आब-दाना

01-10-2021

आब-दाना

दीपक शर्मा (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

“सरकार, चाय?” दरवाज़े पर दस्तक के साथ आवाज़ आई।

उषा ने मोबाइल की घड़ी पर नज़र दौड़ाई।

सुबह के पाँच बजे थे।

“चाय, सरकार?” दरवाज़े पर दोबारा दस्तक हुई।

बिस्तर से उषा ने चिल्लाना चाहा किन्तु अपनी आवाज़ को बचा कर रखना उसके लिए ज़रूरी था। 

डॉक्टर ने उसके गले की ख़राबी को गंभीर बताया था, "यू हैव अ टीचर्स थ्रोट, मिसेज त्रिपाठी। आपका लैरिंक्स बहुत नाज़ुक हालत में जा पहुँचा है। ऑब्ज़र्व वॉयस रेस्ट ऐज़ मच यू कैन (जहाँ तक हो सके आवाज़ को आराम दीजिए)।"

“चाय?” दरवाज़े पर तीसरी बार दस्तक हुई।

दरवाज़ा खोलने पर उषा ने एक अजनबी लड़के को सामने पाया। ख़ाली हाथ।

लड़के ने उसे देखते ही उसके पैर छुए और बोला, “हम रामरिख हैं, सरकार . . .  बँगले के रसोइया . . . ”

तो क्या यही वह रामरिख था जो पिछली रात रसोई की चाभी अपनी जेब में धरे-धरे रात भर के लिए लोप हो गया था? और उषा को भूखा सोना पड़ा था?

“क्या बात है?” ऊषा का स्वर चढ़ आया।

“हम पूछने आये थे, सरकार, आप कैसी चाय लेती हैं? दूध-शक्कर मिली तैयार चाय? या फिर टी-सेट वाली?”

“साहब कैसी चाय लेते हैं?” झल्लाहट दबाकर उषा ने अपना स्वर नरम व संतुलित किया।

“टी-सेट वाली, सरकार . . . ”

पति को ज़िले की पहली कलेक्टरी कस्बापुर में मिली थी। उनकी शादी के चौथे माह। इसी सप्ताह। जिन दिनों उसके कॉलेज में यूथ फ़ेस्टिवल चल रहा था। उसकी निगरानी में और उसके लिए छुट्टी लेना असंभव रहा था। ऐसे में पति मंगल के दिन कस्बापुर अकेले चले गए थे। केवल आवश्यक निजी सामान के साथ। यह मान कर कि दो-एक सप्ताह ज़िले में पूरी हाज़िरी देने के बाद वह लखनऊ का दौरा बना उषा के साथ घर-बदली के विषय में निश्चित रूप से निर्णय ले लेंगे।

किन्तु जैसे ही शनिवार आया था, उषा कस्बापुर के लिए चल दी थी। बिना पति को सूचना दिए। सोचा वहाँ पहुँच कर उन्हें चौंका देगी।

और सात घंटे की लंबी यात्रा के बाद जब रात के दस बजे टैक्सी से उनके बँगले पर पहुँची थी तो उसी को चौंकना पड़ा था।

पति अपने मंडलायुक्त के साथ ज़िले के दूरस्थ किसी तहसील के ’मुआयने’ पर निकले हुए थे और अगले दिन दोपहर में जब उन्हें लौटना भी था तो मंडलायुक्त एवं उनकी पलटन के साथ। और सभी को लंच इसी बँगले पर दिया जाना था। ज़िले के अन्य उच्चाधिकारियों की संगति में।

“सरकार, हमें मना मत करिएगा,” उषा अपने सूटकेस से अपना टॉयलेट बैग अभी निकाल ही रही थी कि एक स्त्री ने उसके पैर आन पकड़े, “हम आप की ही सेवा में आयी हैं . . . ”

स्त्री देहातिन एक नवयौवना थी। ख़ूब बनी-ठनी और हट्टी-कट्टी . . . ।

“कौन हो आप?” उषा उसकी ओर मुड़ ली।

“हम रेवती हैं, सरकार। रामरिख की घरवाली। हम आपके पैर दबायेंगी, आपकी मालिश करेंगी, चाहेंगी तो पाउडर की और चाहेंगी तो जैतून के तेल की . . . ”

