विशेषांक: ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार

01 Jun, 2020

विगत स्मृतियों का जंजाल – पापा की सज़ा

साहित्यिक आलेख | डॉ. दत्ता कोल्हारे ’रत्नाकर’

मनुष्य जन्म व्यक्ति को मिला एक अनमोल वरदान है। जीवलोक की अनेक लक्ष योनियों से गुज़रकर मनुष्य जन्म मिलता है। मनुष्य की विशेषता यह है कि वह परिवार बनाकर रहता है। उसका परिवार उसके जीवन की ऊर्जादायिनी शक्ति होती है। परिवार नामक शक्ति की सहायता से ही वह जीवन में आनेवाली असंख्य बाधाओं का हँसकर सामना करते हुए उन पर विजय प्राप्त करता है। माँ, बाप, पति, पत्नी, बेटा, बेटी, भाई, बहन आदि अनेक सदस्यों से परिवार नामक इकाई बनती है। परिवार से ही समाज बनता है। इस समाज को आगे बढ़ानेवाली संस्था के रूप में विवाह संस्था सर्व प्रचलित है। वैवाहिक संस्कार से ही दो अपरिचित स्त्री और पुरुष प्रेम के बंधन में बँधकर अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं। विश्वास की डोर थामे दो अपरिचित स्त्री-पुरुष आजीवन एक-दूसरे का सुख-दुःख में साथ देते हुए प्रेमपूर्वक जीवन जीते हैं। उनके जवीन की नाव विश्वास के भरोसे ही जीवन-सागर पार करती है। पारिवारिक सदस्यों का आपस में एक-दूसरे के प्रति बना विश्वास ही उनके जीवन में प्रेम उत्पन्न करता है। परंतु जब कभी विश्वास की डोर टूट जाती है तो जीवन सागर पार करना मुश्किल हो जाता है। इसके परिणाम स्वरूप परिवार बिखर जाता है। परिवार टूटने का मतलब पारिवारिक सदस्यों की मनोदशा बिगड़ जाना। परिवार में अगर किसी एक सदस्य की भी मनोदशा बिगड़ जाती है, इसका परिणाम संपूर्ण परिवार को भुगतना पड़ता है। घर में किसी एक सदस्य की मानसिक स्थिति में बदलाव आने से एक हँसते-खेलते परिवार की अवस्था किस तरह हो जाती है इसका चित्रण कहानीकार तेजेंद्र शर्मा ने अपनी कहानी ’पापा की सज़ा’ में किया है।

