आओ चलें बचपन के गाँव में . . .

01-06-2021

आओ चलें बचपन के गाँव में . . .

भारती परिमल (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आओ चलें बचपन के गाँव में, यादों की छाँव में.. कलकल करती लहरों से खेलें, कच्ची अमियाँ और बेर से रिश्ता जोड़ें। रेत के घरौंदे बनाकर उसे अपनी कल्पनाओं से सजाएँ। फिर चुपके से निकल जाएँ कड़ी धूप में घर से बाहर और साथियों के  संग लुकाछिपी का खेल खेलें। सावन की पहली फुहार में भीगते हुए माटी की सौंधी महक साँसों में भर लें। ठंड की ठिठुरन, गरमी की चुभन और भादों का भीगापन सब कुछ फिर ले आएँ चुराकर और जी लें हर उस बीते पल को, जो केवल हमारी यादों में समाया हुआ है। 

वो सुबह-सुबह मंदिर की घंटियों और अज़ान की आवाज़ के साथ खुलती नींद और दूसरे ही क्षण ठंडी बयार के संग आता आलस का झोंका, जो गठरी बन बिस्तर में दुबकने को विवश कर देता, वो झोंका अब भी याद आता है। माँ की आवाज़ के साथ, खिड़की के परदों के सरकने से झाँकती सूरज की पहली रश्मियों के साथ, दरवाज़े के नीचे से आते अख़बार की सरसराहट के साथ, चिड़ियों की चीं-चीं के साथ, दादी के सुरीले भजन के साथ, दादा के हुक्के की गुड़गुड़ के साथ, सजग हुए कानों को दोनों हाथों से दबाए फिर से आँखे नींद से रिश्ता जोड़ लेती थीं। आँखों और नींद का यह रिश्ता आज भी भोर की बेला में गहरा हो जाता है। इसी गहराई में डूबने आओ एक बार फिर चलें बचपन के गाँव में।

बरगद की जटाओं को पकड़े हवाओं से बातें करना, कच्चे अमरूद के लिए पक्की दोस्ती को कट्टी में बदलना, टूटी हुई चूड़ियों को सहेज कर रखना, बाग़ों में तितलियाँ और पतंगे पकड़ना, गुड्डे-गुड़िया के ब्याह करवाना, पल में रूठ कर क्षण में मान जाना, बारिश की बूँदों को पलकों पे सजाना, पेड़ों से झाँकती धूप को हथेलियों में भरने की ख़्वाहिश करना, बादल के संग उड़कर परियों के देश जाने का मन करना, तारों में बैठ कर चाँद को छूने की चाहत रखना, बचपन कल्पना के इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से सजा होता है। सारी चिंताओं और प‎रेशानियों से दूर ये केवल हँसना जानता है, खिलखिलाना जानता है, अठखेलियाँ करना और झूमना जानता है। तभी तो जीवन की आपाधापी में हारा और थका मन जब-जब उदास होता है, यही कहता है– कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। बीते हुए दिन की कल्पना मात्र से ही आँखों के आगे बचपन के दृश्य सजीव होने लगते हैं। बचपन एक मीठी याद-सा हमारे आसपास मँडराने लगता है। एकांत में हमारी आँखों की कोर में आँसू बनकर समा जाता है, तो कभी मुस्कान बन कर होठों पर छा जाता है। कभी ये बचपन चंचलता का लिबास पहने हमें वर्तमान में भी बालक-सा चंचल बना देता है, तो कभी सागर की गहराइयों-सा गंभीर ये जीवन क्षण भर के लिए इसकी एक बूँद में ही समा जाने को व्याकुल हो जाता है।

