आँख-मिचौनी

01-07-2021

आँख-मिचौनी

दीपक शर्मा (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पाँच मंज़िली उस इमारत की तीसरी मंज़िल पर स्थित पुस्तकालय की ओर से कपड़े की एक बड़ी ध्वजा उसी दिन, सत्तरह मार्च को, आयोजित एक गोष्ठी की सूचना वहीं प्रांगण के प्रवेश द्वार पर दे रही थी।

सूचना के अन्तर्गत बड़े अक्षरों में एक घोषणा थी– पुस्तकों की माँग, हमें हरी जिल्द दो तथा उस घोषणा के नीचे छोटे अक्षरों में उस माँग का तत्त्व कारण दिया गया था, पेड़ ही हमारे पुस्तक उद्योग के काग़ज़ तथा मुद्रण के साधन हैं तथा उन के योगदान की प्रशस्ति-स्वरूप हमें अपनी पुस्तकों को हरी जिल्द देनी चाहिए।

विषय मुझे मनोरंजक लगा था तथा मैंने दूसरी मंज़िल पर बने बिजली के दफ़्तर जाना टाल दिया। सोचा, पहले पुस्तकालय ही जाऊँगी। उस की सदस्या तो मैं थी ही।

अभी मैं अपना मन बना ही रही थी कि वहीं प्रांगण में एक तिपहिया आन रुकी।

“भाड़ा कितना हुआ?”

उतरने वाली कुन्ती थी। तीन वर्ष पूर्व के मेरे पुराने पुरुष-मित्र, सुरेश की नयी सहेली, जिसे सुरेश ने अभी पिछले माह ही मुझे इसी पुस्तकालय में मिलवाया था, इसी चार मार्च को हम ‘कोर्ट मैरिज कर रहे हैं’।

“एक सौ बीस, बिटिया,” तिपहिया-चालक वृद्ध था।

“तुम बाक़ी चेंज रख लो . . .”

सौ-सौ के दो नोट कुन्ती ने उस चालक की ओर बढ़ा दिए थे।

“मगर बिटिया . . .”

“तुम रखो . . .” 
और कुन्ती ने अपना हाथ ख़ाली कर दिया था।

तभी मैंने उसकी माँग और कलाइयों पर ध्यान दिया तो उन्हें भी ख़ाली ही पाया।

पहनावा भी उसका एकदम फीका था, धूसर हो चुकी जीन्स के ऊपर उसने जो टी-शर्ट पहन रखी थी कभी नीली और गुलाबी रही उसकी धारियों के रंग मंद पड़ चुके थे। उसके पैरों की चप्पल भी किसी कूड़े के ढेर में फेंकी जाने वाली थी।

“सुरेश कहाँ है?” मेरी जिज्ञासा ने मुझे उस के क़दम के साथ क़दम उठाने पर बाध्य कर दिया।

“तीन मार्च की सुबह वह वाशिंगटन के लिए निकल गया है,” उस की आँखों में आँसू छलक आए।

मैं जानती थी सुरेश के पिता उन दिनों तीन वर्ष के लिए विश्व बैंक में हुई अपनी तैनाती के अन्तर्गत वाशिंगटन में रह रहे थे।
“शादी के बग़ैर?” मैं मन ही मन मुस्करायी। उस से पहले भी मैं सुरेश को तीन लड़कियों को अपने मन में बिठालने के बाद उन्हें मन से उतारते हुए देख चुकी थी।

“हाँ,” और कुन्ती अपने आँसुओं को सँभालती हुई इमारत के सुरक्षा जाँच  वाले बूथ की ओर चल दी।

मैं भी उस के पीछे-पीछे वहीं चली आयी।

“आप अपने साथ कुछ नहीं लायीं?” जाँच के बाद लॉउन्ज में पहुँचते ही मेरी जिज्ञासा खुल कर प्रकट हो ली।

“नहीं,” उसकी आँखें अब अपने आँसू सँभाल नहीं पायीं।

लॉउन्ज में लिफ़्ट के पास खड़े लोग हमारी ओर देखने लगे। 

“आज पुस्तकालय नहीं जा रहीं?” मुझे उसकी चिन्ता हो आयी। 

“नहीं . . .” उसने नीचे आ चुकी लिफ़्ट की ओर मुड़ना चाहा। 

“लिफ़्ट में अभी इन सब को जा लेने दीजिए,” मैंने उस का हाथ पकड़ कर उसे उस में जाने से रोक दिया। “मुझे आप से एक ज़रूरी बात करनी है . . . सुरेश ही के बारे में . . .” 

