आओ थेरियों

01-09-2021

आओ थेरियों

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मनू मैं अक़्सर ख़ुद से पूछती हूँ कि सारे तूफ़ान वाया पश्चिम से ही हमारे यहाँ क्यों आते हैं, कोई तूफ़ान यहीं से क्यों नहीं उठता? सोचने पर पाती हूँ कि ग़ुलामी की ज़ंजीरें ज़रूर सात दशक पहले ही टूट गईं, लेकिन मैं मानती हूँ कि मानसिक ग़ुलामी से मुक्ति सच में अब भी बाक़ी है। यही कारण है कि जब किसी चीज़ पर विदेशी ठप्पा लग जाता है, तभी हम उसे मानते-समझते हैं । उस पर ध्यान देते हैं। 

"हैशटैग मी-टू" का तूफ़ान भी भारत में तब असर दिखा रहा है जब पश्चिम में यह बहुत पहले से ही अपनी चपेट में बड़ों-बड़ों को समेट चुका है। अभी जल्दी ही एक बहुत बड़ा अमरीकी सैन्य अधिकारी इसकी चपेट में आ गया। जब वहाँ की पहली फ़ाइटर प्लेन पायलट ने एक समिति के सामने अपने यौन शोषण का राज़ खोल दिया कि शुरुआती दिनों में उस अधिकारी ने बर्बरता-पूर्वक उसका शोषण किया था।

अपने यहाँ की बात करें तो अंग्रेज़ीदां लोगों या मानसिकता वाले या ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि मैकाले के मानस पुत्रों के बीच भले ही "हैशटैग मी-टू" स्टॉर्म कहा जा रहा हो, लेकिन सच यह है कि हिंदी जगत या ऐसे कहें कि ग़ैर अंग्रेज़ीदां जगत में यानी हिन्दुस्तान में तथा-कथित स्टॅार्म अभी दरवाज़े के आस-पास भी नहीं पहुँचा है।

मैं जितना जानती हूँ उसी आधार पर कह रही हूँ कि इस तथाकथित स्टॉर्म की ग़ैर अंग्रेज़ीदां जगत में अभी आहट भी नहीं सुनाई दे रही है। इसकी हवाएँ अभी तूफ़ानी रूप लेने लायक़ ऊर्जा ग्रहण ही नहीं कर पाई हैं। मुझे लगता है कि अंग्रेज़ीदां जगत में भी यह स्टॉर्म क्षणिक समय के लिए ही है।

मनू, मौसम वैज्ञानिकों की तरह मैं भी इस स्टॉर्म की हवाओं का रुख़ पढ़ने की कोशिश बराबर कर रही हूँ। मेरा आकलन यही कहता है कि जब हम "मी-टू" का भारतीय संस्करण सामने लाएँगे तभी सही मायने में यह अपने देश में प्रचंड तूफ़ान बनेगा।

और यह भी साफ़ कह दूँ कि ग़ैर अंग्रेज़ीदां दुनिया में ही बनेगा। हवाओं का रुख़ बता रहा है कि जब प्रचंड तूफ़ान बनेगा तो भारत की "आधी दुनिया" की दुनिया ही बदल जाएगी। छोटे गाँवों तक में "आधी दुनिया" से मर्दवादी सोच, व्यवस्थाएँ, तौर-तरीक़े दूर भागेंगे। पूरे समाज में एक ऐसे बदलाव का युग शुरू होगा जिसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का खोया वह युग वापस आएगा, जब शासन-प्रशासन, अध्ययन-अध्यापन से लेकर कला-संस्कृति, घर के आख़िरी कोने तक में "आधी दुनिया" का बराबर का वर्चस्व था। 

मनू, हवाओं के रुख़ पर मेरा आकलन यह भी है कि ऐसा प्रचंड तूफ़ान किसी उच्चवर्गीय महिला या उनके साथ जुड़ती-बढ़ती जा रही महिलाओं के प्रयासों से नहीं आएगा। जिनके लिए एक बड़े लेखक ने लिखा है कि, "ये खाई-अघाई आउटडेटेड महिलाओं का फ़्रस्ट्रेशन है, जो बीस-बीस साल बाद आरोप लगाकर एक बार फिर से लाइमलाइट में आने का भोंडा प्रयास कर रही हैं। यह उनका एक भोथरा प्रयास है। जब उनका यौन शोषण हुआ तब क्या पुलिस, न्यायालय, मीडिया नहीं था।"

लेकिन मनू मैं एक महिला होने के नाते इन बातों को ख़ारिज करती हूँ। मैं लेखक महोदय से कहना चाहती हूँ कि, उच्चवर्गीय जिन भारतीय महिलाओं ने पश्चिम के "मी-टू" स्टॉर्म को भारत में खड़ा करने का प्रयास किया है, इनका जब शोषण हुआ था तब यह सब एक स्ट्रगलर थीं। तब यह ना खाई-अघाई की सीमा में थीं। ना तृप्त-अतृप्त की सीमा में थीं। तब यह सिर्फ़ स्ट्रगलर थीं।

अपनी-अपने फ़ील्ड में कॅरियर बनाने के लिए संघर्षरत थीं। जहाँ उन्हें हर तरफ़ मर्दवादी सोच वाली भीड़ से सामना करना पड़ रहा था। ए-टू-ज़ेड हर जगह इसी भीड़ का क़ब्ज़ा था। पैर रखने के लिए भी इन महिलाओं को संघर्ष करना पड़ रहा था। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। बस बदलाव की एक हल्की-हल्की बयार चल रही है।

आज अगर निष्पक्ष आँखों से देखें तो इन महिलाओं ने मर्दवादी सोच वालों की मुट्ठी में जकड़ी अपनी दुनिया छीन कर अपने पैर जमाए और अपनी मंज़िल पाई। इस दृष्टि से यह सभी महान विजेताएँ हैं। इनका जितना मान-सम्मान हो उतना ही कम है।

मैं तो कहूँगी कि अभी सवा सौ करोड़ के देश में कुछ महिलाओं ने ही चंद बातें ही दुनिया के सामने साझा करके अपने देश में स्टॉर्म पैदा करने का प्रयास किया है। और इतने से ही बड़े-बड़े दिग्गज छिपने के लिए अँधेरा ठिकाना ढूँढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें अपना चेहरा छिपाने लायक़ एक अँधेरा कोना भी नहीं मिल पा रहा है।

मीडिया के दिग्गजों को भी नहीं। मनू ये आज की दुनिया के वो दिग्गज हैं, जो दुनिया के हर क्षेत्र के लोगों की बखिया उधेड़ते रहते हैं। सबके स्याह-सफ़ेद को उजागर करते हैं, लेकिन ख़ुद हर तरह के दल-दल में धँसे रहते हैं। इनके स्याह कारनामों को दुनिया के सामने उजाले में लाने का साहस कोई नहीं करता।

