आँख
अमिताभ वर्मापहला दृश्य
(मेज़ के आगे कुर्सी लगाए एक मध्यमवर्गीय किशोरी पढ़ाई कर रही है। उसकी एक हमउम्र ग़रीब लड़की भी वहीं खड़ी है।)
दीप्तिः
बेकार प्लास्टिक से रेलगाड़ी की पटरी के स्लीपर बनाए जा सकते हैं। इस तरह बने स्लीपर में जल्दी ...
मैनाः
दीदीजी, दीदीजी!
दीप्तिः
क्या है, मैना?
मैना (देहाती लहजे में):
दीदीजी, पराई कड़ ड़ए ऐं?
दीप्ति (चिढ़ कर):
नहीं, तेरी आरती उतार रही हूँ! देख नहीं रही है कि सामने किताब खुली है, हाथ में पेपर-पेन है, और मैं कुछ समझने की कोशिश कर रही हूँ? तुझको क्या लगता है, अगर मैं पढ़ाई नहीं कर रही हूँ तो क्या कर रही हूँ? खाना पका रही हूँ, बर्तन मल रही हूँ, शॉपिंग कर रही हूँ? क्या कर रही हूँ, ऐं? (मैना की नक़ल उतारते हुए) दीदीजी, पराई कर रए ऐं? और, ये पराई क्या होता है? तू ठीक से पढ़ाई नहीं बोल सकती? बोल, प ढ़ा ई।
मैनाः
प रा ई।
दीप्तिः
रा नहीं, ढ़ा, ढ़ा। बोल, प ढ़ा ई।
मैनाः
प रा ई।
दीप्तिः
प ढ़ा ई।
मैनाः
प रा ई।
दीप्तिः
तुझको कुछ भी सिखाना बालू में घी मिलाने के बराबर है। जा, अपना काम कर और मुझे पढ़ने दे। (किताब पढ़ते हुए) बेकार प्लास्टिक से रेलगाड़ी की पटरी के स्लीपर बनाए जा सकते हैं। इस तरह बने स्लीपर में जल्दी दरार नहीं पड़ती। इससे शोर भी कम हो जाता है। ये कीड़ों-मकौड़ों और पानी से जल्दी ख़राब नहीं होता। इसे ...
मैनाः
दीदीजी?
दीप्तिः
उफ़्! कहा न कि अपना काम कर और मुझे पढ़ने दे?
मैना (शरारत से):
दीदीजी, बस अमड़े एक सवाल का सई-सई जवाब दे दिजिए। फेड़ अम अपना काम कड़ेंगे औड़ आप ड़ेलगारी का काम कड़िएगा। ठेक?
दीप्तिः
हे भगवान्! चल पूछ जल्दी जो पूछना है।
मैना (विजयी भाव से):
ड़ेडी? ओ के! चलिए, बतैए, ओ का चीज ऐ जेसका आना खड़ाप, जेसका जाना खड़ाप, जेसको उठाना खड़ाप, जेसका बैठना खड़ाप, जेसको फोड़ना खड़ाप, जेसका मूँदना खड़ाप ...
दीप्तिः
खड़ाप? ओह, (हँसते हुए) ख़राब! (सोचते हुए) आना ख़राब, जाना भी ख़ऱाब ...
मैना (ख़ुशी में गाते हुए):
जेसका आना खड़ाप जेसका जाना खड़ाप, जेसको उठाना खड़ाप जेसका बैठना खड़ाप, जेसको फोड़ना खड़ाप जेसका मूँदना खड़ाप, जेसको माड़ना खड़ाप जेसको ...
(काला चश्मा लगाए दीप्ति की माँ, सरला, का आगमन।)
सरलाः
ये क्या गाना-बजाना हो रहा है, ’’खड़ाप-खड़ाप-खड़ाप’’?
दीप्तिः
माँ, ये मैना की बच्ची तब से इरिटेट किए जा रही है। कहती है कि पहले पहेली बूझो फिर बाद में पढ़ने देगी। पता नहीं क्या पूछ रही है – वो कौन सी चीज़ है जिसका आना-जाना और पता नहीं क्या-क्या सब ख़राब है। (मज़ाक में) मेरे ख़याल में तो वह चीज़ तू ही है मैना! भला तुझसे ज़्यादा क्या किसी का आना-जाना बोलना-चालना ख़राब होगा, (हँसती है।) हूँ?
