आम आदमी की छटपटाहट को अभिव्यक्त करती कविताएँ

01-09-2020

आम आदमी की छटपटाहट को अभिव्यक्त करती कविताएँ

दीपक गिरकर (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

पुस्तक: नक्कारखाने की उम्मीदें (कविता संग्रह)   
लेखक: संतोष सुपेकर
प्रकाशक: राघव प्रकाशन, आर - 451, महालक्ष्मी नगर, इंदौर - 452010
मूल्य: 200 रुपए
पृष्ठ: 104

श्री संतोष सुपेकर लघुकथा के क्षेत्र में एक स्थापित हस्ताक्षर हैं लेकिन इनकी कविताएँ भी लोगों के दिलों में अपनी छाप छोड़ती आ रही हैं। हाल ही में इनका तीसरा कविता संग्रह "नक्कारखाने की उम्मीदें" प्रकाशित होकर आया है। इसके पूर्व इनके “चेहरों के आर-पार” (2012), “यथार्थ के यक्ष प्रश्न” (2015) काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। श्री संतोष सुपेकर के इस कविता संग्रह की विविध रचनाओं को पढ़ने के पूर्व उनके आत्मकथ्य को पढ़ना ज़रूरी है जिसमें उन्होंने लिखा हैं – "क्या कविता के द्वारा पाठक को प्रभावित करते हुए हम मानवता, संस्कृति पर हो रहे भयानक हमलों से मज़बूती से लोहा ले पाएँगे? कुछ भी हो प्रतिरोध तो हमें करना ही होगा। कविता का अस्तित्व ही प्रतिरोध है। विचार शक्ति, विषय वैविध्य, नई तकनीक को प्रयोग में लाकर कविताओं को सशक्त बनाना होगा। आख़िर कविता ने ही सिखाया है कि एक पत्थर के टुकड़े को भी कितनी कोमलता, महान कोमलता के साथ देखा, महसूस किया जा सकता है।" 

संतोष जी एक संवेदनशील लेखक हैं। वे कविता और गद्य दोनों में सामर्थ्य के साथ अपनी रचनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। संतोष जी वर्ष 1986 से पत्र लेखन, कविता, लघुकथा, व्यंग्य, कहानी और समीक्षा लेखन में सक्रीय हैं। संतोष जी के, साथ चलते हुए, हाशिए का आदमी, बंद आँखों का समाज, भ्रम के बाजार में, हंसी की चीखें इत्यादि लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी लघुकथाएँ महाराष्ट्र राज्य शिक्षा बोर्ड 10वीं के, पाठ्यक्रम में शामिल हो चुकी हैं। लेखक कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। इस पुस्तक में आम आदमी की छटपटाहट की कविताएँ हैं। संतोष जी ने आम आदमी की पीड़ा, निराशा, घुटन, दर्द को मार्मिक रूप से अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है। संतोष जी जन-जन की सूक्ष्म संवेदनाओं के मर्म को पहचानने वाले लेखक हैं। संग्रह की हर कविता जीवन की सच्चाई को बयां करती है। कवि की दृष्टि छोटी से छोटी बातों पर गई हैं। कवि ने कम से कम शब्दों में प्रवाहपूर्ण सारगर्भित बात कही हैं। इस संग्रह की कविताएँ जीवन के खुरदुरे यथार्थ से जूझती दिखाई देती हैं। लेखक की रचनाएँ व्यक्ति के अंतर्मन के द्वंद्व को पाठक के सामने प्रस्तुत करती है। इस कविता संग्रह की भूमिका, वरिष्ठ साहित्यकार श्री ब्रजेश कानूनगो ने लिखी है। उन्होंने लिखा हैं "संतोष सुपेकर की कविताएँ पढ़ते हुए कई जगह महसूस होता है कि यह रचना संभवत: एक बेहतरीन लघुकथा की शक्ल में पाठकीय संवेदना जगा रही है। कई जगह वे कोई शब्द चित्र सा बनाते नज़र आते हैं। बरसों बरस लघुकथा विधा की प्रतिष्ठा और सृजन में संलग्न रहकर लघुकथा के लिए समर्पित, सम्मानित रचानाकार की कविताओं पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।” वरिष्ठ साहित्यकार श्री सतीश राठी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है "यह कवि एक ऐसा कवि है जो भीड़ भरी आवाज़ के बीच उम्मीद का बीज रोपता है और सतत उन स्थितियों को जागृत करने के लिए लिखता है। इन कविताओं में कहन की एक ईमानदारी है और सत्यता का आग्रह भी।"