मीडिया का एक अदना सा संवाददाता भी ख़ाकी से लेकर सफ़ेद वर्दीधारी नेताओं पर भी रौब झाड़ ले जाता है। ये लोकत्रांतिक युग की दुनिया के वास्तविक हिटलर हैं। ऐसे में संपादक की हैसियत कितनी बड़ी होती है, वह कितना ताक़तवर बन जाता है मनू यह बताने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे ही कई पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक क़लम के धनी लेखक संपादक की ताक़त का तो अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता।

ऐसी अकूत ताक़त किसी को भी आसानी से लंपट बना सकती है। शक्ति के मद में चूर होकर वह कुछ भी कर सकता है। पिछले दिनों तुमने ऐसे ही एक लंपट के बारे में देखा-सुना होगा मीडिया में। पढ़ा भी होगा। 

यह उस लंपट की अकूत ताक़त ही तो थी कि विदेश राज्य मंत्री बन गया, और भी ताक़तवर हो गया। सही मायने में सोने पे सुहागा हुआ। मगर इस "मी-टू" ने ऐसे महाशक्तिशाली आदमी को भी तिनके सा उड़ा दिया। दूर देश के दौरे पर से बीच में ही वापस बुला कर इस्तीफ़ा ले लिया गया। क्योंकि शक्तिशाली सरकार इन चंद औरतों के मुँह खोलने से उत्पन्न हुई स्थिति में प्रचंड तूफ़ान की आहट सुन रही है।

जो किसी झोपड़ी से शुरू होने वाला है। जो किसी झोपड़-पट्टी में कहीं गोल-गोल घूम रहा है। जो इतना प्रचंड चक्रवाती तूफ़ान बनने की ऊर्जा स्वयं में समेटे हुए है कि उतनी ऊर्जा आज तक इस पृथ्वी पर आए किसी तूफ़ान में नहीं थी। इन चंद औरतों को खाई-अघाई कह कर उनके काम, साहस प्रभाव को नकारने की साज़िश सफल होने वाली नहीं है।

ऐसे साज़िशकर्ता भी साज़िश करने की सज़ा भुगतने को तैयार रहें। डरें उस दिन से जिस दिन उनके भी स्याह पन्ने कोई महिला दुनिया के सामने पढ़ देगी। तब वह भी ख़ुद को ना तो अपनी लिखी ढेरों किताबों के पीछे छिपा पाएँगे, ना ही जोड़-तोड़ से बनाए अपने किसी क़िले में।

मनू सच बताऊँ जब यह "हैश-टैग-मीटू" पश्चिम से चला तो मैं इसके बारे में जानने के लिए कुछ ज़्यादा उत्सुक नहीं थी। सोचा वहाँ तो रिच मैन पर ऐसे आरोप लगा कर पैसा वसूलने की एक परंपरा सी चली आ रही है। हालाँकि यह आरोप कई बार सही भी निकलते आ रहे हैं। यह "हैश टैग-मीटू" उसी का नया वर्जन होगा। 

लेकिन जब इसने ज़ोर पकड़ा तो इसे लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मोबाइल पर ही न्यूज़ पढ़ने-देखने की सुविधा के चलते मैं हर समय लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने की आदी हो गई हूँ। ढूँढ़-ढूँढ़ कर मीटू से रिलेटेड ख़बरें पढ़ने-देखने लगी।

हॉस्पिटल में ड्यूटी हॉवर्स में भी मैं यह करती रहती हूँ। नर्सिंग स्टाफ़ की हेड होने के चलते मुझ पर बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ होती हैं। लेकिन मैं अपना काम जूनियर पर डालकर अपने इस एडिक्शन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा समय निकाल ही लेती हूँ। 

जानती हूँ कि यह जूनियर का शोषण है। लेकिन जब-तक यह बात मेरे दिमाग़ में आई तब-तक मैं इसकी आदी हो चुकी थी। मेरा शोषण मेरे सीनियर करते रहे हैं और यह अब भी चल ही रहा है। यही क्रम नीचे तक चलता चला जा रहा है। मैं भी जाने-अनजाने इसका हिस्सा बन गई हूँ। मगर दिमाग़ में यह बात आने के बाद मैं इससे मुक्ति के प्रयास में हूँ। 

मैं सिर्फ़ इतने ही प्रयास में नहीं हूँ मनू, मैंने जब से तनुश्री और फिर बाद में अन्य महिलाओं का साहस देखा, जिनकी हिम्मत, पाप के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के जज़्बे के कारण एक पूर्व संपादक, लेखक केंद्रीय मंत्री को रास्ते पर ला खड़ा किया, तब से मेरे मन में भी बवंडर उठा हुआ है। तनुश्री के बाद जिस तरह से विनता, प्रिया सहित तमाम महिलाएँ उठ खड़ी हुईं, उसके बाद से मैं तुम्हें सच बताऊँ मैं एक दिन भी चैन से सो नहीं पाई हूँ।

मनू मेरे दिमाग़ में, मन में कुछ झनझनाहट तो तभी हुई थी जब साऊथ इंडियन हीरोइन श्री रेड्डी ने अपने यौन शोषण के ख़िलाफ़ सड़क पर टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था। लेकिन देखो तब मैं बेचैन नहीं हुई। यह हमारी ग़ुलाम मानसिकता का कितना बड़ा उदाहरण है कि जब इस पर पश्चिमी टैग हैशटैग मीटू लग गया तब हमारा मन बेचैन हो उठा। यानी मेरा दिमाग़ मीटू की तरफ़ गया तो मैं भनभना कर उठ बैठी। सच में मनू उसके बाद से ही मैं ना ठीक से खा पा रही हूँ, ना सो पा रही हूँ, ना ही ठीक से ड्यूटी दे पा रही हूँ।

पहले जहाँ इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर ही लगी रहती थी। लगता था कि जैसे इसके बिना तो कोई ज़िन्दगी ही नहीं है। लेकिन अब इस आभासी दुनिया में मन नहीं लगता। मेरी नज़रों के सामने अब चालीस साल पहले का एक दृश्य बार-बार उपस्थित हो जाता है। वही फूस का छप्पर। डरे सहमे थर-थर काँपते हम पाँच छोटे-छोटे बहन-भाई।

गाँव के नारकीय दरिंदे प्रधान के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर, पैरों की धूल माथे पर लगा-लगा कर, बच्चों के सामने इज़्ज़त तार-तार ना करने की भीख माँगती गिड़गिड़ाती माँ। और अपनी ज़िद पर अड़ा वह नारकीय कीड़ा प्रधान। हम बच्चे वह हाहाकारी हृदय-विदारक दृश्य देखने को अभिशप्त थे। प्रधान उसके चार और कमीनों ने इतना अत्याचार किया माँ पर कि वह उन हरामियों के जाने के बाद भी बड़ी देर तक बेहोश पड़ी रहीं।

उन कमीनों को शक केवल इतना था कि प्रधानी के चुनाव के समय हमारे माँ-बाप ने उसके विरोधी का समर्थन किया था। उन सबके जाने के बाद हम भाई-बहनों ने छप्पर के पिछवाड़े जाकर अपने पिता को खोला। कमीनों ने उनके मुँह में कपड़ा ठूँसकर, हाथ-पैर बाँध कर उन्हें घर के पीछे डाल दिया था। हमने माँ को ढँका। उनके चेहरे पर पानी की छींटे मार-मार कर उन्हें होश में ले आए। 