मैना (कुंठित स्वर में):
अम जाते ऐं अपना झाड़ू-पोंछा-बड़तन कड़ने।
सरलाः
मैना, रुको। झाड़ू-बुहारू-बर्तन करने तुम क्यों जा रही हो?
मैना (रुखाई से):
अम नई कड़ेंगे तो कोन कड़ेगा? अम खड़ाप ऐं। ... अमड़ा बाबूजी ईस्तड़ी कड़ते ऐं, अम सातों बाई-बेन आउड़ अमड़ा माँ चोटा-मोटा काम कड़ते ऐं, जोपड़ी में ड़ैते ऐं ... अम नई कड़ेंगे तो कोन कड़ेगा?
सरलाः
मैना! तुम्हें हम यहाँ काम करने के लिए नहीं बुलाते। उस दिन तुम्हारे पिताजी से इस्त्री किए कपड़े लेते समय तुम पर नज़र पड़ी, तो लगा कि तुम इन दीप्ति दीदी से अगर कुछ सीख सको, कुछ पढ़ सको, तो तुम्हें अपने स्कूल में दाख़िला दिला कर पढ़ा-लिखा दूँगी, ताकि तुम बड़ी हो कर योग्य बनो, समाज में सम्मान पाओ, तुम्हें और तुम्हारे पिताजी को छोटे-मोटे काम न करने पड़ें।
मैनाः
अमड़ा बाबूजी अमको इटकूल में परनेई नई डेंगे! खाने का पइसा अइए नई ऐ, पराई का पइसा कोन डेगा?
सरलाः
मैना, देश के हर बच्चे को बिना फ़ीस पढ़ाई का हक़ है। हमारे स्कूल में पढ़ोगी तो फ़ीस थोड़े-ही लगेगी? उलटे फ़्री खाना मिलेगा।
मैनाः
फेड़ बी अमको बाबूजी इटकूल नई बेजेंगे। इटकूल में बोत टाइम खड़ाप ओता ऐ। ओतना टाइम में अम केतना जलावन बिन लेंगे, केतना घड़ साफ कड़ लेंगे, केतना घड़ का काम कड़ लेंगे, केतना चुला-चौका कड़ लेंगे। इटकूल में का ओगा? बइठे-बइठे किताब परो!
दीप्ति (व्यंग्य से):
बात तो ठीक है तेरी। कौन जा कर स्कूल में किताबों से माथापच्ची करे? इधर-उधर काम करने से, जलावन बीनने से साल-भर का ख़र्च तो निकल ही आता होगा, क्यों?
मैनाः
साल-भड़ का खड़चा निकलता त अम ऐसे गड़ीबी में ड़ैते, घड़-घड़ काम पकरते? अमड़ा बाबूजी ईस्तड़ी कड़ते, के सूट-पैंट पैन के सान से टंडैली कड़ते? एक बेला का तो खाने नईं निकलता, अउड़ आप कैते ऐं के साल-भड़ का खड़चा निकलता ऐ जलावन बिनने औड़ घड़-घड़ काम पकरने से!
दीप्ति (मज़ाक़ उड़ाने के स्वर में):
ओह, तो यह बात है! इधर-उधर काम करने से और जलावन बीनने से एक जून का ख़र्च भी नहीं निकलता। समझी! लेकिन कुछ तो ऐसा होगा ही जिसकी वजह से तू बिना फ़ीस पढ़ाई और फ़्री खाने की बजाय स्कूल से बाहर रहना पसन्द करती है। शायद स्कूल से जितना ज़्यादा बाहर रहेगी, एक्सपीरिएंस उतना ज़्यादा बढ़ेगा, समाज में उतनी ज़्यादा इज़्ज़त होगी, उतने ज़्यादा रुपए-पैसे की कमाई करेगी। ठीक है न?