"नक्कारखाने की उम्मीदें" यथार्थवादी कविताओं का ऐसा दस्तावेज़ है जिसमें कवि ने नयी दृष्टि और नए प्रतीकों, अन्य शब्द संकेतों से रचनाओं का सृजन किया है। आज हम अपने पड़ोसी को नहीं पहचानते हैं, हम उन्हें भी नहीं पहचानते हैं, जो रोज़ हमारे घर आते हैं उदाहरण दृष्टव्य है - इस संकलन की कविता "आज पड़ोसी ने बताया" "आज पड़ोसी ने बताया" कविता में कवि कहते हैं - तेरह वर्षों से मेरे घर / दूध बेचने आ रहा था वह / दुआ सलाम होती थी हमारी / उसके आने पर आगे कवि लिखते हैं - हम उसे केवल "दूधवाला" नाम से जानते थे / पर उसके दिये गये बिल में / बाबूजी का पूरा नाम होता था / आदर सहित। / आज पड़ोसी ने बताया / दुर्घटना में मारा गया रामशंकर / तो सहज रूप से निकला मुख से / कौन? कौन रामशंकर? / "रामशंकर" / आपका दूधवाला॥ इस संग्रह की एक और कविता "हाहाकारी निष्कर्ष”। इस रचना में कवि कहते हैं कि इस डिजिटल युग में हमारी याददाश्त कमज़ोर होती जा रही है। हम अंधी दौड़ में अपनों को भूलते जा रहे हैं। "भीगे अहसास की वह याद” और “ये भी” रचनाएँ मानवीय संवेदना और आत्मीयता से ओतप्रोत हैं। “तब देखना" कविता में चाय बनाने वाले के माध्यम से रचना प्रक्रिया और रचना सृजन पर लेखक नवांकुर लेखकों को सन्देश देते हैं तो "उस जैसे के लिए ही" रचना में कवि ने हिन्दी के लेखक का वास्तविक चित्रण किया है।

आज के समय में जो हाशिये पर छूट रहा है, जिसकी आवाज़ दब गई है, ये कविताएँ उनकी आवाज़ बन जाने के लिए बेचैन दिखती हैं - “मैं हूँ आम आदमी। / हो सकता है / जिस सड़क से आज जाना हो / वही बंद हो आज, आम आदमी के लिए। / जिस बस से जल्दी पहुँचना है / हो सकता है / वह खराब हो जाए रास्ते में / और देर से पहुँचना पड़े / दूसरी बस की छत पर चढ़कर।” (हो सकता है) कवि अपने समय की नब्ज़ को पहचानता है। उसमें समय के सच को पहचानने की ज़िद है और उसे व्यक्त करने की बेचैनी है – "सब कुछ ठीक" रहा तो / गाँव में बन जाएगी सड़क दो माह में / "सब कुछ ठीक" रहा तो / महाविद्यालय जल्द ही शिफ्ट हो जाएगा / नए भवन में / "सब कुछ ठीक" रहा तो / एक माह में फैक्ट्री में / शुरू हो जाएगा उत्पादन / "सब कुछ ठीक" रहा तो / निराश्रितों को जल्दी ही / मिलने लगेगी बढ़ी हुई पेंशन। / "सब कुछ ठीक" रहता तो / मणिपुर से वे स्वयं आते / न कि आतंकी गोलियों से छलनी उनका शव / "सब कुछ ठीक" रहता तो / सब कुछ ठीक ही होता / कब और कैसे होगा ये "सब कुछ ठीक" / जो कर देगा सब ठीक। / व्यवस्था के असंख्य छिद्रों से / उठ रहे हैं प्रश्न असंख्य से।।" (नक्कारखाने की उम्मीदें)

“अब पता है”, “सदमा” और “क्या कोई उपाय नहीं?” कविताओं में, कवि के मन के भीतर, चल रही उठा पटक महसूस की जा सकती है। इन रचनाओं में कवि के मन की अंतर्व्यथा उजागर हुई है। कवि एक बारह-तेरह वर्षीय बालक के हाथ में पत्थर और आँखों में अंगारे देखकर दुखी हो जाते हैं, उनकी व्यथा इन शब्दों में प्रकट हुई है -  तुम्हारी तो परीक्षा के दिन हैं न? / हाथ में पत्थर थामे / आँखों में अंगार लिए / उस बारह-तेरह वर्षीय बालक से / पूछा मैंने हिम्मत करके / "तुम्हारे हाथों में तो होना चाहिये किताबें / परीक्षा के इन दिनों में। " / "असली परीक्षा तो अब है हमारी / हमारे समाज की, जाति की " / उसकी अंगार भरी आँखें चमकी / और फुट पड़ा लावा, जो भरा गया / था उसके अंदर, कूट कूट कर / "अब हम नहीं सहेंगे ये संकट / ये अत्याचार / खून का बदला होगा खून " आगे कवि लिखते हैं - बहुत दु:ख हुआ / कोपलों में पत्तों की जगह / बारूद उगते देख / नन्हें फूलों पर नफ़रत की / काई चढ़ती देख। / क्या कोई उपाय नहीं / नन्हें हाथों में किताब थमाने का? (“क्या कोई उपाय नहीं?”)