सवेरा होने पर पिता माँ को लेकर गाँव से बारह-चौदह कोस दूर पुलिस थाने जाने के लिए निकले कि दरिंदों के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लिखाएँ। लेकिन चार-पाँच क़दम ही बढ़े होंगे कि दो पुलिस वाले साइकिल से आ धमके। गंदी-गंदी गालियाँ देते हुए पिता को मारने लगे।

गाँव के कुछ लोग तमाशाई बनकर तमाशा देखते रहे। हम बच्चे रोते-चीखते चिल्लाते रहे। माँ हाथ-पैर जोड़ती,गिड़गिड़ाती रहीं। लेकिन वर्दी वाले गुंडों ने उनके पेट पर ऐसी लात मारी कि पहले से ही घायल माँ बेहोश होकर गिर गईं । पुलिस वाले ख़ूब मारपीट कर पिता को लेकर चले गए। हम गाँव वालों से मदद की भीख माँगते रहे। लेकिन प्रधान के आतंक के चलते कोई आगे नहीं आया।

माँ की हालत दो दिन के बाद कुछ सँभली। जब उनके होश-ओ-हवास लौटे और पिता के वापस न लौटने की बात हम बच्चों से जानी तो कोई रास्ता ना देख पिता की जान की ख़ातिर फिर उसी प्रधान के दरवाज़े पर गईं। रोईं, हाथ-पैर जोड़े। मगर कसाई कुत्ते ने गंदी-गंदी गालियाँ देकर कहा, "मैंने तेरे आदमी को बंद कर रखा है क्या? चोरी-चकारी करेगा तो पुलिस छोड़ेगी क्या? जा, वहीं जाकर पता कर।"

माँ थाने पहुँची तो पता चला कि पिता को चोरी के आरोप में जेल हो गई है। माँ कई दिन दौड़ती-भागती रही। लेकिन कुछ नहीं हुआ। माँ, पिता से नहीं मिल पाई। कुछ भी साफ़ पता नहीं चला कि वो कहाँ हैं। उल्टे पुलिस वालों की गालियाँ मिलीं।

धमकी मिली कि, "जा, घर जा के चुपचाप बैठ, नहीं तो तुझे भी वहीं पहुँचा देंगे।" कुछ भी पता नहीं चला तो निराश होकर माँ लौट आईं। घायल माँ, हम बच्चे कई दिन तक भूखे-प्यासे तड़पते गाँव वालों से मदद माँगते रहे, लेकिन कोई हमारी तरफ़ देखता भी नहीं था।

हमें देखकर रास्ता बदल देता था। दरवाज़े बंद कर लेता था। हार कर एक दिन माँ मुँह अँधेरे ही हम-सब बच्चों को लेकर चुपचाप गाँव छोड़कर शहर आ गई। हमारे पास तन पर पड़े फटे-पुराने कपड़ों के सिवा सिर्फ़ कुछ बर्तन थे। पिता के एक अँगोछे में थोड़ा सा सत्तू, कुछ चना और बहुत थोड़ा सा गुड़। हम कई दिन भूखे-प्यासे रहे। स्टेशन पर माँग कर खाया। मगर माँ ने हिम्मत नहीं हारी।

जल्दी ही एक घर में साफ़-सफ़ाई का काम मिल गया। मगर वहाँ भी माँ के साथ-साथ मेरी दो बड़ी बहनों का भी शोषण हुआ। माँ वहाँ से भी हमें लेकर भागी। फिर वह कई बार बच्चों को लेकर इधर-उधर भागती रही। एक दिन एक मंदिर के बाहर हम भूखे-प्यासे खड़े थे। लोगों से प्रसाद लेकर खा रहे थे। उसी से हम अपनी भूख शांत कर रहे थे। तभी एक सज्जन दंपति की नज़र हम पर पड़ी। उन्होंने हमसे बातें कीं।

हमारी हालत जानकर अपने यहाँ शरण दी। उनके बड़े से मकान के अहाते में हमें शरण मिली। हम सब यहाँ भी बहुत डरे हुए थे कि कहीं यहाँ भी पहले की तरह शोषण ना हो। डरे-सहमें हम सब वहीं अपनी उम्र के हिसाब से उस व्यवसायी के परिवार के लिए काम करते रहे। हमारी मेहनत से ख़ुश होकर दंपत्ति ने हमारी हर तरह से मदद की, बहनों की शादी करा दी। एक भाई और मैं उस दंपति जिन्हें हम काका-काकी कहते थे, के सहयोग से थोड़ा पढ़े-लिखे। आगे बढ़े। मैं किसी तरह नर्स बन गई।

मनू, नर्स बनने तक मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं किस-किस तरह की स्थितियों से गुज़री। जहाँ मैं नर्सिंग का कोर्स कर रही थी वहाँ मेरे भोलेपन मेरी विपन्न स्थिति का एक इंस्ट्रक्टर और एक सीनियर स्टूडेंट ने ख़ूब बेजा फ़ायदा उठाया। ख़ूब शोषण किया।

पहले दोनों ने मेरी मदद की तो मैं उनकी एहसानमंद हो गई। उसके बाद एक दिन इंस्ट्रक्टर फिर हफ़्ता भर भी ना बीता होगा कि सीनियर ने मेरा शोषण शुरू कर दिया। दोनों महिला होकर भी एक महिला का शोषण करती रहीं। लेकिन मैं, माँ अपने भाई की हालत देखकर, चाह कर भी विरोध नहीं कर पाई, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानती थी कि विरोध का मतलब है मेरी पढ़ाई बंद।

मैं फिर से भूख, भीख माँगने से बचना चाहती थी, किसी भी हालत में, किसी भी क़ीमत पर। इंस्ट्रक्टर से तो ख़ैर कुछ महीने बाद ही फ़ुर्सत मिल गई। क्योंकि उसे कोई और अच्छी जॉब मिल गई तो वह छोड़ कर चली गई। लेकिन सीनियर पास आउट होने तक मेरा शोषण करती रही। वह बाद में भी संपर्क रखना चाहती थी लेकिन मैंने दृढ़ता से संपर्क ख़त्म कर दिया।

मनू यह सब तुम्हें इसलिए बता रही हूँ क्योंकि मैं एक बहुत बड़े, बहुत महान काम में तुम्हारी मदद चाहती हूँ। तुम्हें भी साथी बनाना चाहती हूँ। क्योंकि तुम भी उस पीड़ा से गुज़री हो, जिससे मैं गुज़री हूँ। मैं यह काम क्यों कर रही हूँ, इसमें तुम्हें क्यों साथ देना चाहिए, इन सब बातों को तुम जान-समझ कर बिना किसी असमंजस के निर्णय ले सको, इसलिए तुम्हें विस्तार से बताना ज़रूरी है।