मैनाः
फेड़ ओई बुड़बकई! अड़े उमड़ बरने से कमाई गटती ऐ के बरती ऐ? आउ इज्जत को कड़ेगा, लोग भीको नईं देता आजकल के जमाना में।
सरला (इशारे से दीप्ति को चुप कराते हुए):
मैना! तुम ख़ुद ही मान रही हो कि स्कूल जाने की बजाय उस समय में छोटे-मोटे काम करने से कोई ख़ास आमदनी नहीं होती, बल्कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, आमदनी और इज़्ज़त कम होती जाती है। अब सुनो कि पढ़ाई करने से क्या होता है। दिन भर में हम दो-चार-दस लोगों से मिलते हैं। है, न?
मैनाः
आँ।
सरलाः
इन दो-चार-दस लोगों में कुछ ठीक-ठाक होते हैं, कुछ शायद नहीं भी होते। जानबूझ कर और अनजाने ही हम इनसे सीखते हैं। ठीक-ठाक लोगों से कुछ अच्छा, और बाक़ी से पता नहीं क्या कुछ ग़लत-सलत। लेकिन जब हम स्कूल की किताब पढ़ते हैं, तो वो सब जान पाते हैं जो ठीक है, सही है, सबसे अच्छा है। इसको कहते हैं ज्ञान। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, हम सीखते हैं कि मुश्क़िलों में कैसे आगे बढ़ें, कैसे मुसीबतों का सामना करें, कैसे ख़ुद भी सफल बनें और कैसे समाज को भी आगे बढ़ाएँ, कैसे सेहत अच्छी रखें ...
मैनाः
अमड़ी मैताड़ी अगड़ परी-लिखी ओती तो अमड़ा बाई-बेन बेड़ाम पर-पर के मड़ता नहीं ...
दीप्तिः
तो बिना पढ़े-लिखे, बीमारी, ग़रीबी, बेइज़्ज़ती का सामना क्यों करती है? स्कूल में एडमिशन क्यों नहीं कराती?
मैनाः
अमड़ा बाबूजी कैते ऐं कि तू पर लेगी तो तेरी सादी कड़ने में बौत जंजाल ओगा।
सरलाः
अरे नहीं। अगर तुम अनपढ़ रहोगी तो शायद पढ़े-लिखे लड़के तुम्हें पसन्द न करें। शायद तुम्हें अनपढ़, कम पढ़ा-लिखा, या शारीरिक रूप से कमज़ोर या बूढ़ा पति मिले। शायद तुम्हारी ज़िन्दगी भुखमरी और बीमारी से लड़ने में ही गुज़र जाए। पढ़-लिख लोगी तो लड़के भी पढ़े-लिखे, समझदार मिलेंगे। घर में चार पैसे रहेंगे तो गृहस्थी सुख से चलेगी।
मैना (सकुचाते हुए):
लेकिन बाबूजी कैते ऐं कि इटकूल में, इटकूल के ड़स्ते में, लरका लोग पड़ेसान कड़ेगा। टीचड़ो पाता ना कइसा ओवे। लरकी के लिए घड़े ठीक होता ऐ। आउ परा-लेका लरका दएजो तो डबल लेवेगा। ऊ बाबूजी काँ से जुटावेंगे?
दीप्तिः
तेरे फ़ादर तो लड़कियों को स्कूल भेजने के बिलकुल अगेन्स्ट हैं। वो ख़ुद स्कूल-कॉलेज गए थे या नहीं?
मैना (मज़ाक़-सा उड़ाते हुए):
बाबूजी इटकूल गए थे पड़ बाद में छोर दिए। बोलते थे के मने नई लगा।
सरलाः
और अब शायद मन-ही-मन सोचते हों कि पढ़ाई पूरी कर ली होती तो बेहतर ज़िन्दग़ी जीते। ख़ैर, एक काम करो। परसों हमारे स्कूल में जलसा है दस बजे। उसमें सारे परिवार और मुहल्लेवालों के साथ आओ।
दीप्तिः
किस बात का फ़ंक्शन है, माँ?
सरलाः
परसों ही देख लेना।
दीप्तिः
ओह, तो मैं भी फ़ंक्शन में इनवाइटेड हूँ?
सरला (मज़ाक़ में):
तुम्हें सफ़ाई कर्मचारी के रूप में आना है।
दीप्ति (लाड़ से):
माँ! मैं तुम्हारा पर्स यहीं साफ़ किए देती हूँ, उसके लिए स्कूल में बुलाने का कष्ट क्यों उठा रही हो! लाओ, दो तो, कहाँ है तुम्हारा पर्स?
