आधी ज़मीन आधा आसमान

15-05-2021

आधी ज़मीन आधा आसमान

मधुश्री (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

अनिकेत कॉलेज जाने की तैयारी कर रहा था। वैसे तो वह रोज़ सुबह छह बजे उठ जाता था, माता का आदेश था रोज़ सुबह उठ कर थोड़ा प्रभु नाम, थोड़ा व्यायाम फिर अपनी दिनचर्या शुरू किया कर। आज आँख नहीं खुली, खुली तो फोन की घंटी से, देखा तो माता का फोन था– 

"हैलो माता नमस्ते कैसी हो आप? आज सुबह-सुबह सब ठीक तो है ना?"

"हाँ, हाँ सब ठीक है तू कैसा है चंदा? तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है?"

"ठीक हूँ माता अब तो फ़ाइनल ईयर है बस फिर तेरा चंदा तेरे पास होगा।" 

"हाँ बेटा मालिक की मेहर रही तो।" 

फोन बीच में ही कट गया। अनिकेत अपने रोज़मर्रा के कामों में लग गया कॉलेज भी समय पर पहुँचना था परन्तु मन कुछ अनमना हो गया जैसे माँ की बात अधूरी रह गई थी। सोचा, चलो शाम को कॉलेज से आकर ठीक से बात करूँगा। यही सोचकर कॉलेज चला गया परन्तु वहाँ भी मन नहीं लगा, तीन पीरियड थे किन्तु दो अटेंड कर के ही कमरे पर आ गया। कहीं कुछ छूट गया था जो बैचैन कर रहा था। माँ को फोन किया घंटी बजती रही कोई उत्तर नहीं आया, घबराहट होने लगी अब मन नहीं लग सकता था।

माता ने इतनी दूर पढ़ने भेज दिया था, साल में एक बार घर आने का आदेश था, किन्तु आज मन किसी भी आदेश को मानने को तैयार नहीं था। 

यूँ तो हमीरपुर से सुजानपुर ज़्यादा दूर नहीं था होगा यही पच्चीस, तीस किलोमीटर, बस से आना-जाना होता था और इसके लिए मारा-मारी भी बहुत होती थी। सुजानपुर में सैनिक स्कूल में पढ़ाई पूरी करने के बाद माता ने हमीरपुर इंजीनियरिग कॉलेज भेज कर अनिकेत को उड़ने के लिए पंख दे दिए थे। बस में बैठ कर बचपन की यादों के हिंडोले में झूलता हुआ कब सो गया पता नहीं चला। 

"अरे भई उठो सुजानपुर टीहरा आ गया, चलो उतरो जल्दी, जल्दी।" कंडक्टर की आवाज़ से अचानक आँख खुल गई। बस से उतर कर पैदल ही चल दिया। आज तो घर तक का रास्ता भी लंबा लग रहा था। सड़कों की हालत पहले से भी ज़्यादा बदत्तर हो गई थी अनिकेत मन ही मन स्थानीय प्रशासन पर झुँझला रहा था। किसी तरह घर पहुँचा दरवाज़े पर ताला लगा देख कर चौंक गया। पड़ोस से एक आदमी बाहर निकल कर आया चुपचाप उसके हाथ में चाबी थमा कर दरवाज़ा बंद कर लिया मन में कौतूहल था माता कहाँ चली गई सुबह-सुबह उसे पता भी तो नहीं था कि मैं आ रहा हूँ। कोई बात नहीं आज तो माता को सरप्राइज़ ही सही। डाँट ही तो लेगी कोई बात नहीं डाँट खा लूँगा।

ताला खोल कर देखा सारे कमरे में धूप फैली हुई थी, खिड़की से आती हुई सूरज की किरणें जैसे उसका स्वागत कर रहीं हों। माँ की तस्वीर सामने रखी थी बहुत पुरानी थी एक बार ज़िद करके उसने ही खिंचवाई थी। पलंग पर लेट कर माता की प्रतीक्षा करने लगा, तभी देखा तस्वीर के पास कुछ पन्ने मुड़े-तुड़े किन्तु बड़े तरतीब से रखे हैं। अनिकेत ने जिज्ञासावश उठा कर देखना चाहा तो देखा ये तो उसी के नाम माता का पत्र है। 

