश हो गई थी ...

मैंने कनखियों से उसकी तरफ़ देखा। वह सुन्दर थी- बेहद सुन्दर...। उसकी सादगी दिल में उतर जाने वाली थी, सीधे ही एक सुकून पहुँचाने वाली...।
“आप मेडिकल होस्टल में….?"

मेरी बात का आशय समझ वह बोली, “जी..., मैं मेडिकल की ‘पढ़ाई’ कर रही हूँ...।"

तब तक उसकी मंज़िल तक बस पहुँच चुकी थी। मैंने उससे धीमे स्वर में कहा, "जाओ! दरवाज़े के पास जाओ...।"

हम दोनों गोल चौराहे पर बस से उतरे। वहाँ से मेडिकल होस्टल का पैदल रास्ता दस मिनट का था। इस वक़्त वहाँ गहन अँधेरा फैला था।

“कहो तो ‘तुम्हें’ मेडिकल होस्टल तक छोड़ आऊँ...?" मैंने उससे पूछा।

“अगर आपको तकलीफ़ न हो तो….," उसने वाक्य अधूरा छोड़ कर मेरी तरफ़ देखा।

“नहीं….. नहीं, तकलीफ़ कैसी...! मैं आपको छोड़ देता हूँ," ...मैंने कलाई की ओर बँधी घड़ी की ओर देखते हुए कहा।

होस्टल तक का सफ़र हमने चुपचाप पैदल पार किया। होस्टल पहुँच कर वॉर्डन से सामना हुआ..। वॉर्डन ने कुछेक प्रश्न मुझसे पूछे और कुछ उससे। वॉर्डन के सामने ही उसने मुझसे मेरा पता पूछा था...।

मैंने उसे पता लिख कर दिया।

वॉर्डन ने मुझे घूरा था, बोली, “आप इसे पत्र लिखेंगे...?"

मैं चुप रहा...

वॉर्डन की ओर देखते हुए उसके कहने का मतलब समझने की कोशिश करता रहा...

“देखिए... आप पत्र सोच-समझ कर डालना।”

“मतलब...?” मैंने पूछा।

“यहाँ पत्र खोले जाते हैं; कहीं ऐसा-वैसा पत्र….."

मैं मुस्कुराया था। फिर उस युवा लड़की की ओर देखा, फिर बोला, “आप मुझे ग़लत समझ रही हैं। पता इन्होंने मुझसे लिया है; मैं ना तो इनका नाम जानता हूँ, ना ही पता। ये पत्र लिखना चाहें तो इनकी मर्ज़ी...।"

इतना कह कर मैं चलने के लिए उठा; उस युवा लड़की की ओर देखा... कृतज्ञता के भाव उसके चेहरे पर फैले थे।

वह बाहर छोड़ने को आई थी। आँखों में नमी फैल गई थी उसकी....वह बोली, “आपका यह एहसान मैं ज़िन्दगी भर न भूल पाऊँगी...।"

मैं कुछ नहीं बोला और वहाँ से चला आया...।

घर पहुँचा तो रात के लगभग दस बज रहे थे। पत्नी मेरे इंतज़ार में खाने के लिए बैठी हुई थी...।

“आज बहुत देर कर दी... मेरी आँखों में प्यार से झाँकते हुए पत्नी ने कहा।

मैं पत्नी को सारा क़िस्सा सुनाता हूँ... वह ख़ामोशी से टकटकी बाँधे ग़ौर से मेरी बात सुनती रही...।

क़िस्सा सुनाने के बाद मैंने पूछा, "ऐसे क्या देख रही हो मुझे...।" मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी कहीं शक तो नहीं कर रही...?

वह उठती है मेरे समीप आकर मेरी नाक अपने दाएँ हाथ के अँगूठे व सांकेतिक उँगली से दबा कर चहकते हुए कहती है, "आप….. आप बहुत अच्छे हो...!"

पत्नी की आँखों में छाया विश्वास मन को गुदगुदा गया। पत्नी को बाँहों में भर कर धीमे से उसके कानों में गुनगुना उठता हूँ, “और….. आप….. आप भी बहुत अच्छे हो ...!"

यहाँ विश्वास की जीत हुई, विश्वास जो पति पत्नी में था... विश्वास एक पुरुष का था अपने आप पर और विश्वास एक महिला का था अपने पति पर...

जो बिना शक के कह सके ....

आप बहुत अच्छे हो ......!        

1 टिप्पणियाँ

  • 12 May, 2020 03:09 PM

    शुक्रिया ऐसी ही कहानियाँ डालते रहें ।

कृपया टिप्पणी दें