सरलाः
बहुत अच्छे! अब ये ख़राब काम भी ... अरे हाँ, जब मैं आई तो मैना तुम क्या पूछ रही थीं? कुछ “खड़ाप-खड़ाप” गा रही थी!
मैनाः
अम पूच ड़े ते?
सरलाः
हाँ, तुम्हीं तो पूछ रही थी।
दीप्ति (हँसते हुए):
अरे वह, ख़राब वाली पहेली! क्या थी वह मैना?
मैना (गर्व से):
दीदीजी तो बता बी नई पाए। आप टड़ाई किजिए। ओ का चीज ऐ जेसका आना खड़ाप, जेसका जाना खड़ाप, जेसको उठाना खड़ाप, जेसका बैठना खड़ाप, जेसको फोड़ना खड़ाप, जेसका मूँदना खड़ाप, अउड़ जेसको माड़ना खड़ाप ओता ऐ?
सरलाः
आँख। आँख आना बीमारी है इसलिए ख़राब है। आँख का जाना, यानी आँख से लाचार हो जाना ...
दीप्तिः
माँ! (ग़ुस्से में) मैना तू पक्की इडियट है! ऐसी पहेली पूछने से पहले यह तो सोचा होता
सरला (बात काट कर):
कि मेरी एक आँख ख़राब है, मुझे दुःख लगेगा? नहीं बेटा, ऐसा कुछ भी नहीं है। उलटे, मुझे तो इस बात का गर्व है।
दीप्ति (हैरानी से):
भला ऐसा क्यों, माँ?
सरलाः
चलो, यह भी परसों जलसे में ही बता दूँगी।
दीप्तिः
पर्सनल बात पब्लिक में बताओगी?
सरलाः
जिस पर्सनल बात से पब्लिक का भला हो, वह पब्लिक को बतानी ही चाहिए।
दूसरा दृश्य
(मंच पर दो लोग बैठे हैं और एक आदमी एम्प्लिफ़ायर टेस्ट कर रहा है। सामने लगी कुर्सियों पर लोग बातचीत कर रहे हैं। दीप्ति और काला चश्मा लगाए सरला कुर्सियों की तरफ़ बढ़ती हैं।)
दीप्तिः
क्यों माँ, यहाँ बैठें? यहाँ से पूरा मंच भी दिख रहा है और ये कुर्सियाँ कोने में भी हैं – प्रोग्राम ख़त्म होने पर बाहर निकलने में भी आसानी रहेगी।
सरलाः
हाँ, ठीक है। चलो, यहीं बैठ जाते हैं।
अनाउंसरः
बच्चों, देवियों और सज्जनों से निवेदन है कि वे अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लें और शान्त हो जाएँ। कार्यक्रम थोड़ी ही देर में आरम्भ होगा।
(मैना पीछे से आती है।)
मैनाः
दीदीजी। देक्ऐ, अम आ गए। उदड़ पीचे बैटे ऐं। अमड़ा बाई-बेन अउड़ बाबूजी बी आया ऐ। (हँसते हुए) बाबूजी तो आ ई नई ड़े ते ...