मनू एक बात बताऊँ कि हम महिलाओं पर अत्याचार कोई आज की बात नहीं है। यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। अब तुम सोचोगी कि जब यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। इतने सालों में कोई नहीं बंद करा सका। महिलाओं को उनका अधिकार नहीं मिला तो मैं और तुम क्या कर लेंगे। नहीं मनू, नहीं, ऐसा नहीं है। 

हम औरतों ने जब-जब अपने अधिकारों को समझा, संघर्ष किया तो हमें अपने अधिकार मिले भी। हम पर अत्याचार बंद भी हुए। लेकिन हम जब असावधान हुए तो फिर विपन्न हो गए। इसका उदाहरण तुम "थेरियों" को मान सकती हो। वो जब अपने अधिकारों के लिए सतर्क हुईं तो अपनी दुनिया बदल कर रख दी।

वह भी दो हज़ार साल से भी पहले बुद्ध के समय में। तो मनू जब हज़ारों साल पहले यह हो सकता है तो आज क्यों नहीं? आज तो पहले से बहुत आसान है। तो आओ आज हम सब मिलकर अत्याचारी, मर्दवादी सोच से अपनी दुनिया का उद्धार करें। मुक्त कराएँ अपनी दुनिया।

जानती हो मनू, मैं पुलिस वालों की मार से तड़पते अपने पिता का आख़िरी बार देखा चेहरा आज भी भूली नहीं हूँ। बहुत सालों बाद जब हम कुछ समझदार हुए, सेल्फ़डिपेंड हुए। हाथों में कुछ पैसे आए तो हम भाई-बहनों ने पिता की खोजबीन फिर शुरू की, थाने से ही। लेकिन वहाँ से पता चला कि उस समय गाँव के इस नाम के किसी व्यक्ति को जेल भेजा ही नहीं गया था। मतलब साफ़ था कि प्रधान ने पुलिस के माध्यम से, अपने पैसों के दम पर मेरे पिता की हत्या करवा दी थी। उन्हें ग़ायब करवा दिया था।

मेरी पीड़ा इतनी ही नहीं है मनू। जब किसी तरह पढ़ाई पूरी कर निकली तो एक क़स्बे के छोटे से प्राइवेट हॉस्पिटल में नौकरी मिली। जल्दी ही पता चला कि यहाँ तो लेडीज़ स्टॉफ़ का शोषण एक आम बात है। असल में हॉस्पिटल कुल मिला कर ठीक-ठाक था। मगर उसका संचालक एक झोला छाप डॉक्टर था।

जिसके बारे में बाद में पता चला कि वह देह बेचने का भी धंधा वहीं हॉस्पिटल में ही करवाता है। जिन लोगों को वह बतौर कस्टमर लाता था उनके बारे में बताता कि उसे नर्व मसल्स की कमज़ोरी की बीमारी है। उसे दूर करने के लिए मसाज थेरेपी के लिए कहता। बोलता इसके लिए आयुर्वेदिक इलाज ज़्यादा बेहतर है। फिर टारगेट की गई नर्स से ही मसाज थेरेपी दिलवाता।

कस्टमर और उसकी मिलीभगत की यह साज़िश जब-तक नर्स कुछ समझती थी तब-तक वह उनकी साज़िश का शिकार होकर उनके चंगुल में फँस चुकी होती थी। नर्स की सैलरी में ही वह कस्टमर को ख़ुश करता और उससे मिला सारा पैसा अपने पास रखता। नई नर्सों को डराने, उन्हें अपने चंगुल में फँसाए रखने के उद्देश्य से वह बड़ी गहरी चाल चलता था।

वहाँ के थाने के दरोगा से कहता कि आपको नई नर्स का इनॉग्रेशन करना है। इससे दरोगा भी ख़ुश कि बिना पैसे ख़र्च किए सब मिल रहा है। और वह झोला छाप डॉक्टर नर्स को दरोगा की वर्दी के सहारे डराने में सफल हो जाता।

मेरे साथ भी यही हुआ। मैं जब-तक कुछ समझती तब-तक दरोगा मेरा इनॉग्रेशन कर चुका था। मैं डॉक्टर के पास पहुँची कि मेरा रेप हुआ है, मुझे रिपोर्ट लिखानी है। तो वह ड्रामा करते हुए बोला, "ये तो बड़ी मुश्किल हो गई। जिस थाने में रिपोर्ट लिखानी है ये उसी थाने का दरोगा।

"यह रिपोर्ट तो लिखेगा नहीं, उल्टा किसी फ़र्जी केस में अन्दर कर देगा, साथ में मुझको भी। इसलिए थोड़ा रुको। मैं तुम्हें पुलिस के बड़े अधिकारी के पास लेकर चलूँगा। तुम्हारी शिकायत पर सख़्त कार्रवाई करवाऊँगा।" 

फिर यही कहते-कहते उसने कई दिन निकाल दिए। मैं बहुत परेशान थी कि यह तो ऐसे ही पूरा केस ख़त्म कर देगा। तभी एक दिन वहाँ की एक स्वीपर ने बताया कि सच क्या है। उसे वहाँ के हर इनॉग्रेशन की जानकारी रहती थी। मेरी सारी बातें भी उसे पता थीं। उसने कहा कि, "जो भी थाने पर गया उसे यह उल्टा फँसवा देता है।" मेरे सामने अचानक ही पिता का तड़पता चेहरा आ गया।

फिर उसी महिला स्वीपर की सलाह पर मैं वहाँ से चुपचाप भाग निकली। उसी ने एक मिशनरी हॉस्पिटल का पता दिया था, जो वहाँ से क़रीब दो सौ किलोमीटर दूर था, वहाँ गई। उस महिला का आदमी वहाँ काम करता था। उसे बताया तो उसने मदद की। वहाँ दैनिक वेतन पर नौकरी मिल गई। 

काम बहुत था, लेकिन मैं ख़ुश थी। मगर कुछ महीनों बाद ही मैंने वहाँ के रंग-ढंग में भी वही भाँग घुली पाई जो पहली जगह पाई थी। कुछ महीना बीतते-बीतते मुझे तस्वीर साफ़ दिखने लगी। ज़्यादातर खेल वहाँ नाइट ड्यूटी पर खेला जाता था।

मेरी नौकरी जिस सीनियर डॉक्टर के हाथों में थी, उसकी दो चीज़ें बड़ी फ़ेमस थीं। पहली यह कि वह बहुत जेंटलमैन और हेल्पफ़ुल नेचर के हैं। दूसरी पेशेंट को वो बड़े प्यार से देखते हैं। आधी बीमारी तो वह अपनी बातों से ही ख़त्म कर देते हैं। 

ज्वाईनिंग के छः महीने बाद मेरी लगातार तीन महीने तक नाइट ड्यूटी लगाई गई। बताया गया कि दो नर्स मेटरनिटी लीव पर चली गई हैं और चार ने अचानक ही नौकरी छोड़ दी है। 

