आकर्षण

विकास वर्मा

मैं और तुम!
खड़े हैं आमने-सामने, दो विपरीत बिन्दुओं पर,
दो अलग-अलग छोरों पर....

 

तुम्हारी आँखों में है ज़िन्दगी की चमक,
मेरी आँखों में है सूनेपन की उदासी,
तुम्हारे चेहरे के नूर में नज़र आती है ज़िन्दगी की ख़ुशनुमा रंगत,
मेरे चेहरे से टपकती है बेनूर वीरानी,
तुम्हारी हँसी की खनक से घुल जाती है फ़िज़ाओं में मिसरी-सी,
मेरी आवाज़ गुम होती जाती है ख़ामोशियों की धुन्ध में....

 

मैं और तुम! हम दोनों ही खड़े हैं दो विपरीत बिन्दुओं पर,
न मिल सकें जो, ऐसे दो विपरीत छोरों पर...

 

लेकिन...... 
कुछ है जो खींचता है मुझे तुम्हारी तरफ़ लगातार,
जोड़ता है मेरी रूह को तुम्हारी रूह से,
ख़त्म कर देना चाहता है यह अंतराल,
और... 
कर देना चाहता है मुझे फ़ना तुम्हारे आग़ोश में....

 

क्या विपरीत का आकर्षण इसे ही कहते हैं.....??

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