अनाउंसरः
अब हमारा कार्यक्रम शुरू होने ही वाला है।
दीप्तिः
जा मैना, जा, अपनी सीट पर जाकर बैठ।
सरलाः
हाँ मैना, अच्छा किया कि तुम सबको ले कर आ गईं। अब अपनी सीट पर जाकर बैठ जाओ।
(मंच पर रखी एक कुर्सी पर बैठा व्यक्ति माइक पर आता है।)
अधिकारी:
प्यारे बच्चो, बहनो और भाइयो। चार दिन बाद शिक्षक दिवस है, हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन। शिक्षक दिवस पर देश अध्यापकों के प्रति आभार व्यक्त करता है। देशभर के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों को राष्ट्रपति स्वयं अपने हाथों से पुरस्कार देते हैं। शिक्षक सरस्वती का पुजारी होता है। लक्ष्मी का वरदान उस पर अधिक नहीं होता। पैसे के मापदण्ड पर तौलें, तो सामान्य शिक्षक सामान्य नागरिक ही होता है। लेकिन, वह सामान्य हो कर भी असामान्य होता है। वह देश का भविष्य रचता है। बच्चों को तालीम दे कर उन्हें देश का ही नहीं, विश्व का सम्माननीय नागरिक बनाता है। वह सामान्य हो कर भी असामान्य होता है, तभी तो देश के सबसे बड़े व्यक्ति, राष्ट्रपति से पुरस्कार पाता है। यह बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि इतिहास में पहली बार इस शिक्षक दिवस पर हमारे ज़िले का, बल्कि ज़िले का क्यों, हमारे शहर का एक शिक्षक यह सम्मान पाएगा। आप सोच रहे होंगे कि शहर में तो अनेक विद्यालय हैं, भला किस विद्यालय के शिक्षक को यह सम्मान मिलेगा? तो मैं आपका अधिक समय न लेते हुए इस रहस्य से पर्दा उठा ही देता हूँ। ये गौरव प्राप्त हुआ है आपके इसी स्कूल को ... (लोग तालियाँ बजाते और हर्षध्वनि करते हैं।) ... प्रधानाध्यापक महोदय भी यहाँ इसी मंच पर विराजमान हैं। आपको बहुत-बहुत बधाई! दो शब्द आपकी तरफ़ से, प्रधानाध्यापक महोदय!
प्रधानाध्यापक (माइक पर उँगली टकरा कर परीक्षण करने के बाद):
हैलो, हैलो ... मेरी आवाज़ ठीक से आ रही है? हाँ, ठीक है ... अधिकारी महोदय, छात्र-छात्राओ, आमन्त्रित बच्चो, बहनो और भाइयो! शिक्षक पुरस्कार पाने का हमें हार्दिक आनन्द है। हमारे विद्यालय में तड़क-भड़क नहीं है। इसकी इमारत लगभग अस्सी वर्ष पहले बनी थी, और इन अस्सी वर्षों में विद्यालय इतना धन नहीं जुटा पाया कि इमारत में बड़ा भारी परिवर्तन हो सके। बस, मामूली मरम्मत ही हो पाई। ... (याद करते हुए) ... हाँ, एक परिवर्तन यह हुआ है कि पहले विद्यालय में केवल दो शौचालय थे – एक शिक्षकों के लिए और एक छात्र-छात्राओं के लिए – अब उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है (लोग हँसते हैं।)। पहले हमारे यहाँ केवल पुरुष शिक्षक थे, अब महिला शिक्षक, अथवा शिक्षिकाएँ भी हैं। यह पुरस्कार – हमारे विद्यालय, हमारे शहर और हमारे ज़िले का यह पहला पुरस्कार – हमारी शिक्षिका ने अर्जित किया है। लेकिन यह समारोह उस शिक्षिका का अभिनन्दन करने के लिए आयोजित नहीं किया गया है। हाँ, यह समारोह उस शिक्षिका के अनुरोध पर अवश्य आयोजित हुआ है। अधिकारी महोदय, क्षमा कीजिएगा, आपके शब्द उधार ले रहा हूँ, आपका और अधिक समय न लेते हुए आइए मिलते हैं राष्ट्रपति सम्मान के लिए मनोनीत इस शिक्षिका से जिसका नाम है सरला।
(लोग तालियाँ बजाते और हर्षध्वनि करते हैं।)
दीप्तिः
अरे वाह माँ, कॉन्ग्रेचुलेशन्स! तुम तो बड़ी छुपी रुस्तम निकलीं। इतना बड़ा अवॉर्ड मिलने वाला है और कुछ बताया ही नहीं?