“मुझे इन सब की आदत नहीं,” उषा झल्लाई, “आप जाओ। मुझे अभी नहाना है और कमरा बंद रखना है . . . ”

“लेकिन नहाएँगी कैसे?” रेवती खिलखिलाई, “पानी की मोटर ख़राब चल रही है और ऊपर वाली टंकी में एक बाल्टी पानी भी मुश्किल से होगा . . . ” और बिना किसी आभास के मेज़ पर रखी एक घंटी जा बजायी।

तत्काल रामरिख आन प्रकट हुआ, “जी सरकार . . . ”

“घंटी तो हम बजायी रही,” रामरिख की पत्नी हँसी।

“बँगले पर इस समय कोई दूसरा आदमी ड्यूटी पर नहीं?” उषा को रामरिख तनिक न भाया था।

“नहीं सरकार। इस समय हमीं दो रहते हैं। हम साहब का चाय-नाश्ता तैयार करते हैं और हमारी रेवती साहब लोग की चाकरी में रहती है। . . . ”

“मुझे पीने का पानी चाहिए अभी,” उषा को प्यास ने घेर लिया, “आपके पास रसोई में फ़िल्टर है न?”

“मगर सरकार मोटर ख़राब पड़ी है और फ़िल्टर में पानी चढ़ नहीं रहा . . . ”

“मोटर कब से ख़राब है?”

“दो दिन से। अन्दर का उसका एक पाइप टूट गया है। मैकेनिक उसी को बाहर खींच निकालने में लगे हैं। . . . ”

“और साहब कैसा पानी पी रहे हैं?” उषा को पति की चिंता हो आयी।

“उनके लिए मिनरल वॉटर की बोतलें बाज़ार से मँगवाई जा रही हैं . . . ”

“तो वही दो बोतलें मेरे लिए ले आओ . . . ”

“नयी अभी मँगवानी होंगी, सरकार। इस समय जितनी इधर रहीं, वह दौरे में इस्तेमाल करने के लिए उनकी गाड़ी में रखवा दी गयीं . . . ”

“और जो चाय तुम ला रहे थे?”

उषा ने सोचा पानी से नहीं तो चाय से ही प्यास बुझा ली जाय।

“साहब वाली अंगरेजी पत्ती खत्म हो गयी है, सरकार। हम सोच रहे थे, बाजार खुले तो मँगवा ली जाएगी।”

“वैसे भी मेम साहब तो इस समय नहाने की सोच रही थीं। तुम पहले पालतू को क्यों नहीं बुला लेते? मेम साहिब के नहाने के वास्ते पाँच-सात बाल्टी हैण्ड पाइप से भर लाएगा।”

“ठीक है,” रामरिख ने कमरे से बाहर निकलने में फ़ुर्ती दिखाई, “सरकार, यदि चाय से पहले नहाना चाहती हैं तो मैं पालतू को ही देखता-खोजता हूँ।”

“पालतू क्या दूर रहता है?” उषा अधीर हो उठी। उसके मन में आया भी कि वह स्वयं रसोई जाए, और अपने लिए चाय बना लाए मगर रात के कपड़ों में उसे बाहर निकलना सही नहीं लगा।

“इसी परिसर में, मेम साहब हम लोग के क्वार्टर यहीं पीछे बाड़ी में ही तो बने हैं . . . ”

“फिर तुम जाकर अख़बार का पता करो,” उषा कमरे में रखे सोफ़े पर जा बैठी, “देखूँ आज के क्या समाचार हैं?”

“अखबार होली भैया का डिपार्टमेंट है, मेम साहिब। वही अखबार लाते-लिवाते हैं . . . ” रेवती ने उषा के क़दमों में आन आसन जमाया।

“होली भैया कौन?”