"मेरे चंदा,

मैं जानती थी कि तू आएगा क्योंकि तुझसे ज़्यादा मैं तुझे जानती हूँ– माँ हूँ न तेरी। अब जो मैं तुझे बताने जा रही हूँ, इसके लिए मैं तेरी गुनाहगार हूँ क्योंकि मैंने दिल के एक अँधेरे कोने को तुझसे छुपा कर रखा, उसका दरवाज़ा तेरे लिए बंद रखा, मैं ख़तावार हूँ; मुझे माफ़ कर देना बेटा। 

आज से पचास साल पहले अपने अतीत में ले चलती हूँ। दिल्ली के मध्यम वर्गीय पढ़े-लिखे परिवार में मेरा जन्म हुआ था। पिता छोटी सी कंपनी में नौकरी करते थे। हम तीन भाई बहन थे। मुझसे बड़ी एक बहन थी और भाई मुझसे छोटा था। माता-पिता की छाया में हम तीनों भाई-बहन बहुत ख़ुश थे। तीनों भाई-बहनों में मैं पढ़ने में बहुत होशियार थी। सब मुझे बहुत प्यार करते थे, लेकिन समय की चाल ऐसी बदली कि अचानक मेरे जीवन में तूफ़ान आ गया। मैं वो फूल थी जिसको स्वयं माली ने ही अपनी बगिया से दूर कर दिया। तब मैं बच्ची थी मैं नहीं जान पाई कि मेरी क्या ग़लती है, बहुत रोई, मुझे ध्यान है मेरी माँ तो रोते-रोते बेहोश हो गई थी। भाई मेरा दहाड़ें मार-मार कर रो रहा था और दीदी, वो सहमी हुई बुत बनी खड़ी थी। एक मेरा माली ही था जो पत्थर दिल हो गया था। मुझे अजनबी लोगों के हवाले कर दिया गया था। ऐसे ही जैसे कोई अपनी पौध को बचाने के लिए खरपतवार को उखाड़ कर दूर फेंक देता है। मैंने सोचा मेरे पिता ने मुझे बेच दिया है, किन्तु ये वो सच्चाई है जिससे मैं भी अनजान थी। जो मैं बहुत बाद में जान पाई कि मेरा क़ुसूर क्या है, जो मैंने किया ही नहीं और जिसकी सज़ा मुझे मिली है। मैं उन लोगों के हवाले कर दी गई थी जो नाचने-गाने का काम करते थे। तक़दीर के इस मज़ाक को मैंने स्वीकार कर लिया था। वहीं पर मेरी ही उम्र की एक और लड़की थी, उससे मिल कर ऐसा लगा कि जो मेरे साथ हुआ है वही उसके साथ भी हुआ था। हम दोनों को विधाता ने धरती पर तो भेज दिया किन्तु पूर्ण किए बग़ैर। शायद वो भूल गया जैसे खिलौने बनाने वाला किसी खिलौने को बनाते समय आकार देने में ग़लती कर बैठता है; किसी का कोई न कोई अंग कुरूप बना देता है या कोई अंग लगाना भूल जाता है। मैं तो देखने में सुंदर थी किन्तु तुझसे क्या कहूँ!