मनू इस मिशनरी हॉस्पिटल में सब कुछ इतनी शांति, इतनी चालाकी से होता था कि, ऊपर से पूरा एटमॉसफ़ियर बहुत ही अच्छा दिखता था। कोई किसी की तरफ़ उँगली नहीं उठाता था। ऐसे धूर्ततापूर्ण माहौल में मेरी नाइट ड्यूटी को शुरू हुए हफ़्ता भी नहीं हुआ था कि, एक दिन उसी जेंटलमैन डॉक्टर और दो नर्सों को बाईचांस मैंने स्टॉफ़ रूम में रँगे हाथों देख लिया। मैं सॉरी बोलते हुए उल्टे पाँव वापस चली आई। जेंटलमैन डॉक्टर रँगा सियार निकला था।

मैं डर गई कि अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मैं वहाँ सीनियर नर्स को बुलाने गई थी। एक पेशेंट की तबीयत बिगड़ रही थी। उसका ध्यान आते ही मैं फिर पलटी कि बुला कर ले आऊँ जो होगा देखा जाएगा। किसी की ज़िंदगी बचाने से बढ़कर मेरे लिए और कुछ नहीं है।

वापस मैं आधे रास्ते पर पहुँची ही थी कि उन्हीं दो में से एक सीनियर नर्स आती हुई दिखी। मैंने उनके पास पहुँच कर पेशेंट की हालत बताई। क्या-क्या देखा इस बारे में कोई बात ही नहीं की।

उन्होंने जल्दी से आकर पेशेंट को देखा। वार्ड ब्वाय को भेज कर डॉक्टर को बुलवाया। जानती हो मनू तब मैं रँगे सियार को देखकर दंग रह गई। और रँगी-पुती उन दोनों सियारिनों को भी। जो कुछ ही मिनट पहले तक किसी मानसिक रोगी की तरह घृणित स्थितियों में पड़े थे। तीनों सेवा की प्रतिमूर्ति लग रहे थे। पेशेंट को देखा, फ़ॉर्मेलिटी पूरी की और चले गए यह जाने बग़ैर कि पेशेंट की तकलीफ़ दूर हुई कि नहीं।

सीनियर नर्स ने सुबह जाते-जाते मुझे शिक्षा दी, "मेरी प्यारी मित्र, जीवन का आनंद उठाओ। जीसस बहुत दयालु हैं।" उसकी बातों का मतलब मैं साफ़-साफ़ समझ गई थी। मैं भी ऐसे चुप हो गई जैसे कि मुझे कुछ मालूम ही नहीं है। मनू जल्दी ही मुझे पता चला कि वह डॉक्टर सीनियर होने के बावजूद जब भी उसका मन उनके तथाकथित सिद्धांत जीवन का आनंद उठाने का होता है तो वह अपनी ड्यूटी नाइट में भी लगा लेता है।

मैं जहाँ उस रँगे सियार, सियारिनों को देखती या उनकी याद आती तो बहुत परेशान हो जाती थी कि, कहीं यह सब साज़िश का शिकार बना कर मुझे भी आनंद ना देने लगें। जैसे पिछले हॉस्पिटल में साज़िश रच कर झोला छाप डॉक्टर ने दरोगा से मेरा इनॉग्रेशन करा दिया था। यह सोच कर मैं वहाँ से भी निकलने की सोचने लगी। लेकिन तब मुझे हर तरफ़ सियार-सियारिन ही दिखाई दिए।

मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था कि मैं कहाँ जाऊँ। आख़िर जिसका मुझे डर था वही हुआ। कुछ ही समय बीता होगा कि, मैं इन सब के जीवन आनंद के जाल में फंस गई। वह छब्बीस या सत्ताइस दिसंबर की रात थी। कड़ाके की ठंड थी, हर तरफ़ हड्डी कंपा देने वाली ठंडी हवा थी। कोहरा भी भयानक धुँए की तरह उड़ रहा था। मैं नाइट ड्यूटी पर थी। 

उस दिन उनके फेंके जाल में फँस गई। मेरा शोषण हो रहा था। वह सब रँगे सियार-सियारिन जीवन का आनंद उठा रहे थे, मैं स्तब्ध थी। उस दिन मैं बहुत रोई कि मेरे जीवन में क्या केवल शोषण ही लिखा है। मेरे ही क्यों, मेरे परिवार के भी। पहले माँ का, बड़ी बहनों का, फिर मेरा।

मैं बार-बार वह ताक़त, वह साधन ढूँढ़ती मनू, जिससे इस शोषण का प्रतिकार कर सकूँ। रोक सकूँ। मगर हर तरफ़ घुप्प अँधेरा मिलता। कोई एक सेकेंड को भी साथ देने वाला नहीं मिलता। आख़िर मैंने तब-तक के लिए ख़ुद को परिस्थितियों के हवाले कर दिया जब-तक कि मेरी और मेरे घर की हालत सुदृढ़ नहीं हो जाती। 

मैं सरकारी नौकरी की तलाश में लगी रही और उनके जीवन आनंद के खेल का साधन भी बनी रही। मनू यह मेरी मजबूरी की अति थी कि, सिर्फ़ वह सियार, सियारिन ही नहीं, उसी की तरह का एक और कमीना तथा तीन कमीनियाँ भी मेरा शोषण करते रहे। इन सबने मिलकर इतने घने और मज़बूत जाल में फँसाया था कि, मैं उफ़ भी नहीं कर पा रही थी।

जो ऐसी स्थितियों से नहीं गुज़री हैं, मनू यह सुनकर उनका कलेजा काँप उठेगा कि महीने में दो-तीन दिन ऐसे भी बीतते थे जब मेरा चौबीस घंटे में ही तीन-तीन बार शोषण होता था। लेकिन अंततः मेरी मेहनत, मेरा धैर्य काम आया।

सरकारी हॉस्पिटल में नौकरी मिल गई। लेकिन मनू उससे पहले मिशनरी हॉस्पिटल में तीन साल तक जो यातनाएँ, जो अपमान बर्दाश्त किया वह आज भी एक़दम ताज़ा हैं। ऐसे कि जैसे सब अभी-अभी घट रहा है। अपमान की आग मुझे आज भी उतना ही जला रही है, जितना तब जलाती थी। मनू मेरा दुर्भाग्य मेरे साथ यहीं तक नहीं रहा।
जब सरकारी हॉस्पिटल ज्वाइन किया तो बहुत ख़ुश थी। सोचा कष्ट, पीड़ा, अपमान से भरा मेरा काला समय ख़त्म हुआ। घनी काली रात के बाद मेरे जीवन में चमकीली सुबह हो गई है। मगर जानती हो यह चमकीली सुबह मात्र दो साल ही रही। हॉस्पिटल का नया निदेशक आया और उसके चंगुल में कई फँस गईं। पता नहीं मुझे क्या हुआ था कि मैं भी भूल कर बैठी।

कितने-कितने तरह के शोषण के बदतरीन अनुभवों से गुज़र चुकी थी फिर भी मुझसे यह मूर्खता हुई। एक जूनियर डॉक्टर के साथ मेरे संबंध बन गए और वह शादी की सीमा तक पहुँचे। उसने मुझे बड़े-बड़े सपने दिखाए। जब मैंने सपने सच करने पर ज़ोर दिया तो वह मुकर गया। सब उसका धोखा था।

