21वीं शती में हिंदी उपन्यास और नारी विमर्श : श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री के विशेष संदर्भ में

15-10-2020

21वीं शती में हिंदी उपन्यास और नारी विमर्श : श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री के विशेष संदर्भ में

डॉ. पद्मावती (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

उपन्यास आधुनिक हिंदी साहित्य का जीवंत रूप है। सामयिक जीवन की बहमुखी विविधता और जटिलताओं का समग्र चित्रण करने में इसने अद्भुत सफलता पाई है। विशाल फलक पर मानव मन की छोटी से छोटी सम्वेदनाओं और आकांक्षाओं को भली-भाँति व्यक्त करने की सम्भावनाओं से सम्पृक्त इस विधा ने समकालीन समस्याओं और सरोकारों से पाठकों को अवगत कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उपन्यास केवल मनोरंजन का साधन मात्र ही नहीं, बल्कि युगीन चेतना को सम्प्रेषित करने का सशक्त उपकरण है। साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। वह समाज से दिशा ग्रहण करता है और समाज को दिशा प्रदान करता है। इस दृष्टि से साहित्यकार की रचनाप्रक्रिया सामाजिक गतिविधियों से संचालित होती है। स्वतंत्रता पूर्व उपन्यास लेखन में नारी की उपस्थिति नगण्यप्रायः थी। इस क्षेत्र में पुरुष का आधिपत्य था। लेकिन स्वातंत्रोत्तर काल में स्त्री लेखन की सुदीर्घ परम्परा पाई जाती है। नवजागरण के फलस्वरूप नारी की चेतना जागृत हो गई थी। उसने अपने ऊपर हो रहे शोषण को पहचाना और प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उसका प्रतिकार करना भी आरम्भ कर दिया था। लेकिन अब भी कुछ बिंदु थे जो अनुत्तरित थे। नारी इन प्रश्नों को सुलझाने के लिए बैचेन हो उठी। पुरुष नारी के स्वभाव का दृष्टा मात्र हो सकता है, उसकी लेखनी भोगे हुए यथार्थ का वर्णन नहीं कर सकती। इसीलिए नारी लेखन अपने जीवन की सच्चाइयों को साहित्य में सटीक रूप से व्याख्यायित करने लगा जो अपने आप में एक नवीन उपलब्धि थी। इन महिला लेखिकाओं ने समकालीन नारी विषयक समस्याओं, विषमताओं पर अपनी धारदार क़लम चलाई है। इनका रचनात्मक बोध नवीन मूल्यों को लेकर चला है। इन लेखिकाओं ने पुरुषवर्चस्ववादी दमनकारी नीतियों की खुलकर भर्त्सना की है। इसी युगीन चेतना के सत्य को सशाक्त रूप से प्रस्तुत करने वाली लेखिका हैं श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री जी जिनका सम्पूर्ण जीवन शोषण और संघर्ष के बीच गुज़रा था। 