“हमारे जेठ जी हैं,” रेवती ने अपने दाँत निपोरे। झकाझक सफ़ेद दाँत।

“रामरिख के सगे भाई?” न चाहते हुए भी उषा उत्सुक हो आयी।

“जी मेम साहिब,” रेवती उषा के पैर सहलाने लगी। उन्हें हलके से दबाते हुए। थपथपाते हुए। उषा को रिझाने की चाह में। 

“होली भैया ही तो हमें आपके पास भेजिन हैं। बोले मेम साहिब अकेली नहीं रहनी चाहिए। साथ में औरत जात का रहना जरूरी है। हम पुरानी मेम साहिब की टहल भी तो करी है। उनके साहब जब भी दौरे पर जाते वह रात-दिन हमीं के साथ सोतीं-जागतीं, घूमतीं टहलतीं . . . ”

“वह तो मैं जानती हूँ, कस्बापुर के पुराने कलेक्टर उषा के पति के बैच-मेट ही थे। बच्चों की पढ़ाई के चक्कर में वह लोग उन्हें इधर लाए ही नहीं थे, उधर लखनऊ में उनके दादा-दादी के पास छोड़ आये थे। मगर तुम्हारे बच्चे तो यहीं होंगे, उन्हें तो तुम्हारी देखभाल की ज़रूरत रहती होगी . . . ”

“हम भी तो इधर आते समय अपनी बिटिया और मुन्ने को उनकी दादी के पास छोड़ आती हैं। वह तो हम से भी अच्छा उन्हें देखती-भालती हैं . . .  खिलाती-पिलाती हैं . . . ”

“तुम्हारे साथ रहती हैं?”

“हमारे साथ क्यों रहेंगी, मेम साहिब? उनके पास अपना क्वार्टर है। हमारे ससुर कलेक्टरेट में बड़े अर्दली हैं। पक्की सरकारी नौकरी पर। बड़ा रुआब है उनका। घर में भी और कलेक्ट्रेट में भी। मुलाकातियों को वही निपटाया करते हैं . . . ”

“पानी लाए हैं, सरकार” की घोषणा के साथ जभी एक लड़का कमरे में दाख़िल हुआ। रामरिख से मिलता-जुलता। मगर उम्र में उससे पाँच-छः वर्ष छोटा।

“तुम रामरिख के छोटे भाई हो?”

उषा की हँसी छूट गयी। कस्बापुर के इस कलेक्ट्रेट ने एक पूरे कुनबे को रोज़गार दिया था।

“जी मेम साहिब। यह हमारा देवर है, पलटू राम . . . ”

“अभी पहली बाल्टी लाए हैं, सरकार,” पलटू ने बाल्टी नीचे रखी और उषा के पैर आन छुए, ”चार बाल्टी और लाएँगे . . . ”

“नहीं पलटू राम, चार नहीं, तुम एक ही बाल्टी और लाओ। मेरे लिए दो बाल्टी काफ़ी रहेगी।”

सुव्यवस्थित होने की हड़बड़ी थी उषा को। रसोई को वह जल्दी ही अपनी देख-रेख में लेना चाहती थी। एक ओर हावी हो रही अपनी भूख उसे शांत करनी थी तो दूसरी ओर पति व उनके बॉस की लंच की तैयारी।

नहाने के बाद उषा अपने कमरे से बाहर निकल आयी।

सुबह का सात बज रहा था। और उषा को अभी तक चाय नहीं मिली थी। उधर लखनऊ में होती तो इस समय नाश्ता कर रही होती। कॉलेज में उस का दिन सात-पैंतालीस से शुरू हो जाता।

बाहर खुला आँगन था। उसे आता देख कर पलटू के साथ खड़े दूसरे दो अर्दली उसकी ओर बढ़ आये। उसके पैर छूने और अपना परिचय देने। रुलटू सफ़ाई कर्मचारी था और अवध-राम झाड़ू-पोंछा करता था।

“रामरिख रसोई में है?” उषा ने पलटू से पूछा।

“नहीं सरकार। उसे बाबूजी ने बाज़ार भेजा है। मुर्ग और गोश्त लाने। क्लब के बावर्ची के साथ . . . ”

“हम अपना काम शुरू करें?”