उसके बिछाए जाल में मैं फँस गई थी। बात हर तरफ़ फैल गई। उस जूनियर ने निदेशक के साथ मिलकर ऐसी स्थिति पैदा की, कि मैं उसकी भी हवस का शिकार बनती रही। यह सिलसिला दो साल तक चला। जब वह निदेशक सीएमओ हो कर दूसरे शहर चला गया तब मुझे मुक्ति मिली। वैसे ही जैसे पढ़ाई के दौरान इंस्ट्रक्टर से मिली थी। इतिहास ने अपने को दोहराया था।

जूनियर डॉक्टर एक दबंग बिल्डर का बेटा था। इन बातों का पूरा ख़ुलासा तब हुआ जब मैं उसके चंगुल में बुरी तरह फँस चुकी थी। विरोध करती तो नौकरी के साथ-साथ जान का ख़तरा भी था। अंततः जूनियर ने बहुत दिनों तक मेरा शोषण किया।

तुमसे अचानक ही जब महिला हॉस्पिटल में परिचय हुआ तो बड़ा अच्छा लगा। तुम्हारे तेज़-तर्रार व्यवहार से लगा कि, तुम्हारा शोषण तो कोई कर ही नहीं सकता। मगर कुछ ही महीनों के बाद जब तुम्हारे साथ हुई एक घटना को लेकर विवाद इतना हुआ कि हॉस्पिटल के निचले स्टाफ़ ने हड़ताल कर दी, भले ही दबाव में दो घंटे में ही ख़त्म हो गई। तब मुझे कुछ जानकारी हुई। मैं तुम्हारे पास पहुँची। तुम मेरा ज़रा सा अपनत्व पाकर बिलख पड़ी। और अपने शोषण की पूरी बात बताई। मनू तुम्हारी बातें सुनकर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी।

मैं घबरा गई कि तुम्हारी जैसी तेज़-तर्रार महिला के साथ यह हुआ तो मेरी जैसी कहाँ बचेंगी। तब मैं यह यक़ीन कर बैठी थी कि कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में जो भी महिलाएँ हैं, उन सब का शोषण होता है। निश्चित ही होता है। एक भी नहीं बचतीं। और पनिश भी वही की जाती हैं, जैसे तुम्हारा ही शोषण हुआ और बतौर पनिशमेंट तुम्हारा ही ट्रांसफ़र भी कर दिया गया दूर डिस्ट्रिक्ट में।

जिससे हम अलग हो गए। संपर्क भी बहुत क्षीण हो गया। लेकिन इस मी-टू हलचल ने मेरे अंदर एक ऐसी ज्वाला प्रज्वलित कर दी है कि, अब मैं चुप नहीं बैठ सकती। मैं चाहती हूँ कि यह ज्वाला देश के कोने-कोने में, झोपड़ियों में, छप्पर, फ़ुटपाथों में रहने वाली आख़िरी औरत तक पहुँचे।

सब एक साथ दुनिया के सामने आएँ और अपने साथ हुए शोषण को बताएँ। जिसने उनके शरीर, इज़्ज़त मान-सम्मान को, उनकी आत्मा को कुचला है, उनका नाम उजागर करें। एक अकेली करेगी तो कठिनाई में रहेगी। कोई उसकी बात नहीं सुनेगा।

हम जैसी, तुम जैसी, छप्पर में जीने वाली मेरी माँ और फुटपाथों पर जीने वाली महिलाओं के पास वो ताक़त नहीं है जो तनुश्री दत्ता, प्रिया, श्री रेड्डी, जैसी सक्षम महिलाओं के साथ है। इन सब ने भी मुँह तब खोला जब यह सक्षम बन गईं। इसी से जब यह बोलीं तो पूरा मीडिया इनके साथ खड़ा हो गया, इनकी ज़बरदस्त ताक़त बन गया।

और तुम इस ताक़त का परिणाम देख ही रही हो कि बड़े.बड़े दिग्गजों को अपने काम से हाथ धोना पड़ रहा है। पद से हाथ धोना पड़ रहा है। अपने परिवार, अपने बच्चों के सामने शर्मिंदा होना पड़ रहा है। मुँह छुपाते नहीं बन रहा है। ऐसे ही जब हम कोने, अँधेरे में पड़ी औरतें, छप्परों से निकल कर, फ़ुटपाथों से निकल कर, एक समूह बनाकर जब शोषकों, रँगे सियारों का असली चेहरा दिखाएँगे दुनिया को, तो हमारे साथ ज़बरदस्त ताक़त मीडिया की, सोशल मीडिया की जुड़ जाएगी। एक समूह से यह मत समझ लेना कि हम-सब एक जगह इकट्ठा होंगे फिर आगे बढ़ेंगे।

मैं यह जानती समझती हूँ कि हम तुम छप्पर में रहने वाली औरतों के लिए यह संभव नहीं है। हम सदियों से इतने शोषित हुए हैं कि मुँह खोलने की बात छोड़ो ऐसी बातें सोचने की भी क्षमता नहीं रह गई है। 

यह घटना ना होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया ज़रा सी बात को भी देश ही नहीं दुनिया में हर तरफ़ पहुँचा देने की क्षमता ना रखतीं तो हम आज भी यह सोच-समझ नहीं सकते थे। मनू मैंने बहुत सोच-समझ कर एक अचूक प्लान बनाया है, और उसके हिसाब से ही आगे बढ़ रही हूँ।

प्लान यह है मनू कि, सभी शोषित लड़कियाँ, औरतें अपने शोषण की पूरी बात, करने वाले का पूरा विवरण, समय आदि बताते हुए अपने मोबाइल से ही वीडियो मैसेज रिकॉर्ड करके मेरे पास भेज दें।

इसमें छोटी सी छोटी झोपड़पट्टी में भी रहने वाली महिलाओं को भी शामिल करना है। इसके लिए हमें करना यह होगा कि, ख़ुद ऐसी महिलाओं के पास जाकर, उन्हें सारी बातें अच्छे से समझा कर उनके शोषण की बात का वीडियो बनाकर लाना होगा।

जानती हो इसके लिए मैं अपनी तीनों बेटियों और दामादों का भी सहयोग ले रही हूँ। तुम्हें यह बताते हुए मुझे ख़ुशी हो रही है कि, मेरी तीनों बेटियाँ भी नौकरी करती हैं। तीनों ही मेरी तरह नर्स हैं। तमाम समस्याओं के चलते मैं बच्चों को कोई ऊँची शिक्षा तो नहीं दिला पाई लेकिन इतना ज़रूर कर दिया है कि, वह किसी पर डिपेंड नहीं हैं। पैसों के लिए किसी की मोहताज़ नहीं हैं।

मैं इस मामले में भी अपने को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि, तीनों दामाद भी बहुत ही ओपन माइंडेड और मॉडर्न विचारों वाले हैं। नौकरी करते हैं। मुझे तीनों बेटियों के लिए लड़का ढूँढ़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी। उन सब ने नौकरी करते-करते ख़ुद ही अपने मन का वर तलाश लिया और फिर हमने कोर्ट मैरिज करवा कर एक हल्का-फुल्का रिसेप्शन दे दिया था। सभी अपनी दुनिया में ख़ुश रहते हैं।

