आँगन की चिड़िया  

15-12-2020

आँगन की चिड़िया  

डॉ. आरती स्मित (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

बाल कहानी (स्तर 3)

"चीं चीं चीं चीं" 

"नन्ही चिड़िया ! तुम किसे ढूँढ़ रही हो? क्या तुम इस शहर में नई हो?" ‘गुटर गूँ’ करते झुंड में से एक कबूतर रोमी ने पूछा ।  

"मैं हूँ चिंकी गौरैया। लोग मुझे आँगन की चिड़िया कहते हैं," चिंकी  बोली।

“आँगन की चिड़िया?”

"हाँ, क्योंकि हम  मकानों में ऊँचे तक नहीं जातीं। आसमान में भी निचले हिस्से तक ही जाती हैं," चिंकी बोली ।

"नन्ही दोस्त ! यह तो बताओ, तुम यहाँ कैसे ? तुम्हारे बाक़ी साथी कहाँ हैं?" रोमी का दूसरा साथी पिंचू भी वहाँ आ गया। उसी ने पूछा।

"हम बिछड़ गए। ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ sssss हमारा परिवार, हमारा समूह ऊँ ऊँ ऊँ ssss" 

 बूढ़ा कबूतर, चुनमुन , जो देर से उनकी बातें सुन रहा था, उसे रोते देखकर चुप रह न सका, प्यार से बोला, "रो मत प्यारी चिड़िया ! तुम चाहो तो हमारे साथ रह सकती हो।"

“मगर कहाँ?”

“वैसे तो इस महानगर में दाने की कभी परेशानी नहीं हुई। हर चौराहे पर लोग हमारे खाने के लिए दाने दे जाते हैं, मगर पानी ! . . .  और रहने का ठिकाना? कहाँ बताऊँ ठिकाना?” चुनमुन सोच में पड़ गया।

बूढ़े कबूतर को चुपचाप टहलता देखकर चिंकी  उसके पास गई और पूछा, "दादू, आपने बताया नहीं, मैं रहूँगी कहाँ?"  

“हम सब किसी मुँडेर पर, खिड़की के पल्ले पर पाँव टिकाए रात बिताते हैं," रिया कबूतरी बोली।

“मैं समझी नहीं” 

"हमें घोंसला बनाने के लिए जगह ही नहीं मिलती," रिया की सहेली मिमी  बोली। "हम अंडे को सही जगह जन्म नहीं देते तो उससे चूजा नहीं निकल पाता। और . . . " वह रोने लगी।

"यही सच है नन्ही चिड़िया ! इस महानगर में दाना-पानी मिल भी जाए मगर सिर छुपाने की जगह मिलना मुश्किल है। पता नहीं हमारी पीढ़ी कैसे आगे बढ़ेगी?" बूढ़ा चुनमुन  बोला।

"हम गौरेयाँ पेड़ों की डालों पर बसेरा करती हैं। आँगन में बिछाए दाने चुगती हैं। मगर यह बात पुरानी हो चली। गाँवों और क़स्बों में मिल भी जाए, छोटे शहरों में भी अब  मुश्किल होती है। महानगर में कहाँ आँगन  और कहाँ दूर तक पसारे हुए अनाज!  अब न आँगन है, न दाना,” चिंकी ने आह भरी, फिर बोली . . .

“मगर, ऐसे लोग अब कम होते जा रहे हैं। कई बालकनी तो दिनभर चुप-सी होती है। कोई नहीं दिखता, फिर हमारे लिए दाना कौन डालेगा? कई इमारत तो बंद डिब्बे-सी होती है, हमें पता नहीं चलता, वहाँ आँगन -बालकनी है भी या नहीं," चिंकी ने अपना दुखड़ा सुनाया  तो पास ही, काँव-काँव करता कोका कौवा पूछ बैठा, "क्या तुम उन इमारतों की बात कर रही हो जहाँ ऑफ़िस, बाज़ार या रेस्तराँ होते हैं?"

“हाँ, शायद!” वह बोली। फिर कहा, “आज सुबह से भटकती हुई मैं यहाँ आ पहुँची, मगर कहीं कटोरी भर पानी और दाना नहीं मिला। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे हम गौरेयाँ ख़त्म हो जाएँगी।" 

“यहाँ अधिकतर लोग किराए पर छोटी- छोटी कोठरियों में रहते हैं जिन्हें वे फ़्लैट कहते हैं। और सुबह ही वे ऑफ़ोस निकल जाते हैं, फिर तुम्हें दाना कौन देगा?" रिया बोली।

"यहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें हैं। आख़िर, पेड़ कहाँ गए, हमारे घर कहाँ गए?" छोटी चिंकी पूछने लगी।

"यह महानगर है। यहाँ इमारतें, कारखाने अधिक और पेड़ बहुत कम हैं,"  चुनमुन ने कहा। 

 “क्यों न हम पेड़ लगाएँ!” चिंकी बोली।

 “???”

“हाँ! हम अपनी चोंच में तरह-तरह के बीज भरकर लाएँ और नमी वाली जगह पर गिरा दें,” चिंकी बोली।

“सुझाव तो अच्छा है,” सब एक साथ बोले।

अगले दिन चिंकी, चुनमुन, कोका सहित सब चल पड़े नया घर बनाने . . . पेड़ उगाने!
 

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