सरलाः
थैंक्यू-थैंक्यू, बेटा। अभी मंच पर जाने दो, फिर बाद में बातें करेंगे।
प्रधानाध्यापकः
सरलाजी कहाँ हैं आप, कृपया मंच पर आइए।
(सरला मंच पर चढ़ती है।)
सरलाः
नमस्कार! शिक्षा अधिकारी महोदय, प्रधानाध्यापक जी, अभिभावकगण, मेरे प्यारे छात्र-छात्राओ। मैं आप सबकी बहुत आभारी हूँ कि आपने अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद मेरे अनुरोध का सम्मान किया, जलसे में शरीक़ होने के लिए समय निकाला, मन बनाया, और यहाँ आने का कष्ट उठाया। राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए मेरे नाम का चयन मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है। आप सब के अपूर्व सहयोग के बग़ैर यह पुरस्कार मिलना सम्भव नहीं था। आप सब को पुनः धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई। (लोग तालियाँ बजाते हैं।) ... मुझे यह पुरस्कार दिलाने में जिन सज्जन का सबसे ज़्यादा सहयोग है, मुझे अफ़सोस है, मैं उनका नाम भी नहीं ले पाऊँगी। (लोग अचरज से एक-दूसरे की ओर देख कर फुसफुसाते हैं।) ... बात यह है, कि मुझे अपने ऊपर उपकार करनेवाले इन सज्जन का नाम मालूम ही नहीं है। नाम मालूम होना तो दूर, मैं तो उनकी सूरत भी नहीं पहचानती। तो मैंने सोचा कि आज इस मंच से उन तक अपना धन्यवाद पहुँचाने का, और यहाँ और हमारे समाज में जगह-जगह मँडराती नन्ही परियों को अपना सन्देश देने का इससे बेहतर मौक़ा शायद दोबारा न मिले। (गला साफ़ करती है।)
जैसा कि प्रधानाध्यापक महोदय बता रहे थे, इस स्कूल की इमारत लगभग अस्सी साल पुरानी है। ... उस समय यहाँ शायद जंगल रहा हो। चालीस-पैंतालीस साल पहले, जब मैंने यहाँ दाख़िला लिया, तब भी आस-पास कोई ख़ास आबादी नहीं थी। मेरा घर आठ किलोमीटर दूर था। मैं रोज़ सुबह पाँच बजे स्कूल के लिए पैदल निकल पड़ती थी। थोड़ा रास्ता दौड़ कर, थोड़ा तेज़ क़दमों से चल कर पार करती, ताकि साढ़े छः बजे स्कूल पहुँच सकूँ। उस समय यहाँ पक्की सड़क नहीं थी। बरसात में कीचड़-पानी से बच-बचा कर आने में कभी-कभी देर हो जाती थी। देर से स्कूल पहुँचने पर कई बार सज़ा भी मिली मुझको। (लोग हँसते हैं।) स्कूल में लड़के ज़्यादा थे। हम लड़कियाँ तो मुझे मिला कर बस चार थीं। महिला टीचर तो थीं ही नहीं। तो शिक्षक जिस तरह लड़कों को देर से आने पर सज़ा देते थे, वैसे ही हम लड़कियों को भी देते थे –
भेदभाव में विश्वास नहीं था उनका। (लोग फिर हँसते हैं।) ... पढ़ाते इतना अच्छा थे कि मुझे आज भी बचपन के कई पाठ इस तरह याद हैं जैसे कल ही पढ़े हों।
प्रधानाध्यापकः
आप भी तो बहुत अच्छी तरह पढ़ाती हैं, सरलाजी।
सरलाः
जी हाँ, चेष्टा करती हूँ कि सज़ा देने में नहीं तो कम-से-कम शिक्षा देने में तो अपने गुरुजनों का नाम रोशन कर सकूँ। (लोग हँसते हैं।) ... मैं उस समय बारह-तेरह साल की थी। एक दिन रिसेस के समय मुझे शौचालय जाना था। शौचालय सिर्फ़ एक था, और उसके अन्दर कोई था। जैसे ही शौचालय ख़ाली हुआ और मैं आगे बढ़ी, एक लड़का मुझे धकेल कर अन्दर चला गया। ... मेरे लिए रुकना मुश्क़िल हो रहा था। मैं स्कूल के पिछले हिस्से की तरफ़ झाड़ियों की ओर जाने लगी। ... मेरी समस्या वही समझ सकते हैं जो स्वयं इस परेशानी से गुज़रे हैं। (लोग हँसते हैं।) ... लेकिल जब मैं झाड़ियों के पास