रुलटू और अवधराम ने लगभग एक साथ पूछा, “हाँ, हाँ, क्यों नहीं?” उषा उन्हीं के संग हो ली। इधर आते समय वह अपना सामान समेट कर नहीं आयी थी जिसे अब समेटना उसे ज़रूरी लगा।

कमरे में उसका मोबाइल बज रहा था। उधर उसके पति थे।

“लंच मैंने दफ़्तर के बड़े बाबू के सुपुर्द कर दिया है। वह सब देख लेंगे। मैन्यू से लेकर क्रॉकरी तक। तुम्हें आज अपनी छोटी उँगली तक ख़ाली रखनी है . . . ”

मेज़बानी का प्रत्येक अवसर उषा से अधिक उसके पति को चिंताग्रस्त कर दिया करता। अन्य सभी मामलों में उषा के विवेक पर भरोसा रखने वाले पति मेज़बानी अपने ही अधिकार में हमेशा रखा करते। कारण, उषा की संदेहात्मक पाक-विद्या। जो इन चार महीनों के उनके वैवाहिक जीवन में कई बार कलह के बीज बोती रही थी। इसीलिए पति अव्वल तो किसी को घर पर खिलाते नहीं– बाहर क्लब या होटल ले जाया करते– और यदि कभी खिलाना पड़ ही जाता तो "होम-डिलीवरी’ पर निर्भर करते, उषा पर नहीं।

“परोस तो सकती हूँ,” उषा ने पति को छेड़ा। जानती थी उसके परोसने से भी पति को सख़्त चिढ़ थी– मेहमानों की प्लेट में कुछ रखने से लेकर उनके सामने खाने का कटोरा तक ले जाने से। कहते, मेहमानों की पसंद-नापसंद में दख़ल देना उनकी आज़ादी पर हमला बोलना है।

“परोसोगी तो पाखंडी लगोगी।”

पति बिगड़ लिए, “सभी को मालूम जो रहेगा लंच कलेक्ट्रेट की तरफ़ से है और मेज़बान तुम नहीं, कलेक्ट्रेट है। बल्कि मैं तो यह भी कहूँगा लंच तक तुम रसोई उन्हीं लोगों के हवाले कर दो। वहाँ तुम जाओ भी नहीं। समझो तुम भी मेहमानों में से एक हो।”

“मुझे मेहमान बनाने के लिए शुक्रिया, मिस्टर कलेक्टर,” अपनी रुलाई दबाकर उषा हँस दी, “मगर ध्यान रहे आपकी यह मेहमान रात से भूखी भी है और प्यासी भी, और इस समय उसे आब-दाने की सख़्त ज़रूरत है।”

“सच क्या?” पति व्याकुल हो उठे, “अभी पता करता हूँ। रामरिख की ख़बर लेता हूँ . . . ”

निस्संदेह, उषा को जब भी पति के साथ किसी शासकीय समूह में सम्मिलित होना होता, पति उससे दूरी बना लिया करते, आपसी भेद दिखलाने लगते, उसे वह विशिष्टता नहीं लेने देते जिस पर वह अपना अधिकार मानती। किन्तु यह भी सच था कि वह उषा के प्रति गहरी सम्बद्धता रखते और उसका ध्यान रखने में कभी कोताही नहीं करते।

पति का फोन दस मिनट बाद आया, “रामरिख लंच की तैयारी में व्यस्त रहेगा। इस बीच एस.पी. अपनी पत्नी को तुम्हारे पास भेज रहे हैं। चाय-नाश्ते के साथ . . . ”

“पानी भी लाएँ,” उषा अधीर हुई।

“पानी का तुम बता देना। अभी मुझे बहुत काम है। तुम्हारा सेल-नंबर उन लोगों के पास पहुँच चुका है। दोनों अच्छे-भले लोग हैं। एस.पी. मुझसे एक बैच सीनियर है। और शादी उनकी दस महीने पुरानी है। पत्नी कानपुर में डॉक्टर हैं मगर इन दिनों, ’मैटरनिटी लीव’ पर इधर आई हुई हैं। तुम्हारे लिए जो भी लाएँगी, परमश्रेष्ठ होगा . . . ”

छठे ही मिनट उधर से फोन आया। एस.पी. की पत्नी का नाम वसुधा था और उषा के नाश्ते का उल्लेख औपचारिकताओं की अदला-बदली के बाद ही संभव हो पाया था।

“हमारे यहाँ आज इडली-डोसा बनने जा रहा है,” वसुधा ने पूछा, “आपके लिए नाश्ते में चलेगा?”