श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री- व्यक्ति और रचनाकार —

श्रीमती कृष्णा जी का जन्म 8 अक्तूबर 1934 में राजस्थान स्थित नसीराबाद में हुआ था। पिता के अनुशासनप्रिय व्यक्तित्व और माता की भावुकता का सम्मिश्रित प्रभाव उनके बाल्य-मन पर पड़ा। घर का वातावरण आध्यात्मिक होने के कारण इन्होंने बचपन में ही पौराणिक ग्रंथ रामायण, गीता पढ़ डाले थे। बाल्य काल से ही साहित्य लेखन के प्रति इनका रुझान था। प्रेमचंद, यशपाल, रवींद्रनाथ टैगौर, शरतचंद्र, के साहित्य ने इन्हें प्रभावित किया था। नौ वर्ष की आयु में इनकी लिखी कविता ‘बाल विनोद’ नामक पत्रिका में छपी जिस पर इन्हें पच्चीस रुपये पारिश्रामिक भी मिला था। चौदह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह श्री सत्यदेव अग्निहोत्री आई.पी.एस. से सम्पन्न हुआ था। इनका वैवाहिक जीवन असफल रहा जो हमेशा संघर्ष और चुनौतियों से जूझता रहा। पति इन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ रहे थे। पारिवारिक शोषण, घरेलू हिंसा, आत्महंता परिस्थितियों ने कृष्णाजी के मनोबल को और भी दृढ़ बना दिया। उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा उच्च शिक्षा प्राप्त करने में लगा दी। एम.ए. हिंदी, एम.ए. अंग्रेज़ी, और पीएच.डी. की शिक्षा व्यक्तिगत रूप से प्राप्त की। प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच इनकी दबी हुई साहित्यिक प्रतिभा भी उभरने लगी थी। व्यक्तिगत जीवन के दुखः, प्रताड़ना, घुटन, संघर्ष और विद्रोह उनकी लेखनी में स्थान पाने लगे। भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति के कारण उनकी रचनाओं में तीखापन आ गया था। नारी का अभिशप्त जीवन और उसकी अस्मिता की तलाश, संघर्ष और विद्रोह, उसकी अंतहीन लड़ाई और कभी भी हार न मानने वाली अदम्य जिजीविषा उनके साहित्य में रूपायित होने लगा। 

कृष्णा जी का रचना संसार—

कहानी संग्रह –
टीन के घेरे-वर्ष –(1961) कृष्णा ब्रदर्स, गांधी मार्ग, अजमेर। 
विरासत – कृष्णा ब्रदर्स, गांधी मार्ग, अजमेर।
जिंदा आदमी – अम्बार रोड दरिया गंज, दिल्ली।
जै सिया राम – अम्बार रोड दरिया गंज, दिल्ली। 
नपुंसक – इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली।
याही बनारसी रंगवा – पराग प्रकाशन, दिल्ली।
दूसरी औरत – आयाम प्रकाशन, दिल्ली।
गलियारे – अनादि प्रकाशन, इलाहाबाद।
पारस – कालिदास प्रकाशन, उज्जैन।
सर्प दंश – (1996) पंचशील प्रकाशन, जयपुर।
मेरी प्रिय कहानियाँ – इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली।
उपन्यास –
बात एक औरत की – (1974) इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली।
टपरेवाले – (1976) पराग प्रकाशन।
कुमारिकाएँ – (1978) इंद्रप्रस्थ प्रकाशन।
अभिषेक – (1984) पंचशील प्रकाशन, 
निष्कृति – (1987) पंचशील प्रकाशन।
नीलोफ़र – (1988) नेशनल पब्लिशिंग हाउस।
टेसु की कहानियाँ – (1980) पंचशील प्रकाशन।
बौनी परछाइयाँ – (1986) पंचशील प्रकाशन।
बाल साहित्य –
बुद्धिमान सोनु
नीली आँखों वाली गुड़िया
सतरंगी बौने – ताराचंद वर्मा- चिन्मय प्रकाशन 
आत्म कथा – लगता नहीं है दिल मेरा 
आलोचना – स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी 
रिपोर्ताज – भीगे मन रीते तन 

श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री के उपन्यासों में नारी विमर्श : 