वैसे देखा जाए तो तेजेंद्र शर्मा व्यक्ति के साथ-साथ एक लेखक के रूप में भी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। व्यक्तिगत रूप में तेजेंद्र जी जितने ख़ुशमिज़ाज व्यक्तित्व के धनी है इसके विपरीत लेखक के रूप में वे उतने ही गंभीर एवं चिंतनशील। इस कारण उनकी कहानियाँ हिंदी जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। भले ही वे शारीरिक रूप में लंदन में बसते हों परंतु मानसिक रूप में अपनी जन्मभूमि के प्रति लगाव उनके मन में है। देश-विदेश की ज़मीन से वे एक ऐसा कथा-विषय चुनकर लाते हैं जिसे पढ़कर पाठक अचंभित होने के साथ-साथ कहानी पढ़ने की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहता। कहानीकार के रूप में उनकी यही विशेषता उन्हें एक संवेदनशील एवं व्यक्ति-पात्रों के मनोभावों को समझनेवाला साहित्यकार बनाती है। उनकी लिखी अब तक की कहानियों का अध्ययन किया जाए तो उन्हें दो श्रेणियों में विभाजित करके देखा जा सकता है- एक भारतीय परिवेश में लिखी कहानियाँ और दूसरी पाश्चात्य परिवेश में लिखी कहानियाँ। उनकी कहानियों में इस तरह का भेद होना स्वाभाविक ही है क्योंकि एक व्यक्ति जो अत्यंत दो भिन्न परिवेश में रहता है, जीता है, उसका प्रभाव उसके जीवनचर्या के साथ-साथ उसके लेखन पर पड़ना स्वाभाविक ही है। एक ओर जहाँ अपनी मातृभूमि के प्रति उनके मन में लगाव है, उसी प्रकार अपनी कर्मभूमि के प्रति प्रेम निर्माण होना कोई ग़लत बात नहीं। लेखक के मन पर हुए इन दो भिन्न परिवेश के संस्कारों का प्रतिबिंब उनकी कहानियों में दिखते हैं। इसी प्रतिबिंब के कारण उनकी समस्त कहानियों में- चाहें वह भारतीय परिवेश में लिखी गईं हों या पाश्चात्य परिवेश में- एक बात प्रमुख रूप से दिखाई देती है, वह है कि लेखक अपने पात्रों के मनोभावों से जुड़ा होता है। इसी विशेषता के कारण उनकी प्रत्येक कहानी पाठकों के मनःपटल पर अंकित हो जाती है। चाहे वह टेलीफोन लाइन हो या पासपोर्ट का रंग, हथेलियों में कंपन हो या ढिबरी टाईट, बेघर आँखें या दीवार में रास्ता, देह की कीमत या कब्र का मुनाफा या कैंसर आदि प्रत्येक कहानी अपनी एक अलग विशेषता संजोए हुए है। उनकी समस्त कहानियों में से एक ऐसी ही कहानी हैं- पापा की सज़ा।

तेजेंद्र जी की कुछ एक कहानियों से मुझे रू-ब-रू होने का मौक़ा पहले मिल चुका है। हाल ही में उनकी कहानी ’पापा की सज़ा’ पढ़ने का योग बन पड़ा। आरंभ में तो प्रस्तुत कहानी का शीर्षक ही अनोखा-सा लगा। शीर्षक पढ़ते ही मन में प्रश्न उपस्थिति हुए कि, ’कौन पुत्र या पुत्री अपने पापा को सज़ा दे रहा है?’, ’क्यों? और किस लिए?’ इसी उत्सुकता ने कहानी पढ़ने की रुचि बढ़ाई। कहानी की प्रथम पंक्ति - ’पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?’ प्रश्न ने फिर मन में अनेक प्रश्न उपस्थित किए। इस बार कहानी पूरी पढ़ ली, कुछ बातें समझ में न आने के कारण दो-तीन बार कहानी का पुनर्पाठ किया। अब मन में बहुत सारी बातें उपस्थित हो रही थीं। जैसे- यह कहानी एक परिवार की कहानी है या मिस्टर ग्रीयर अर्थात पापा की? या यह कहानी मार्गरेट अर्थात ममी की है? या उनके बेटी की? या एक पति-पत्नी की है? या ममी-पापा के आपसी रिश्ते के बीच डरी-सहमी बेटी की? ये सारे प्रश्न अपने उत्तर की तलाश में मन-मस्तिष्क में लड़ाई कर रहे थे पर मन है कि, कहानी तथा कहानीकार से हटकर कहीं ओर चला गया- सिग्मंड फ़्रायड के पास। कहानी पढ़ने के बाद याद आया कि कहानी की कथा- जिसे बेटी कह रही हैं- के आधार पर बेटी ने जिस तरह अपने पापा के बीते हुए कल के बारे में बताया है, उस आधार पर पापा के व्यवहार का, उनकी मनोदशा का मुख्य कारण उनका बीता हुआ कल है।

"सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गयी थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान है। डॉक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा? पापा के छोटे भाई जॉन अंकल को भी पेट में कैंसर हुआ था। बस दो महीने में ही चल बसे थे। जॉन अंकल पाँच फुट ग्यारह इंच लंबे थे। लेकिन मृत्यु के समय लगता था जैसे साढ़े तीन फुट के रह गये हों। कीमोथिरेपी के कारण बाल उड़ गए थे, कुछ खा ना पाने के कारण बहुत कमज़ोर हो गए थे। बस एक कंकाल सा दिखने लगे थे। उनकी दर्दनाक स्थिति ने पापा को झकझोर दिया था। रात-रात भर सो नहीं पाते थे।

पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहाँ के माहौल से ही दहशत होने लगती है। उनकी माँ हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किंतु यह डर दिमाग़ में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें भी पेट में कैंसर हैं।"

पापा के व्यवहार का मूल कारण उनके बीते हुए कल से उजागर होता है। इसके लिए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ़्रायड के ’मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत’ की सहायता से उत्तर खोजने का प्रयास किया है। फ़्रायड का यह सिद्धांत मुख्यतः मानव के मानसिक क्रियाओं एवं व्यवहारों के अध्ययन से संबंधित है। इस सिद्धांत की मदद से व्यक्ति के विशिष्ट आचरण तथा व्यवहार के पीछे क्या कारण है इसका शोध किया जाता है। फ़्रायड ने अपने अध्ययन के पश्चात मन को निम्न भागों में विभाजित किया है। जिसमें उन्होंने प्रथम भाग को ’चेतन मन’ तथा द्वितीय भाग को ’अवचेतन मन’ कहा है। ’चेतन मन’ मन का ऊपरी हिस्सा है, जिसमें प्रत्यक्ष रूप में चिंतन-मनन और विचार होता है तथा अवचेतन मन में स्मृतियाँ, अनुभव, ज्ञान आदि संगृहित होते हैं। अवचेतन मन अधिकांशतः स्वप्न में सक्रिय रहता है उसी तरह अचेतन मन में दमित विचार और कामनाएँ संचित रहती हैं। अचेतन मन सदा सक्रिय होता है। फ़्रायड का यह मानना था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में नाकामयाब होने पर होनेवाले तकलीफ़ को दबाता है, जिससे आत्म-कुंठा, आत्मालोचना, आत्मघृणा आदि मनोविकृतियों का निर्माण होता है। यह कार्य-व्यापार अवचेतन मन के अंतर्गत चलता है।

’पापा की सज़ा’ कहानी से उद्धृत उपर्युक्त अंश इसी बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। पापा का अपनी पत्नी के प्रति, अपने बेटी के प्रति तथा समाज के प्रति एकदम से जो परिवर्तन आया है, उसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण ही है। पापा के मन में एक डर बैठ गया है कि उन्हें जो पेट की बीमारी है वह कैंसर है।  इस डर के कारण उनके व्यवहार में अचानक से बदलाव आता है। इस बदलाव का परिणाम उनके स्व-जनों को भी भुगतना पड़ रहा है। पापा के इस डर के पीछे एक प्रमुख कारण है, उनके जीवन से जुड़ी हुई स्मृतियाँ। ये विगत स्मृतियाँ अस्पताल से जुड़ी हुई हैं, जिसमें उनके भाई जॉन, माँ तथा पिता आते हैं। इन विगत स्मृतियों से उनके मन में यह डर बैठ गया है कि डॉक्टर अगर उनके पेट की बीमारी की पुष्टि कैंसर में कर देते हैं तो उन्हें भी अस्पताल में भर्ती होना होगा- जिसकी परिणति होगी मृत्यु, क्योंकि उनके परिजनों में- भाई, माँ, पिता- जो भी अस्पताल में भर्ती हुआ है उनका शव ही घर पर लौटा है। पापा के अवचेतन मन में बसी इन स्मृतियों तथा अनुभवों से उनके स्वभाव-आचरण में अचानक से बदलाव आने लगा। उनकी हरकतें उग्र होने के साथ-साथ वे बहुत अधिक चिड़चिड़े हो गए। मानसिक रूप में आए इस बदलाव के कारण उनके ग़ुस्से का शिकार उनकी पत्नी मार्गरेट को होना पड़ता है। पापा छोटी-छोटी बातों से अपनी पत्नी पर ग़ुस्सा होते रहते हैं। पापा के इस व्यवहार के कारण माँ भी हमेशा परेशान रहती है। परेशानी का आलम यहाँ तक बढ़ गया कि माँ का भी कभी-कभी मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। पापा के इस व्यवहार के कारण उनकी बेटी भी काफ़ी चिंतित रहती है। बेटी को हमेशा यही डर लगा रहता हैं कि पापा किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गए हैं और इसके चलते वे कहीं आत्महत्या न कर लें।