ख़ैर उस दूसरी लड़की का नाम कुक्कू था। मेरा स्कूल का तथा घर का नाम गायत्री था। जिन लोगों के साथ मुझे रहना था उन्होंने मेरा नाम भी मेरे जीवन की तरह बदल दिया था, मुझे गायत्री से गातो बना दिया गया था। कुक्कू और मैं एक ही डाल के पंछी थे मगर उड़ना चाह कर भी नहीं उड़ सकते थे। साल-दर-साल बीतते गए गाना-बजाना और लाल बत्ती पर खड़े होकर हाथ फैलाना बस यही जीवन था। किन्तु घर की याद वैसी ही थी जो मुझे रोज़ रात को सर्प के दंश की तरह डसने चली आती थी। वही दिन वही रात ऐसे ही ज़िन्दगी चल रही थी। एक दिन रात को अपने साथियों के साथ अपने डेरे पर लौट रही थी तभी किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आई। इधर-उधर देखा कुछ दिखाई नहीं दिया अँधेरा जो था आस-पास, मेरे सभी साथी आगे निकल गए परन्तु मेरा मन अटक गया। मैं फिर लौटकर वहीं गई देखा तो कूड़े के कंटेनर के पीछे एक नन्हा जाया कपड़े में लिपटा ज़ोर-ज़ोर से रो रहा है। बहुत देर तक खींच-तान में उलझी रही क्या करूँ क्या न करूँ। मुझे उस दिन महसूस हुआ कि मेरे भीतर किसी कोने में ममता नाम की चोरनी छुप कर बैठी हुई थी। मैं तुझे अपने आँचल में छुपा कर घर ले आयी। घर लाकर डरते-डरते सब साथियों को दिखाया, सब ख़ुश थे कुछ दिन तक सब कुछ ठीक चलता रहा। हमारे मुखिया ने भी कुछ नहीं कहा बहुत ख़ुश हुआ और मैं भी ख़ुश, मुझे तो जैसे अमृत घट मिल गया था जिसकी एक बूँद ही मुझे जिलाए रखने के लिए काफ़ी थी। कुछ ही दिन बीते थे एक दिन कुक्कू ने कहा, " गातो तू यहाँ से चली जा!"

मैंने पूछा, "क्यों, क्या हुआ, कहाँ जाऊँ मैं? मेरा तो घर भी छीन लिया गया।"

कुक्कू ने बताया, "नहीं, नहीं तू इस बच्चे को या तो इनके हवाले कर दे या कहीं चली जा, मैंने सुना है ये लोग बात कर रहे थे, इस बच्चे को अंग-भंग करके अपनी तरह बनाना चाहते हैं। अपनी बिरादरी में शामिल करना चाहते हैं। इसीलिए कह रही हूँ बच्चे को लेकर कहीं चली जा।"

मुझ पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा था। गाज ऐसी गिरी कि एक पल में सब बदल गया। अपनी क़िस्मत मान कर जिस घर को मैंने अपना लिया था आज वही घर मुझे क़ैदख़ाना लगने लगा था। एक बार फिर घर छूट रहा था मुझसे लेकिन संतोष था कि चलो इस बार मैंने कुछ किया है जिसकी मुझे सज़ा मिल रही है और इस सज़ा को भुगतने के लिए मैं ख़ुशी-ख़ुशी तैयार थी। एक रात अँधेरे में तुझे लेकर मैं नए सफ़र पर निकल पड़ी, जिस गाड़ी में बैठी थी मुझे नहीं पता था वो मुझे कहाँ ले जाएगी। उस रात के सफ़र ने मुझे अपनी ज़मीन से बहुत दूर कर दिया था और मैं कभी रेल कभी बस में धक्के खाती रही, अब मैं जिस ज़मीन पर खड़ी थी उसका नाम था सुजानपुर टीहरा था। 

अजनबी लोग अजनबी जगह के बीच मैं अपनी पहचान छुपाए इधर-उधर भटकती रही। हर क़दम पर समय मेरा इम्तहान ले रहा था और मैं अपनी मंज़िल तलाश रही थी। 

ठोकर खाती रही किन्तु मैं भीख माँग कर नहीं जीना चाहती थी। काम की तलाश में भटकती रही, और काम मिला भी एक होटल में बरतन और सफ़ाई का। 

बेटे तेरे ही भाग्य से एक दिन उस होटल में एक सेठ और सेठानी आए। मैं नहीं जानती कि उनको मुझ पर दया आई या मेरी गोद में तुझ नन्हे को देख कर उनका दिल पसीज गया, वरना मेरी जात, मेरी बिरादरी से तो सभी नफ़रत करते हैं। उस घर में मुझे खाना बनाने का काम मिल गया, मुझ डूबते को तिनका तो नहीं कहूँगी हाँ मुझे तो संभावनाओं से भरी एक नाव मिल गई थी जिसने मेरा सफ़र आसान कर दिया था। ज़िन्दगी के इस नए परिवर्तन से मैं बहुत ख़ुश थी। 
सेठानी जिनको मैं बाई जी कहती थी उनसे मेरा अवश्य ही कोई पिछले जनम का नाता रहा होगा। 