तुम यह जानकर शायद आश्चर्य करो कि, मैंने मन में "वी-टू" मनू हम अपने मूवमेंट का नाम वी-टू ही रखेंगे। क्योंकि मेरा लक्ष्य सबको साथ लेकर चलना है। तुम कुछ और नाम सुझा सकती हो तो बताना। जानती हो "वी-टू" विचार आते ही मैंने बहुत सोच-विचार कर सबसे पहले अपने पति से ही बात की। 

कहा कि मैं ऐसा करना चाहती हूँ। आपकी मदद चाहिए और यह मदद सिर्फ़ इतनी ही कि, आप मुझे इसे करने से रोकेंगे नहीं। एक बात बताऊँ मेरे साथ जो-जो शोषण हुआ वह सब बच्चों के कुछ बड़ा हो जाने के बाद मैंने एक-एक कर सब कुछ बता दिया था।

इससे मैंने कुछ दिन स्वयं को अजीब सी बदली हुई मनःस्थिति में पाया। परिवार में कुछ दिन तक मैं सभी के चेहरे पर जब वो मेरे सामने होते तो अजीब सी रेखाएँ, भाव पाती। तब मैंने सोचा कि यह सब बता कर मैंने ग़लती तो नहीं कर दी। फिर सोचा कि बोझ लेकर चलने से क्या फ़ायदा, क्या मतलब इसका।

मेरे पति हैं, अगर मेरे हर सुख-दुख में मेरे साथ नहीं चल सकते तो ठीक है। अलग-अलग रास्ते पर चल पड़ते हैं। मैंने इस बिंदु पर भी बात की तो पाया कि नहीं मैं ग़लत सोच रही थी। मेरा पति और बहुत से कूप-मंडूक सोच वाले पतियों जैसा नहीं है। जिनके लिए स्त्री की तथा-कथित पवित्रता ही सब-कुछ होती है। सारी अपेक्षाएँ सिर्फ़ पत्नी से ही रखते हैं।

ऐसे खुले विचारों वाले अपने प्यारे पति से जब मैंने, "वी-टू" की बात की तो वह बोले, "बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?" तो मैंने, "कहा वह सब भी बेहद ओपन माइंडेड हैं। मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि वह अपनी माँ के इस क़दम का साथ देंगे। उन्हें गर्व होगा कि उनकी माँ ने ऐसा क़दम उठाया है, जिसमें पूरी नारी दुनिया की सुरक्षा निहित है। उनका मान-सम्मान निहित है।" 

इसके साथ ही मैंने यह भी बताया कि जब बेटियाँ नर्सिंग का कोर्स कर रही थीं, तभी से मैं उन्हें उन सारी बातों से अवगत कराती आ रही हूँ, जिससे उनका सामना हो सकता है। जब उन्होंने नौकरी ज्वाइन की तभी मैंने उन्हें बताया था कि, उन्हें वहाँ पर किस-किस तरह की समस्याएँ फेस करनी पड़ेंगी। उन्हें कैसे उनका सामना करना है।

इतना सब-कुछ करने के बावजूद मनू जानती हो मेरी दूसरी वाली बेटी शोषण का शिकार होते-होते बची थी। वह ठीक वैसी ही स्थिति में फँसने वाली थी, जिसमें मैं सरकारी हॉस्पिटल में फँस चुकी थी। उसने मुझे कुछ नहीं बताया था। कुछ दिन उसकी उखड़ी-उखड़ी मनोदशा को देखकर मैं अंदर ही अंदर परेशान हुई कि, बात क्या है? अचानक दिमाग़ में आया कि कहीं यह मेरी जैसी हालत से तो नहीं गुज़र रही है। बहुत प्यार से खुलकर बात की तो उसने अपनी समस्या बताई। जिसका मुझे डर था वही होने जा रहा था। अंततः मैंने उसे बचा लिया।

"वी-टू" के लिए जब पति के साथ बात की तो मैंने बेटी की भी बात बताई। उसके पहले यह बात केवल हमारे और बेटी के बीच ही सीमित थी। यह सुनकर पहले पति आग-बबूला हुए। कहा कि, "उसी समय क्यों नहीं बताया?" मैंने कहा, "अब जो भी है, वह समय तो बीत गया। "वी-टू" को यदि आगे बढ़ाएँ तो उस आदमी को भी सज़ा दे सकते हैं। और जिन्होंने मेरे साथ ग़लत किया उनको भी।'

जानती हो जिस डॉक्टर ने मेरा शोषण किया था, वह बाद में सीएमओ होकर रिटायर हुआ। आजकल वह एक बहुत ही बड़े प्राइवेट संस्थान के एक बहुत बड़े फ़ाइव स्टार हॉस्पिटल का निदेशक बना बैठा है। आज सड़सठ-अड़सठ की उम्र में भी वह बना ठना रहता है। सुना है वहाँ भी औरतों का शोषण करने से बाज़ नहीं आ रहा है।

अपनी लाइजनिंग पॉवर के बल पर वह वहाँ के मैनेजमेंट को मेस्मराइज़ किए हुए है। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि हॉस्पिटल की तरफ़ से उसे मर्सीडीज़ बेंज जैसी महँगी कार और शैडो भी मिला हुआ है। और दूसरे का भी बताती हूँ, जिसने मुझे शादी का झाँसा देकर लूटा था, जिसका बाप बिल्डर है। उसने दो नंबर की अकूत कमाई से बहुत बड़ा हॉस्पिटल बना लिया है।

यह सब जब देखती हूँ तो पुरानी तस्वीरें मेरे सामने आ जाती हैं। ख़ून खौल उठता है कि, ना जाने कितनी औरतों, लड़कियों की इज़्ज़त लूटने वाले आज यहाँ तक पहुँच गए हैं। अकूत धन-सम्पत्ति ही नहीं समाज में बड़े मान-सम्मान के साथ रह रहे हैं। क्या इनके कुकर्मों की कोई सज़ा नहीं है। मनू जानती हो तभी पति ने सलाह दी थी कि, "एफ़आईआर कर दो। कोर्ट से सज़ा दिलाओ।"

मैंने कहा कोई फ़ायदा नहीं। पहले तो न जाने कितने सालों तक कोर्ट के चक्कर काटने पड़ेंगे। पेशी पर पेशी होगी। धक्के खाते भटकना पड़ेगा। इसके बाद भी इन गंदे इंसानों को सज़ा मिलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। कोर्ट में अपने आरोप को मैं कैसे साबित करूँगी। यह हो ही नहीं पाएगा।

दूसरे इससे तो उसके असली चेहरे को उसके घर वाले ही जान पाएँगे। यही बड़ी बात होगी। जबकि "वी-टू" के जरिए उसको हम पूरी दुनिया में एक्सपोज़ कर देंगे। वह अपने बीवी-बच्चों, नाती-पोतों सबके सामने ज़लील होगा। दूसरे वाले के साथ भी यही होगा। मनू पति को कंन्विंस करने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।