“क्या-या-या?” वह चौंक गयी। 

“चलिए, इस दूसरी लिफ़्ट, में चलते हैं . . . अकेली हम दोनों . . .” जब तक नीचे आ चुकी दूसरी लिफ़्ट मुझे नज़र आ गयी थी। “आप की मंजिल?” लिफ़्ट का दरवाजा बंद होते ही मैंने अपना द्विअर्थक प्रश्न उस की ओर निर्दिष्ट किया। 

“आख़िरी . . .” इस इमारत की आख़िरी मंज़िल में एक रेस्तरां था, आधा छतदार एवं आधा खुला। किंतु उस के खुले भाग के एक कोने में अशुभ वह बालकनी भी थी जहाँ से नीचे कूद कर अभागे कई युवक एवं युवतियाँ स्वेच्छा से मृत्यु प्राप्त कर चुके थे। 

“मैं भी उसी आख़िरी मंजिल पर ही जा रही हूँ,” उसे अपने पक्ष में लाने के लिए मैंने गप उड़ा दी। “लेकिन उस के रेस्तरां में नहीं। उस की बालकनी पर . . .” 

“सच?” भौचक हो कर वह मेरा चेहरा ताकने लगी। “वहाँ जाने से पहले बेशक सुरेश के बारे में तो मुझे आप से बात करनी ही है . . .” 

“हाँ . . .हाँ . . . सुरेश ने क्या किया?” वह उत्सुक हो आयी।

“उस ने मुझे धोखा दिया। आप से मुझे मिलाते समय बोला था वह आप से शादी कर रहा है जबकि उसने न तो शादी ही की और न ही अपनी दोस्ती ही निभायी . . .” मैंने दूसरी गप हाँकी। 

“दोस्ती? कैसी दोस्ती?” वह लगभग बौखला गयी। संयोगवश ऊपर जाते समय लिफ़्ट के रास्ते में पड़ रही अन्य मंज़िलों से भी हमारे साथ कोई शामिल नहीं हुआ और पाँचवी उस मंज़िल पर हम दोनों अकेली ही उतरीं। 

“सोचती हूँ, आप के साथ थोड़ी देर के लिए इस रेस्तरां ही में बैठ लूँ, अपना दुख बाँट कर ही उधर बालकनी में जाऊँ। मगर पहले बताइये इधर इस रेस्तरां में आप किसी से मिलने आयी हैं क्या?” लिफ़्ट से उतरते ही मैं रेस्तरां की ओर बढ़ ली। 

“अब मुझे किसी से भी मिलना मिलाना नहीं है। बस, सुरेश के बारे में आप की बात सुननी बाक़ी है और फिर . . .” 

“फिर क्या?” उसे निरस्त्र करने के लिए मैंने अपने शस्त्र उठा लिए। मैं मनोविज्ञान में लेक्चरर थी और जानती थी उसकी इष्ट धारा से उसे अपने मार्ग पर लाने के लिए मेरा उस पर सीधा प्रहार करना सर्वथा ठीक था। 

“फिर . . .फिर . . .” वह घबरा गयी। 

“चलिए, अभी रेस्तरां में बैठते हैं, फिर की फिर देखी जाएगी। अभी कॉफ़ी पीते हैं, सेंडविच लेते हैं। अच्छा हुआ जो अपना बटुआ मैं लेती आयी। आप की तरह ख़ाली हाथ नहीं आयी . . .” मैंने मेज़-कुर्सियों पर अपनी नज़र दौड़ायी और बीच वाली एक मेज़ की ओर बढ़ चली। 

“हाथ ख़ाली करते समय आप ने अपने कंधे नहीं ख़ाली किये?” उसके आसन ग्रहण करते ही मैं शुरू हो ली। 

“कंधे? मैं समझी नहीं . . .” 

“अपने कंधों पर आप अभी भी सुरेश को लादी हुई हैं। अपने कंधे मुक्त करिए। अपनी ज़िन्दगी में नया अपना ख़ाका उतारिए। अपने लिए नयी लकीर खींचिए। सुरेश को एक दु:स्वप्न समझिये, मानो वह आपकी बाजू से हो कर निकल गया। अपना भविष्य उस के साथ जोड़ने की बजाए अपने लक्ष्य, अपने सपने के साथ जोड़िए . . .”