ज़िन्दगी के इस मोड़ ने मुझे अपने पर गौरवान्वित होना सिखाया। अब तक जितनी उपेक्षित, और तिरस्कृत जीवन की कुंठा मन में पल कर वट वृक्ष बन कर खड़ी हो गई थी, कुछ दिन में सूख कर धराशाही हो गई। तूने मुझे माँ के सिंहासन पर बैठा दिया, बेटा तू मेरे जीवन में फ़रिश्ता बन कर आया था। धीरे-धीरे साल-दर-साल बीतते गए, मैं नहीं पढ़ पाईं थी मुझे तक़दीर और वक़्त ने नहीं पढ़ने दिया; मैंने तुझे पढ़ा कर अपनी वह तृष्णा शांत कर ली। मैं इसके लिए भी तेरी शुक्रगुज़ार हूँ।"

अनिकेत पढ़ते-पढ़ते कब तक सिसकियाँ भरता रहा, उसको नहीं पता, हृदय सीना चीर कर बाहर निकलना चाहता था तो दहाड़ मार कर रोने लगा। उसका हृदय स्वीकार नहीं करना चाहता था कि जिसकी गोद में पल कर वो आज आसमान छूने चला था वो समाज के द्वारा उपेक्षित बिरादरी का हिस्सा है। 

"नहीं . . . नहीं वो तो माँ है मेरी . . ."

अनिकेत ने अपने आप को सँभाला वह रुक नहीं सकता था फिर पढ़ना शुरू किया ज़िन्दगी की इस किताब का एक-एक पन्ना उसके लिए नई कहानी लिख रहा था। वो भी तो किसी की उपेक्षा का शिकार था जिसने उसे मरने के लिए छोड़ दिया था। वह फिर माँ-माँ कहता हुआ फूट-फूट कर रोने लगा। 

"मैं जानती हूँ तुझे यह सब स्वीकार करना बहुत मुश्किल हो रहा होगा किन्तु मेरे बच्चे जीवन की सच्चाइयाँ जिनसे तक़दीर हमें रू-ब-रू कराती है वो मीठी हो या कड़वी हमें दोनों को स्वीकारना होता है, यही तो जीवन है। 

तुझको जो मैंने बाहर आगे पढ़ने के लिए भेजा तो अपने सीने पर पत्थर रख कर भेजा था; वही सीने का पत्थर मेरे भीतर धँसता रहा और मुझे धीरे-धीरे ख़त्म करता रहा।"

अनिकेत को ध्यान आया एक बार वह छुट्टियों में घर आया था तो माता को बहुत कमज़ोर पाया था परन्तु काम पर बराबर जाती थी इसलिए ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। 

अनिकेत ने अपनी माँ से पूछा था, "माता तुम मेरे पीछे खाना नहीं खाती हो क्या?"

गायत्री ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया था, "क्यों नहीं खाती! खाना नहीं खाऊँगी तो काम कैसे करूँगी।"

अनिकेत को तसल्ली नहीं हुई, "मुझे ऐसा लग रहा है, रात भी शायद तुम ठीक से सोई नहीं हो। कोई तकलीफ़ हो तो बताती क्यों नहीं हो? कल डॉक्टर को दिखाने चलना, फिर मैं चला जाऊँगा तो फिर तुम कुछ नहीं करोगी।"

गायत्री ने बात को टाला, "अरे नहीं मैं ठीक हूँ, कुछ होगा तो बाई जी हैं ना, मैं उनको बता दूँगी वो किसी डॉक्टर को दिखा देंगी, तू बिल्कुल चिंता न कर।"