“यही लोग”, “वह घुन”, किसे पता है? और “इल्युमिनाटी का भय” को उनके इस संग्रह की सबसे सशक्त कविताएँ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कविता “यही लोग” कथात्मकता के साथ अपने पूरे यथार्थ को चित्रित करती है। “वह घुन” रचना इस संग्रह की सबसे छोटी रचना है जिसमें एक पेड़ को गिरा देने पर कवि व्यथित हो जाता है। जब तक कवि अपने मन की छटपटाहट को काग़ज़ पर नहीं उतार देता तब तक वह बात उसे भीतर ही भीतर कचोटती रहती है। धर्म के नाम पर हिदुस्तान में इंसानों के बीच जो नफ़रत की दीवार खड़ी की है उस पर “सदमा” रचना में कवि की चिंता अभिव्यक्त होती है। “मेरे गुजरते ही वह बच्चा फिर शुरू हो गया है, "होली है !" / उस पड़ाव को पार कर चुका मैं / अचंभित था, सदमें में था / सोच रहा था - / तीस साल पहले तो नहीं होता था ऐसा / कोई रंग फेंकता बच्चा / किसी भी चेहरे को देख / इस तरह ठिठकता नहीं था / फिजाँ में कैसे घुल गया ये जहर / कि नौनिहाल भी हैं उसकी चपेट में।” 

“हो सकती है” और “वह घण्टी” सरहद पर स्थित गाँव के स्कूल का यथार्थ चित्रण है। “और अब”, “वैसे भी”, “इल्युमिनाटी का भय” कविताएँ आर्थिक-सामाजिक विषमता-विसंगति को रेखांकित करती हैं। “कौन मानता है इसे?” कविता में स्त्री जीवन के प्रति संतोष जी की संवेदनशीलता अभिव्यक्त हुई है। लेखक के अनुसार गृहणी के त्याग को कोई तपस्या नहीं मानता है। “चिरआर्द्र” और “सुनसान की महक” रचनाएँ भवन निर्माण में कार्यरत श्रमिकों के श्रम और उनके पसीने की आर्द्रता के महत्व को दर्शाती हैं। “थोक के लिए” रचना में कवि बड़ी निर्भीकता से शोषक वर्ग को बेनकाब करते हैं। कवि ने जो देखा, सुना, जिया, भोगा उन्हीं अनुभव, अनुभूतियों, जीवन मूल्यों को शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त किया है – “बहस जारी थी टेलीविजन पर / भूख को लेकर / एक ने कहा - / कई लोग मर रहे हैं भूख से / दूसरे ने आंकड़े पेश कर दिये - / ग्यारह लोग मरे हैं अब तक भूख से / तीसरा तीव्र विरोधी स्वर में बोला - / नहीं, कोई नहीं मरा, अब तक भूख से / पहला चिल्लाया - तुम झूठे हो / दूसरा चिल्लाया - / तीसरा झूठा है / तीसरा चिल्लाया - / तुम सब झूठे हो / गुमराह कर रहे हो सबको।” (भूलभूलैया में)

कवि ने इस कविता संग्रह में अपने जीवन के कई अनुभवों को समेटने की कोशिश की है। रोज़मर्रा के जीवन के कठिन अनुभवों को कविताओं में पिरोया हैं। संतोष जी ने अपनी लघुकथाओं में जिस प्रकार विडम्बनाओं पर प्रहार किए हैं वैसे ही प्रहार इस संग्रह की रचनाओं में भी किए हैं। संग्रह की कविताएँ आम आदमी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। "नक्कारखाने की उम्मीदें" कविता संग्रह की रचनाएँ ठहरकर सोचने के लिए विवश करती हैं। इस संकलन में 60 छोटी-बड़ी कविताएँ संकलित हैं। इस संकलन की कविताएँ गद्य शैली में लिखी गई हैं लेकिन इन कविताओं में वह रवानी वह बहाव है जो दिल को छू लेती हैं। संप्रेषणीयता के स्तर पर संतोष जी की कविताएँ खरी उतरी हैं। श्री संतोष सुपेकर का दृष्टिफलक विस्तृत है। इनकी रचनाओं में व्याप्त स्वाभाविकता, सजीवता और मार्मिकता पाठकों के मन-मस्तिष्क में गहरा प्रभाव छोड़ने में सक्षम है। आशा है कि श्री संतोष सुपेकर के इस कविता संग्रह "नक्कारखाने की उम्मीदें" का हिन्दी साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा। 

दीपक गिरकर
समीक्षक
28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,
इंदौर- 452016
मोबाइल : 9425067036
मेल आईडी : deepakgirkar2016@gmail.com

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