पहुँची तो देखा कि दो लड़के भी मेरा पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गए हैं और हँस रहे हैं। ... बड़ी विपदा थी! मैं शौचालय की ओर वापस भागी। भगवान का लाख-लाख शुक्र कि वह ख़ाली मिल गया। ... मैंने चैन की साँस ली। थोड़ी देर बाद जब शौचालय से बाहर निकली, तो वे दोनो लड़के वहीं खड़े हँस रहे थे। मैंने उनसे कुछ कहना चाहा, पर इससे पहले कि कुछ बोल पाती, एक लड़के ने मुझ पर पत्थर फेंका। ... मैं अपने को बचा नहीं पाई। पत्थर मेरी बाईं आँख पर लगा। (लोग एक क्षण को आपस में बातचीत करने लगते हैं।) ... मुझे कितनी देर बाद होश आया, घर कैसे पहुँची, कितने दिन और क्या इलाज हुआ, उस सब की चर्चा नहीं करूँगी। आप देख ही रहे हैं कि मेरी वह आँख नष्ट हो चुकी है। ... अब तो आदत पड़ गई है, लेकिन उस घटना के बाद लगभग दो साल तक मैं आईना नहीं देख पाती थी। घर में उदास पड़ी रहती। माँ-बाप की बातें मेरे कानों में पड़तीं। वे बहुत परेशान थे मुझे लेकर। मैं उनका सहारा नहीं, बोझ बन गई थी। ... मैंने बहुत सोचा। एक दिन लगा, क्या मेरी आँख का जाना मेरी ताक़त नहीं बन सकता? एक आँख के साथ ही मन भटकने के मार्ग भी तो बन्द हो गए थे! पहले शायद स्कूल की पढ़ाई के बाद मेरी शादी करवा दी जाती, मैं सामान्य महिला का जीवन जीती। अब मैं पढ़ाई में ऐसी जुटी कि स्कूल के बाद कॉलेज, और कॉलेज के बाद आगे और पढ़ाई की। मैंने इसकी परवाह करना छोड़ दिया कि लोग मेरी सूरत देखने के बाद क्या सोचते होंगे। मुझे नौकरी मिली, मेरे माता-पिता को मैं सहारा दे पाई, और फिर एक दिन मुझे ऐसा जीवनसाथी भी मिल गया जो मेरे विचारों का सम्मान करता है। ... अगर वह दौरे पर शहर से बाहर न होते, तो आज यहीं बैठे होते। ... मैं जब भी आईना देखती हूँ, उस भाई को धन्यवाद देती हूँ जिसकी नासमझी ने मुझ में समझ पैदा कर दी, पढ़ाई करवा कर मेरा जीवन सार्थक बना दिया। पढ़ाई करने में चाहे कितनी ही परेशानियाँ क्यों न आगे आएँ, पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती। लड़के हो या लड़की, अगर नहीं पढ़ते, तो पढ़ो, और अगर पढ़ते हो, तो पढ़ाई पूरी करो। अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए। बस, मुझे यही कहना था।
(सब तालियाँ बजाने लगते हैं।)
तीसरा दृश्य
(पहले दृश्य का सेट।)
मैनाः
आज सुबा इटकूल में आपका इस्पीच सोन के अमड़ा बाबूजी ड़ोने लगे। अमको पराने के लिए बी तैआर ओ गै। अमको तो पताइ नई ता के ओ बी इसी इटकूल में परे ते। आपको ए कागद बेजे ऐं।
(मैना एक तह किया हुआ काग़ज़ दिखाती है।)
सरलाः
तुम्हें स्कूल भेजने के लिए तैयार हो गए! यह तो बड़ी अच्छी बात है। दीप्ति बेटा, पढ़ो तो क्या लिखा है।
दीप्तिः
ला, दे काग़ज़। ... बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी हैन्डराइटिंग है। लिखा है (मुश्क़िल से, धीरे-धीरे पढ़ती है।) —
गंभीरता से पत्थर खा कर आपने जीवन निखार लिया, और नादानी में पत्थर मार कर मैंने जीवन नष्ट कर लिया। माफ़ कीजिएगा। ... ओह!
सरलाः
जाने दो दीप्ति। शाम होने वाली है, लाइट ऑन कर दो। ... सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आए, तो भूला नहीं कहलाता।
(दीप्ति सरला से लिपट जाती है। मैना सरला के आँचल का छोर थाम कर दर्शकों की ओर देखने लगती है।)