इतना कहकर माता ने टाल दिया और बात वहीं ख़त्म हो गयी। उसने सोचा मैं भी वहाँ जाकर भूल गया और अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया। आज इसे महसूस हो रहा था "आने दो माता को अब की बार तो उन्हें ज़रूर डॉक्टर के पास लेकर जाऊँगा " मन में अजीब से विचार आने लगे उन्हें झटक कर फिर पत्र पर आँखें गड़ा दीं। 

"अब तो मेरे चंदा एक ही इच्छा है कि तू पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बन जाए। बेशक तू मेरा ज़िक्र किसी से न करना मगर तेरे दिल के किसी कोने में मेरी मौजूदगी हमेशा बनी रहेगी। मैंने तुझे पैदा तो नहीं किया ना ही कुदरत ने मुझे इस योग्य छोड़ा है, किन्तु बेटा तूने मेरे जीवन में आकर मुझे जो दिया उस सुख, उस आनंद का बदला मैं कई जन्मों तक नहीं उतार पाऊँगी। तुम हमेशा खुश रहो। इतना भी नहीं कह सकती कि मेरी उमर तुम्हे लग जाए।"

अब अनिकेत के सब्र का बाँध टूट रहा था, ये क्या हो रहा है? मुझे चल कर बाई जी से पूछना पड़ेगा और जैसे ही वह चलने को खड़ा हुआ घर के अंदर दो लोगों ने प्रवेश किया। उसने पूछा कौन हैं आप लोग? माता घर में नहीं है, इतना सुन कर एक जो दीखने में महिला थी फूट-फूट कर रोने लगी। 

"हाय! हाय! गातो तू कहाँ चली गई?" कौन किसके लिए विलाप कर रहा था ये नियति खूब समझ रही थी किन्तु अनिकेत ही नहीं समझ पा रहा था, कहने लगा – 

"कहाँ है मेरी माता ?"

कुक्कू बोली, "मेरा नाम कुक्कू है, तेरी माँ की सहेली। तेरी माँ हम सब को छोड़ कर चली गई अब वो कभी नहीं आएगी।"

अनिकेत समझा नहीं, "ये क्या कह रही हैं आप। कल ही तो मेरी उनसे बात हुई थी। मुझे जल्दी बताइए क्या हुआ है? कहाँ हैं वो मुझे उनके पास ले चलिए।" 

कुक्कू ने समझाते हुए कहा, "तेरी माँ को फेफड़े की बीमारी थी। किसी को नहीं बताया, मुझे भी नहीं। कई साल से बीमार थी बस एक सनक थी कि मेरे बेटे को मत बताना। पढ़ाई छोड़ कर चला आएगा। मुझे भी कुछ दिन पहले बताया था, अचानक मुझे दो दिन पहले ख़बर दी तुरंत बुलाया था। यहाँ आकर देखा तो कुछ क्षण की मेहमान थी, उसने मुझसे कहा था मेरे मरने के बाद मेरा क्रिया कर्म मेरे बच्चे के आने से पहले कर देना। मैं नहीं चाहती कि अगले जनम में भी मैं अधूरी औरत बनूँ। मुझे जीने के लिए पूरा आसमान चाहिए, कहने लगी अगर वो मेरे मुर्दे को देख लेगा तो फिर मुझे अगले जनम में भी किन्नर बनना पड़ेगा। इतना कह कर उसने दुनिया छोड़ दी। जैसी प्रथा है– हमने उसे रात को दफ़ना दिया। मैं मजबूर थी; हमारे समाज की प्रथा है हमारी मिट्टी को यदि कोई देख लेगा तो हमें फिर यही शरीर मिलेगा। अब तू बता मैंने इसमें कोई ग़लती तो नहीं की? बेटा अब तो तू उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर। हो सकता है उसकी मुराद पूरी हो जाए और अगले जनम में तू उसकी कोख से पैदा हो।"

इतना कह कर कुक्कू फूट-फूट कर रोने लगी अनिकेत कुक्कू के सीने से लिपट गया जैसे उसकी माता का दिल इस छाती में धड़कता मिल जाएगा। 

"सब्र कर बेटा! उस बदनसीब की मुराद पूरी हो यही प्रार्थना कर।" 

इतना कहकर कुक्कू ने अनिकेत को अपने सीने में छिपा लिया। 

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