आंतरिक सुख

04-02-2019

आंतरिक सुख

रचना गौड़ 'भारती'

उस दिन राकेश के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। आज नौकरी का पहला दिन था। एक कम्पनी का सेल्स मैन बन टाई लगा घर-घर डेमो देता कम्पनी की सेल कर रहा था। अचानक एक दरवाज़े की घण्टी बजाते ही उसे कराहने की आवाज़ आयी। उसने खिड़की से अंदर झाँका तो एक बूढ़ा आदमी पलंग से आधा लटका अजीब स्थिति में कराह रहा था। जैसे तैसे खिड़की से कूदकर वह अंदर घुसा- "बाबा! क्या हुआ?"

"बेटा! बीमार हूँ और मेरी दवाई ख़त्म हो गई, उसे लेने से ही आराम आएगा।" राकेश ने एक बार घड़ी की ओर देखा फिर बाबा की ओर। असमंजस में था वह, कम्पनी में रिपोर्ट सम्मिट करनी थी वरना लापरवाही के कारण नौकरी चली जाएगी। इधर एक इंसान दर्द से कराह रहा था। उसने दवाई का पर्चा लिया और बाज़ार से दवाई लाकर दे दी। दवाई खाते ही बाबा को आराम आ गया । उसे ढेरों आशीर्वाद मिले। 

ऑफिस पहुँचा तो मैनेजर का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था- "तुम ग़ैर ज़िम्मेदारों को अपनी रोज़ी-रोटी की भी चिन्ता नहीं है। अब जाओ तुम्हारी हमें ज़रूरत नहीं है।" 

राकेश के क़दमों में अब भी वही तत्परता थी जो आते समय थी। वह नौकरी न सही मगर सेवा करके लौट रहा था, ख़ुशी के मारे पाँव अभी भी ज़मीन पर न थे।
 

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