साहित्य और समाज का पारस्परिक अंतर्सम्बंध होता है। साहित्य समाज का अनुसरण करता है और समाज साहित्य से प्रेरणा ग्रहण करता है। स्वातंत्रोत्तर समाज में नारी हर क्षेत्र में पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही थी। समकालीन परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण आयाम था महिला लेखन जिसके अंतर्गत कृष्णाजी के उपन्यासों की चर्चा की जाएगी। कृष्णा जी के उपन्यासों का मूल प्रतिपाद्य भले ही नारी शोषण ही रहा हो, लेकिन वह नारी मुक्ति की चेतना से अछूता नहीं रहा। कथ्य वैविध्य की दृष्टि से इनके उपन्यास बहुआयामी हैं। कृष्णा जी की नायिकाएँ शोषण को नियति मानकर मूक नहीं रहती बल्कि प्रतिकार करने का साहस भी दिखाती हैं। परम्परागत रूढ़ियों को तोड़कर नए प्रतिमान भी रचती हैं, अपनी पहचान बनाती हैं। अपनी मूलभूत स्वतंत्रता का अधिकार उनकी पहली शर्त है। ‘नारी न तो देवी है न राक्षसी, रक्त मांस से बनी मानवी, उसे भी संतुष्ट जीवन जीने का पूरा अधिकार है’।(बात एक औरत की, भूमिका) इस उपन्यास की नायिका कनु अपने जीवन में निरंतर अमानवीय परिस्थितियों का शिकार होती है, पति द्वारा प्रताड़ित की जाती है, नारकीय शोषण से गुज़रती है, लेकिन वह अपने आप को समेट कर साहसिक क़दम उठाती है और पति से सम्बंध विच्छेद कर लेती है। लेकिन नियति फिर भी पीछा नहीं छोड़ती। अपनी बेटी का पालन-पोषण करने के लिए वह कई कठिनाइयों का सामना करती है। उसके सम्पर्क में आने वाला हर पुरुष उसका उपभोग करना चाहता है। वह इस क्रूर पाशविक कामुक मानसिकता से अकेली अंत तक लड़ती रहती है लेकिन हार नहीं मानती। यह उपन्यास नारी के विलक्षण आत्मबल का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। 

कृष्णाजी का दूसरा उपन्यास ‘टपरेवाले’ बस्तर जिले की पिछड़ी जनजातियों के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज़ है जो बंसोड, महार, चमार, बलई, मातंक जैसे निचले तबक़े के परिवेश का जीवंत चित्रण पाठक के सामने उपस्थित करता है। इस उपन्यास में इनके रहन-सहन, अंधविश्वास, अशिक्षा और अज्ञानता से उपजी समस्यायें, तथाकथित परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, अस्वास्थ्यकर जीवन विधान, संदिग्ध नैतिक मूल्य, दोहरी मनसिकता, गिरा हुआ जीवन स्तर इत्यादि को बड़ी ही सच्चाई से रूपायित किया गया है। उपन्यास की पृष्टभूमि बंसोड जाति की है जो टोकरे, डलिया और सूपड़े बुनने की वृत्ति से अपना पालन पोषण करती है। अभिजात्य वर्ग की घृणा और उत्पीड़न की शिकार ये जातियाँ दुर्दांत जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। मेहतर, चमार, जमादार, समाज में लगभग हमेशा से ही अस्पृश्य माने जाते रहे हैं। लोक्तांत्रिक अधिकारों से वंचित और मुख्य धारा के सुविधा भोगी समाज के अमानुषिक व्यवहार से संतप्त इन जातियों का ‘जीवन गंदे मैले टपरो में भिनभिनाती मक्खियों जैसा होता है, ऐसा लगता है जैसे भूत -प्रेत पिशाचों की सी भयानक यातनामय ज़िंदगी जीकर वे सब जैसे अपने प्रारब्ध धो रहे हो’। उपन्यास का हर एक नारी पात्र शोषित है, प्रताड़ित है, पेट भरने के लिए अपने शरीर तक गिरवी रखने को तैयार, असामान्य स्थितियों से समझौता करता हुआ दुर्भिन्न जीवन जीने के लिए अभिशप्त। लेकिन इन्ही कष्टतर स्थितियों से उभरकर अपनी एक पहचान बनाती है नायिका लीला जो उच्चजाति के युवक से प्रेम करती है और उसकी संतान को जन्म देने का साहस भी रखती है। लीला आत्म निर्भर होकर बच्चे का पालन पोषण करने का उत्तरदायित्व अकेले ही निभाने का संकल्प कर अपने समुदाय के लिए आदर्श बन जाती है। यह उपन्यास इन उपेक्षित जातियों के जीवन-संघर्ष को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करता है। लीला के माध्यम से लेखिका ने इस समाज में आशा की किरण भी जगाई है। शिक्षा और आत्म निर्भरता ही मुक्ति का मार्ग है, जो हाशिये पर जीने वाले निचले तबक़े के इन लोगों को सम्मनित स्थान दिला सकता है। बदलाव अवश्याम्भावी है। एक चिंगारी भी क्रांति की ज्वाला बन सकती है, जिसका सशाक्त उदाहरण है उपन्यास की नायिका लीला बंसोड। 