तभी वेटर हमारी मेज़ पर पानी के दो गिलास ट्रे में रखे हमारा आर्डर लेने आ पहुँचा।

“यहाँ की टिकियाँ और पानी-बताशे . . .”

“फिर आप दो कॉफ़ी लाइए और दो दो प्लेट यही दोनों . . .”

“मैं कुछ नहीं लूँगी, प्लीज़," वह लगभग उठने उठने को हुई।

“तुम यह लाओ। हम दोनों खाएँगी . . .”

मैंने अपना हाथ कुन्ती के हाथ पर जा टिकाया।

“क्या सुरेश के बारे में आप कुछ जानना नहीं चाहती थी?”

“हाँ . . .हाँ . . .”

“तो फिर बैठिए अभी। आप को जल्दी किस बात की है?”

“असल में मैं यह सोच कर आयी थी अब मुझे इस संसार से कुछ लेना-देना नहीं . . .”

“सिवा सुरेश के?” मैंने व्यंग्य छोड़ा। उसे मैं उस दुहरी गाँठ से दूर करना चाहती थी, “आप बहुत ग़लत रास्ते पर जा रही हैं। सुरेश से मिलने से पहले भी तो आप कुछ थीं। कुछ कर रही थीं . . .”

“हाँ, मैं जे.आर.एफ., जूनियर रिसर्च फ़ैलोशिप पा रही थी। अब भी पा रही हूँ। बल्कि आज ही उस का नया चेक कैश करवा कर लायी हूँ . . .”

“जे.आर.एफ. तो केवल नेट परीक्षा में मेरिट लिस्ट पाने वालों ही को मिलता है। मतलब, आप पढाई में बहुत तेज़ हैं?”

“थी, कहिए। थी। सुरेश की बेफ़िक्री और अमीरी की चकाचौंध ने मेरी आँखें मगर धुँधली कर दीं। मेरी समझ भटका दी और अपना शोध, अपना अध्ययन, अपना परिवार भूल कर मैं उस के साथ आँख-मिचौनी खेलने लगी . . .”

“आप के परिवार में कौन-कौन हैं?”

“मेरे पिता हैं तथा छोटे दो भाई। पिता एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क हैं और भाई दोनों पढ़ रहे हैं। इसीलिए आज फ़ैलोशिप पाते ही मैंने अपने सभी बिल चुका दिए, धोबी के, अख़बार वाले के, खाने के, होस्टल के ताकि मेरे पीछे उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े। अपना सारा सामान बाँध-समेट कर अपनी होस्टल वार्डन के सुपुर्द कर आयी हूँ– एक लिफ़ाफ़े के साथ . . .”

“लिफ़ाफ़े में क्या है? मेरी चेक-बुक, मेरी पास-बुक, मेरे सभी पहचान-पत्र और मेरी आत्महत्या का नोट . . .”

“आत्महत्या?” मैंने हैरान होने का स्वांग भरा हालाँकि कुन्ती को देखते ही वह मेरे संदेह के घेरे में आ चुकी थी। आख़िर मनोविज्ञान पढ़ी हूँ, पढ़ा रही हूँ।

“हाँ, अब मैं जीना नहीं चाहती। अपने को मृत्युदंड देना चाहती हूँ। अपने पिता तथा भाइयों को धोखा देने के लिए। ख़ुद को, धोखा खाने के लिए . . .”

“और जिसने सबको धोखा दिया है। आपको, आप जैसी कितनी ही लड़कियों को और अपने उस दोस्त को जिससे उसने अपनी शादी के नाम पर एक लाख रुपया ऐंठा और वाशिंगटन का टिकट कटा लिया . . .” 

“किस दोस्त से?” 

“मुझ से . . .” मैंने दूसरी गप हाँकी।

“आप उस की दोस्त हैं?” 

“थी, मगर अब नहीं। और सोचती हूँ हमें अपना अपना भविष्य बिगाड़ना नहीं चाहिए। सुरेश को एक दु:स्वप्न की भाँति भुला देना चाहिए और अपने आप को महत्व देना चाहिए उसे नहीं . . .” 

“शायद आप ठीक कह रही हैं।” कुन्ती ने मेरे रुमाल से अपना चेहरा पोंछा और मेरा हाथ पकड़ कर बोली, “अगली बार मेरे बटुए से बिल चुकाया जाएगा . . .” 

तभी वेटर हमारा सामान ले कर हमारे पास आ पहुँचा और हम सुरेश को भूल कर उस पर टूट पड़ीं।

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