“अपनी पसंद चुनने का दूसरा विकल्प भी है क्या?” उषा नहीं चाहती थी कि उसके चाय-नाश्ते में अब अतिरिक्त विलम्ब हो। उसे डर था इडली-डोसा उसके पास पहुँचने में उसके धीरज की कड़ी परीक्षा ले लेगा।

“इडली-डोसा पसंद नहीं क्या?”

“पसंद है। बहुत पसंद है। लेकिन इधर मेरा हाज़मा बहुत कमज़ोर चल रहा है। मेरे पेट का मिज़ाज उड़द और अरहर से मेल नहीं खा रहा . . . ”

“फिर किस से मेल खायेगा?”

उधर से हँसी छोड़ी गयी। मीठी मगर नीति कुशल।

“कुछ भी, जो हल्का रहे और जिसे तैयार करने में आपके रसोइये को सुविधा रहे . . . ”

“ठीक है, मैं उसी से आपकी बात करवा देती हूँ . . . ”

“धन्यवाद,” उषा को लगा वह शीशा देख रही थी। उसे मालूम था वसुधा के स्थान पर वह भी इस स्थिति में हूबहू ऐसा ही करती। खाने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने के बजाय रसोइये ही के कन्धों पर अंतरित कर देती।

रसोइये का फोन एस.पी. के बँगले की लैंड लाइन से आया।

कलेक्ट्रेट की लैंड लाइन पर।

लगभग आधे घंटे बाद। जिस बीच उषा अपने को ख़ूब कोसती रही थी। क्यों उसने इडली-डोसे को सहर्ष स्वीकार नहीं किया था?

“आपके नाश्ते के बारे में पूछना था सरकार . . . ”

“तुम क्या क्या बना सकते हो?”

“आप आज्ञा दें सरकार। पराँठा सेंक दें, टोस्ट और आमलेट खायें तो अंडे-डबलरोटी मँगवा लें, दलिया लेने का मन हो तो . . . ”

“दलिया ठीक रहेगा,” उषा अब इस दौड़ा-दौड़ी से बाहर आना चाहती थी। वैसे भी वह शाकाहारी थी और अण्डों से उसे सख़्त परहेज़ था।

“दलिया नमकीन रहेगा, सरकार? या फिर मीठा?”

“नमकीन जभी बनाना जब उधर दही हो वरना दूध वाला दलिया रख लो . . . ”

“जी, सरकार।”

“मुझे चाय भी चाहिए।”

“चाय आप कैसी लेती हैं, सरकार? दूध-शक्कर के बिना वाली? या फिर अदरक चीनी वाली?”

“कैसी भी। मगर फ़िल्टर वाला पानी मुझे ज़रूर चाहिए। कम-अज-कम दो बोतलें तो ज़रूर ही . . . ”

“जी, सरकार . . . ”

कहना न होगा लंच से कुछ ही क्षण पहले पति से उषा की अंततः जब भेंट हुई तो उस के पेट के साथ-साथ उसका मिज़ाज भी बिगड़ चुका था। भुखमरी की प्रहारित अवस्था के कारण।

वसुधा की ’नाज़ुक’ अवस्थिति ने उसे अपने ही घर में रोके रखा था और उसके ’सौजन्य’ से जो सामान इधर आया भी था, उसके दलिए में चीनी की मात्रा इतनी अधिक रही थी कि उषा के लिए उसका दूसरा कौर लेना असंभव रहा था। चाय भी उसे एक घूँट के बाद छोड़नी पड़ी थी। अदरक ने उसे कड़वा बना रखा था। वसुधा से पानी का उल्लेख करने में उषा स्वयं तो चूकी ही थी, उनका रसोइया भी चूक गया था।

“कलेक्टरी की मौज देखी? रसोई में तुम्हारे झाँके बिना तुम्हारी मेज़ पर दस पकवान आन सजे हैं। तुम्हारी झलक व मंज़ूरी पाने की ललक लिए,” पति ने आनंद विभोर संघ-भाव से उषा को तदनन्तर अपनी आमोद-यात्रा में थिरकाने का जो प्रयास भी किया था वह भी उसे थिराने में असफल रहा था।

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