इनका अगला उपन्यास अभिषेक का केनवास अपने आप में कुछ अलग मुद्दों को लेकर चला है जहाँ इन्होंने नारी शोषण से इतर जातिवाद के विद्रोह में दलितोद्धार की क्रांति पर भी क़लम चलाई है। लेखिका के शब्दों में ‘राष्ट्र के संपूर्ण विकास के लिए दलितोद्धार क्रांति आवश्यक है। इसी राष्ट्रीय अभिषेक की बात मेरा उपन्यास अभिषेक कर रहा है’।(अभिषेक भूमिका)। भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों की विस्तारपूर्ण चर्चा इस उपन्यास में की गयी है। समाज की मुख्य धारा से बहिष्कृत और मानवाधिकारों से वंचित जन जातियाँ, इनकी दयनीय असहाय स्थितियाँ, तिल-तिल कर होम हुए इनके जीवन, सभ्यता से दूर अपने अंधविश्वासों के अँधेरों में जीते जनजीवन, नारी की असुरक्षित स्थिति जो कभी भी कही पर भी वज़ह बेवज़ह लुट जाने पर मजबूर, तथाकथित उच्च वर्ग की अमानवीय नृशंस हिंसा का शिकार बनते ये लोग और इनका पूरा परिवेश जीवंत रूप से दर्शाया गया है। लेकिन जब अत्याचार अपनी हदें पार कर जाता है तो वह क्रांति की आग को भी सुलगा देता है। वही चिंगारी भयंकर ज्वाला बनकर भविष्य की दिशा निर्धारित करती है। 

कृष्णाजी का अगला उपन्यास ’कुमारिकाएँ’ अविवाहित, पति परित्यक्ता, विधवा नारियों के जीवन की त्रासदी को उसकी सच्चाई के साथ प्रस्तुत करता है। हमारे समाज की यह रुग्ण मानसिकता है कि नारी केवल पुरुष के संरक्षण में ही सम्मानीय हो सकती है। अकेला जीवन उस पर कई प्रश्न चिन्ह लगाता है। कई बार नारी परिवार के पालन पोषण लिए अपनी इच्छाओं को त्यागकर अविवाहित रहने का फ़ैसला लेने पर विवश हो जाती है। यह उसका निजी विषय है, उसका अपना निर्णय, लेकिन समाज ऐसी स्त्रिओं को आदर की दृष्टि से नहीं देखता। उस पर कई प्रतिबंध लगाए जाते हैं, उसकी स्वतंत्रता को पाप माना जाता है, नैतिकता के उलाहने देकर, बड़ी आसानी से उसे कलंकित घोषित कर दिया जाता है। कुमारिकाएँ उपन्यास का हर नारी पात्र इन अमानवीय स्थितिओं का शिकार बनता है।समाज ही नहीं ये पात्र अपने परिवार की उपेक्षा को भी सहन करते है। नारी अपना निर्णय स्वयं नहीं ले सकती। समाज उसके लिए आचार-संहिता रचता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। अकेलेपन से ऊबकर अगर वह किसी पुरुष से मित्रता करे तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उसे रखैल का ख़िताब दिया जाता है। नारी को स्वतंत्र रूप से साँस लेने की भी मनाही है। कुमारिकाएँ की वंदना अपनी इस असहाय परिस्थिति को इन शब्दों में व्यक्त करती है ’मैं नौकरी करती हूँ, मकान बिजली पानी का खर्च देखती हूँ, लेकिन अगर किसी से अपनत्व मिलता है तो मैं उसकी रखैल बन जाती हूँ?’ (पृ.128) लेकिन ये नारियाँ संघर्ष करती हैं, हार नहीं मानतीं, और अपने पैरों पर खड़े होकर अपने निर्णय स्वयं लेकर समाज में अपनी एक पहचान बनाती हैं। 