एक बार किसी विद्वान से किसी महापुरुष ने पूछा कि यदि तुम्हें ईश्वर वरदान माँगने के लिए कहे, तो तुम क्या माँगोगे? विद्वान ने तपाक से कहा– अपना बचपन। निश्चित ही ईश्वर सब-कुछ दे सकता है, लेकिन किसी का बचपन नहीं लौटा सकता। सच है, बचपन ऐसी सम्पत्ति है, जो एक बार ही मिलती है, लेकिन इंसान उसे जीवन भर ख़र्च करता रहता है। बड़ी से बड़ी बातें करते हुए अचानक वह अपने बचपन में लौट जाएगा और यही कहेगा कि हम बचपन में ऐसा करते थे। यहाँ हम का आशय उसके अहम् से क़तई नहीं है, हम का आशय वे और उसके सारे दोस्त, जो हर क़ौम, हर वर्ग के थे। कोई भेदभाव नहीं था, उनके बीच। सब एक साथ एक होकर रहते और मस्ती करते। हम सभी का बचपन बिंदास होता है। बचपन की यादें इंसान का पीछा कभी नहीं छोड़ती। वह कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाए, बचपन सदैव उसके आगे-आगे चलता रहता है। बचपन की शिक्षा भी पूरे जीवन भर साथ रहती है। बचपन का प्यार हो या फिर नफ़रत, इंसान कभी नहीं भूलता। बचपन की गलियाँ तो उसे हमेशा याद रहती हैं, जब भी वक़्त मिलता है, इंसान उन गलियों में विचरने से अपने को नहीं रोक सकता। बचपन में किसी के द्वारा किया गया अहसान एक न भूलने वाला अध्याय होता है। वक़्त आने पर वह उसे चुकाने के लिए तत्पर रहता है। कई शहरों के भूगोल को अच्छी तरह से समझने वाला व्यक्ति उन शहरों में भी अपने बचपन की गलियों को अपने से अलग नहीं कर पाता।

बचपन, अमीरी और ग़रीबी की सीमाओं से परे मासूमियत से भरा होता है। बचपन के सुनहरे संसार में पैसों का मोल नहीं होता। रेशम का कोमल स्पर्श और टाट के पैबंद का खुरदुरापन दोनों को ही बचपन एक जैसा महसूस करता है। याद करें बचपन में कम से कम रुपयों में पिकनिक का मज़ा और वर्तमान में अधिक से अधिक ख़र्च करने के बाद भी कुछ न कर पाने का मलाल। हर किसी के बचपन में माँ, पिता, भाई, बहन, दोस्त एक खलनायक की तरह होता है, उस समय उनकी सारी हिदायतें दादागीरी की तरह लगती है। उसे अनसुना करना हम अपना कर्तव्य समझते। पर उम्र के साथ-साथ वे सारी हिदायतें गीता के किसी श्लोक से कम नहीं होती, जिसका पालन करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। आख़िर ऐसा क्या है बचपन में, जो हमें बार-बार अपने पास बुलाता है? बचपन जीवन के वे निष्पाप क्षण होते हैं, जिसमें हमारे संस्कार पलते-बढ़ते हैं। बचपन कच्ची मिट्टी का वह पात्र होता है, जो धीरे-धीरे अपना आकार ग्रहण करता होता है। बचपन उस इबारत का नाम है, जो उस समय धुँधली होती है, पर समय के साथ-साथ वह स्पष्ट होती जाती है।

बचपन की यादों में, बचपन के वादों में, बचपन की लहरों में डूबना-उतराना हमारी ख़ुशक़िस्मती है। इसलिए जब भी अवसर मिले बचपन की यादों को वर्तमान की अँजुरी में भर लें और भिगो लें अपनी पलकों को, क्योंकि ये भीगी पलकें एक मज़बूत सहारा हैं, इस दौड़ती-भागती ज़िंदगी में ख़ुद को पहचानने का ख़ुद से रिश्ता जोड़ने का। कभी साँझ की सुहानी बेला में एकांत के क्षणों में अपने आप से रिश्ता जोड़िए और देखिए कुछ देर बाद ही दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आ जाएँगी और हमारे आसपास यादों का मेला लग जाएगा। इन यादों में बचपन की यादों के झूले होंगे, रिमझिम फुहारों में भीगा मन होगा, काग़ज़ की नावें होंगी, तितलियाँ होंगी, माँ की लोरियाँ और पिता का दुलार होगा, मित्रों का स्नेहबंधन होगा और होगा ढेर सारा यादों की मीठी मुस्कानों का कारवाँ, जो ले चलेगा सौंधी माटी के आँचल में। तो आओ सारे रिश्तों से दूर बचपन से रिश्ता जोड़ें और चलें बचपन के एक प्यारे-से गाँव में . . . यादों की छाँव में . . .।
भारती परिमल

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