उन्होंने "वी-टू" को आगे बढ़ाने के लिए ना केवल ख़ुशी-ख़ुशी हाँ कहा, बल्कि यह भी जोड़ा कि, "तुम्हारी इस बहादुरी से मैं बहुत ख़ुश हूँ। मुझे गर्व है।" उन्होंने हर तरह से सपोर्ट करने का वादा किया है। फिर हम-दोनों ने अपनी तीनों लड़कियों, दामादों को भी बुला कर बात की। वह सब भी ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गए।

हम सब ने मिलकर ही यह योजना बनाई कि, सभी की बातें वीडियो में रिकॉर्ड की जाएँ, फिर वह "वी-टू" नाम से फ़ेसबुक और वेबसाइट बना कर डाला जाए। ट्विटर और व्हाट्सएप पर भी। इन्हें एक ही दिन वायरल किया जाए। 

हम-सब ने मिलकर अब-तक क़रीब दो दर्जन महिलाओं के बयान लिए हैं। और इनमें मेरे घर की बाई और तीन अन्य लोगों के बयान भी हैं। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा, सुनकर अचंभे में पड़ जाओगी कि घरों में काम करने वाली बाइयों का कितना शोषण होता है।

हमने कई झोपड़-पट्टियों, ऑफ़िसों में काम करने वाली महिलाओं से भी जी-तोड़ प्रयास करके इतना कर लिया है कि, उम्मीद करती हूँ कि अगले एक महीने में सौ की संख्या पार कर लूँगी। महिलाओं को ऐसे काम के लिए तैयार करना कितना मुश्किल होता होगा, इसका अनुमान तो तुम लगा ही सकती हो।

लेकिन "वी-टू" का असर, और साथ ही जब मैं अपना, बेटी का और अन्य कई औरतों का वीडियो दिखाती हूँ, तब वह बात करने को तैयार हो जाती हैं। फिर कई-कई बार समझाने के बाद अपनी आप-बीती रिकॉर्ड करवाती हैं। आख़िर तक साथ देने का वादा करती हैं। रिकॉर्डिंग के लिए हमने एक बढ़िया कैमरा भी ख़रीदा है।

मनू मैं अपने, हम-सबके इस अभियान से देश के कोने-कोने तक की महिलाओं को हर हाल में जोड़ना चाहती हूँ। इसलिए तुमसे रिक्वेस्ट है कि इससे जुड़ो। अपनी "आधी दुनिया" की मदद करो। सदियों से इसके साथ हो रहे शोषण को ख़त्म करने के अभियान का एक हिस्सा बनो। 

जैसे मैं, मेरा परिवार मिलकर पीड़ित महिलाओं के बयान ले रहे हैं। वैसे ही तुम भी करो। पहले अपना करो। फिर वही दिखा कर तुम अन्य को आसानी से कन्विंस कर लोगी। प्लीज़ मनू अपनी सारी गंभीरता, अपनी सारी हिम्मत, साहस बटोर कर "आधी दुनिया" की निर्णायक लड़ाई की जीत सुनिश्चित करने में मदद करो, इसका महत्वपूर्ण हिस्सा बनो।

क्योंकि "हैशटैग मी-टू" रिच वूमेन वर्ल्ड की लड़ाई तक सिमटेगा। यह स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि, "आधी दुनिया" की पूरी लड़ाई तो सड़क, फुटपाथों पर जीवन बिताने वाली महिलाओं तक को शोषण से मुक्ति के बाद ही सही मायने में जीती हुई कही जाएगी।

ऐसा मौक़ा बार-बार नहीं आएगा। तुम्हें एक और दिलचस्प बात बताऊँ, मेरे हस्बैंड ने कहा कि, "इसमें शोषित पुरुषों को भी शामिल करो, उनको भी लो। कई पुरुष भी ऐसे हैं, जो वर्क-प्लेस पर कॅरियर बनाने के चक्कर में महिलाओं द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो रहे हैं।"

लेकिन मनू मैं इस लड़ाई में पुरुषों को क़तई शामिल नहीं करूँगी। क्योंकि तब यह लड़ाई भटक कर, अर्थहीन हो ख़त्म हो जाएगी। मनू हमें यह हर हाल में जीतनी है। सोचो मत बस क़दम आगे बढ़ाओ। मुझे कल तक अपना वीडियो मेल कर दो।

मेरी प्यारी मनू, मेरा नहीं अपनी "आधी दुनिया" का साथ दो। जानती हो मनू हम उस देश की महिलाएँ हैं, जो अपने शोषण के ख़िलाफ़ हज़ारों साल से उठ खड़ी होती आ रही हैं।

पश्चिम का यह "हैश टैग-मीटू" अभियान वास्तव में भारत के थेरिगाथा मूवमेंट का पश्चिमी संस्करण है। जब बुद्ध थे तभी बहुत सी महिलाएँ जिसमें सेक्स वर्कर तक थीं, वो बौद्ध भिक्षुणी बन गईं। इनमें से तमाम महिलाओं का शोषण हुआ था। इन लोगों अपने शोषण की गाथा लिखी। जिनसे उनके शोषकों का चेहरा समाज में एक्सपोज़ हो गया। लोग शोषण करने से पहले सोचने को विवश हो गए। 

मनू हमारा अभियान अपनी इन्हीं पूर्वजों की अगली कड़ी है। जिसके रास्ते पर चलकर हम कुछ नहीं सभी महिलाओं को यानी "आधी दुनिया" को सुरक्षित कर सकेंगे। इसीलिए मनू, "हैश टैग-मीटू" नहीं, "वी-टू"। आओ हम सब आगे बढ़ें। आज की "थेरिगाथा" लिखें।

2 टिप्पणियाँ

  • 29 Aug, 2021 09:14 AM

    Dil ki chu lene wali kahani hai. Aurto k virodh m kai tarah k sosad ho ho rahe h. Na sirf saririk apitu mansik sodad, bhi samaj m ghar, office m bahut ho raha hai. Y kaese band hoga, ispe p ap prbudh jano ko hi aage aana hoga.. Pradeep sir app ko dher saari subh kamnay..

  • समाज मैं अपने पद और प्रतिष्ठा की आड़ में कमजोर वर्ग अथवा स्वयं पर आश्रित भरोसा करने वाले वर्ग का विशेषकर महिलाओं के शोषण को उजागर करता यह आलेख यह कहानी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त भावपूर्ण मार्मिक है जिसमें अपने विगत अनुभवों से शोषित महिला प्रतिरोध ना करते हुए सीखना लेते हुए परिस्थितियों के बदलने के इंतजार में लगी रहती है जबकि वह अपनी स्थिति को स्वयं भी सुधार सकती है प्रतिरोध के माध्यम से जिसके लिए आवश्यक है साहस जागरूकता ना केवल साक्षर बल्कि शिक्षित होना उक्त विषय विमर्श पाठकों को सरल भाषा शैली के साथ विचारों को उद्वेलित करने में अत्यंत सफल लेखक को .....धन्यवाद

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