कृष्णा जी का ’नीलोफर’ उपन्यास अलग ही भावभूमि पर आधारित है जहाँ इन्होंने पुनर्जन्म के काल्पनिक कथानक को आधार बनाकर आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और आदिवासी जनजीवन का सूक्ष्म चित्रण किया है। निष्कृति उपन्यास ऐतिहासिक पात्र अकबर और जोधाबाई के प्रेम के साथ-साथ मीरा की आध्यात्मिकता को नये सिरे से व्याख्यायित करता है। लौकिक प्रेम की हार मीरा के लिए पारलौकिक प्रेम की प्रेरणा बन जाती है। लेखिका के शब्दो में ’अतृप्त मानवीय प्रेम ही मीरा को पारलौकिक प्रेम की ओर उन्मुख कर देता है’। लेकिन इन विचारों का कोई ऐतिहासिक आधार कृष्णा जी ने प्रस्तुत नहीं किया है।

अतः विहंगम दृष्टिपात से यह बात सामने आती है कि कृष्णाजी की लेखनी सशक्त स्त्री पक्षधर है। इनके द्वारा रचित पात्र मानवीय धरातल पर जीते हैं काल्पनिक उहा-पोह में नहीं। उनकी यही मंशा रही है कि उन्हें भी समाज में वही अधिकार मिले जो एक पुरुष को प्राप्त है। वह भी समाज का आधा हिस्सा है, उसकी किसी से होड़ नहीं है, न ही किसी से शत्रुता, वह तो समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है, सम्मान के साथ अपनी शर्तों पर जीना चाहती है, अपने निर्णय स्वय लेना चाहती है जो उसका संवैधानिक अधिकार भी है। इनकी नायिकाएँ अत्याचार शोषण से तप कर अंगार बन पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता का डटकर विरोध कर रही हैं। भले ही यह विद्रोह मुखर रूप से न रहा हो लेकिन अपने आप को आत्मनिर्भर बनाकर सक्षम बनकर अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं ढूँढने की चेष्टा हर नारी पात्र की विशेषता रही है। चाहे वह मुख्य धारा से कटा हुआ आदिवासी वर्ग हो या सुसभ्य समाज, नारी की स्थिति समान रही है। त्याग बलिदान पतिभक्ति, समर्पण, नियति, सहनशीलता जैसे पारम्परिक गुणों से विभूषित नारी को देवी की संज्ञा से नवाजा गया है और ये ही सभी गुण कभी-कभी उसी के विरुद्ध हथियार बन जाते हैं तब स्थिति घातक बन जाती है। शोषण को नियति मानकर स्वीकारना उसे बचपन से ही सिखाया जाता है लेकिन आज नारी अपनी आवाज़ उठा रही है, अपनी नियति बदलने के लिए संघर्ष कर रही है, अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है, शिक्षित होकर आत्मनिर्भर होकर समाज में अप्नी पहचान बना रही है। इसके लिए उसे कई क़ुर्बानियाँ भी देनी पड़ी हैं। लेकिन सब स्वीकार है जहाँ आत्म सम्मान मिले। यही सच कृष्णा जी के सम्पूर्ण साहित्य की धुरी बनकर उभर कर सामने आया है। 

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