अपनी पति में आ रहे इस बदलाव के कारण माँ भी काफ़ी परेशान-सी रहने लगती है। पापा के पेट दर्द ठीक हो इसलिए वह हमेशा उनके पेट पर कुछ-न-कुछ मलती रहती है। इसके अलावा उन्हें होम्योपैथी की दवा भी देती रहती है, जिससे उनका पेट दर्द ठीक हो जाए। परंतु पेट दर्द ठीक होने का नाम ही नहीं लेता। अपने पति के व्यवहार में आए इस परिवर्तन को वह बुढ़ापे का परिवर्तन समझ बैठती है। परंतु उसे भी पता है यह बुढ़ापे की वज़ह से नहीं है। इसलिए वह धार्मिक आस्था में अपना मन एकाग्र कर कुछ उपाय ढूँढ़ने की कोशिश करती है। उसे बाइबल में जो विश्वास था आज कल वह और भी अधिक दृढ़ एवं गहरा होता जा रहा था। पति की मानसिक अवस्था तथा व्यवहार से परेशान पत्नी का अपने पति के प्रति चिंता कहानी में दर्शायी गयी है।

कहानी के प्रमुख पात्र मिस्टर ग्रीयर अर्थात पापा भले ही अपनी विगत स्मृतियों तथा अवचेतन में दमित इच्छाओं-डर-के कारण अपना मानसिक संतुलन हो बैठे हों, परंतु अपनी जीवन साथी पत्नी के प्रति, अपनी बेटी के प्रति मन में बसे प्रेम को व्यक्त करते हैं। पापा भले ही अपने मनोरुग्णता के कारण बड़बड़ाते रहते हों, परंतु कई बार वे अपने मन की बातों को व्यक्त करते हैं। जिस स्त्री के साथ उन्होंने सैंतीस साल का लंबा वैवाहिक जीवन बिताया था, उसके प्रति उनके मन में करुणा का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। सैंतीस वर्ष के लम्बे सहवास में वे अपनी साथी के स्वभाव को अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण वे अपने पत्नी से कहते हैं -

"मार्गरेट, अगर मुझे कुछ हो गया, तुम मेरे बिना कैसे ज़िंदा रह पाओगी? तुम्हें तो बैंक के अकाउण्ट, बिजली का बिल, काउंसिल टैक्स कुछ भी करना नहीं आता। मुझे मरना नहीं चाहिये, तुम तो ज़िंदा ही मर जाओगी।" 

फ़्रायड के अनुसार अवचेतन मन में व्यक्ति स्मृतियाँ, अनुभव तथा ज्ञान आदि संगृहित करता है। मिस्टर ग्रीयर ने यह अनुभव किया था कि उनकी पत्नी व्यवहारकुशल नहीं है। इस कारण उनके मृत्यु के पश्चात पत्नी का ख़याल कौन रखेगा? यह चिंता भी उन्हें सताती रहती है। दूसरी तरफ़ मृत्यु के डर के चलते वे एक दिन अचानक अपनी बेटी को अपने कमरे में बुलाकर जन्मदिन की शुभकामनाएँ तथा पचास पाउंड का चेक तोहफ़े के रूप में देते हैं- वे भी तीन महीने पहले। पापा के इस तरह के व्यवहार से बेटी के मन में यह डर ओर अधिक गहरा हो जाता है कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें।

अपनी पत्नी तथा बेटी के प्रति पापा का इस तरह का आचरण उनकी मनोदशा को चित्रित करता है। फ़्रायड का मानना है कि चेतन मन के विपरीत अचेतन मन सदैव सक्रिय एवं कार्यशील रहता है। पापा के इस तरह के आचरण में उनके अचेतन मन की दशाओं का चित्रण हुआ है। व्यक्ति जब अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असफल रहता है तो उसके मन में आत्म-कुंठा, आत्म-घृणा उत्पन्न होती है। अपनी पत्नी मार्गरेट के लिए कुछ न कर पाना, रेलवे के स्टीम इंजिन पर सैकण्ड मैन से पूरा ड्राइवर न बन पाने की असफलता आदि जीवन में आई असफलताओं के चलते उनके मन में आत्मघृणा भर जाती है और वे ओर अधिक कुंठाग्रस्त जीवन जीने लगते हैं। इसी स्व-कुंठा, स्व-घृणा के चलते वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अपनी पत्नी की गला दबाकर हत्या कर देते हैं। पापा के पड़ोसी द्वारा दी गई ख़बर - ’तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है।’ - से बेटी को अकस्मात झटका लगता है। उसके मन में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि- ’पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?’

कहानी में चित्रित इस घटना को पढ़कर पाठक के मन में भी यह प्रश्न उपस्थित होता है। लेखक ने भी बड़ी चतुराई से इस प्रश्न का उत्तर खोजने का काम पाठक पर ही सौंप दिया है। परंतु लेखक के द्वारा कहानी में चित्रित घटनाक्रम द्वारा यह लगता है कि माँ की हत्या के पीछे मुख्य कारण यह हो सकता है कि मेरे बाद पत्नी का क्या होगा? क्योंकि पापा को पता है कि वैसे भी वे कुछ ही दिनों के मेहमान है। पेट के बीमारी के चलते उन्हें भी जल्द ही मृत्यु आनेवाली है। परंतु पापा द्वारा लिया गया यह निर्णय एक तरफ़ा भी लगता है। पापा द्वारा माँ की हत्या करना उनकी मनोदशा, मनोरुग्णता, मानसिक व्यवहार को चित्रित करता हैं। माँ की हत्या के बाद उनका मानसिक स्वास्थ्य ओर अधिक बिगड़ जाता है। अदालत जब पापा को सज़ा के रूप में ’ओल्ड पीपल्स होम’ भेजती है तो उनकी बेटी उनसे मिलने वहाँ पहुँचती है। 

"दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा कर रहा और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहाँ खड़ी हो गयीं। लगी पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी माँ से बातें कर रहे थे।" अपनी पत्नी के हत्या-मृत्यु के पश्चात भी पापा आज भी माँ को महसूस कर रहे थे। यहाँ लेखक ने पापा के मानसिक स्वास्थ्य के बिगड़ने का वर्णन किया है।

संक्षेप में, ’पापा की सज़ा’ कहानी द्वारा लेखक तेजेंद्र शर्मा जी ने अनोखे ढंग से कहानी कहने की अपनी क्षमता-कला का परिचय दिया है। मानव मन के पारखी लेखक के रूप में तो वे पहले से ही प्रचलित थे परंतु ’पापा की सज़ा’ कहानी के माध्यम से, उन्होंने वे मनोविज्ञान के जानकार भी हैं यह दर्शाने में सफल हुए हैं। कुल मिलाकर प्रस्तुत कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी के रूप में हिंदी कहानी जगत में अपना स्थान रखती है, जिसका पूरा श्रेय लेखक को जाता है।

डॉ. दत्ता कोल्हारे
औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
९८६०६७८४५८

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