विशेषांक: ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार

01 Jun, 2020

आज सौ वर्षों से अधिक की हो चुकी हिंदी कहानी ने अपनी इस विकास-यात्रा में विभिन्न आन्दोलनों और विमर्शों से गुज़रते हुए परिवर्तन के विविध पड़ावों को पार किया है। इस कालखण्ड में हिंदी कहानी युद्ध के मैदानों से सड़कों, सड़कों से घरों और घरों में रसोई से लेकर शयनकक्ष तक पहुँची है। सरल शब्दों में कहें तो हिंदी कहानी के विषयों का फलक इन सौ वर्षों में निरंतर रूप से विस्तार को प्राप्त हुआ है; और तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ भी अपने में इसी विस्तार के एक बड़े हिस्से को समेटे हुए हैं।

1980 में ‘प्रतिबिम्ब’ नामक कहानी से अपने कथा-लेखन का आग़ाज़ करने वाले तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में समय के साथ कथ्य के स्तर पर व्यापक परिवर्तन दिखाई देते हैं। देखा जाए तो तेजेंद्र शर्मा के समग्र कथा-साहित्य के विषयों के तीन स्रोत प्रतीत होते हैं। एक, जो खुराक जीवन से उन्हें मिली यानी जो उन्होंने ख़ुद भोगा; दो, जो उन्होंने अपने इर्द-गिर्द घटित होते देखा; और तीन, जब अन्यान्य माध्यमों से प्राप्त किसी जानकारी या ख़बर ने उनके मन को सहज ही ऐसी संवेदना से भर दिया कि उसपर बिना लिखे रहना उनके लिए संभव नहीं रह गया। इनमें दूसरे और तीसरे तरह के विषय ऐसे हैं जिनमें कहानी की खोज और विरचना वही लेखक कर सकता है जिसमें संवेदना की सूक्ष्म दृष्टि विद्यमान हो। लेखक की संवेदनात्मक दृष्टि, एक गतिशील मछली का जल प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख वेधने जितनी सामर्थ्य से युक्त होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी दृष्टि होगी तभी लेखक उससे दूर कहीं घटित किसी घटना के विषय में किसी अन्य माध्यम से जानकारी पाकर, उसमें मछली की आँख की तरह ही, कहानी की संभावना को लक्ष्य कर सकता है।

इस संदर्भ में तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘देह की कीमत’ का उल्लेख समीचीन होगा जिसके विषय में वरिष्ठ व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा है, ‘एक मुकम्मल कहानी कही है तेजेंद्र ने और किस्सागोई की शर्तों पर अच्छी बाँधने वाली कहानी कही है‘। भारत और जापान, दो देशों के बीच तैरती इस कहानी में तेजेंद्र शर्मा ने न केवल अर्थ-संचालित पारिवारिक संबंधों के खोखलेपन को उघाड़ा है, बल्कि अपनी अयोग्यता के भार में दबे भारतीयों के एक तबक़े के विदेशी कमाई के आकर्षण में वैध-अवैध ढंग से विदेश जाने की स्थिति को भी बाख़ूबी उजागर किया है। इस कहानी का विषय कैसे ज़ेहन में आया, इसपर तेजेंद्र शर्मा का कहना है कि वायुसेवा के ही एक मित्र ने तीन लाइन में इस प्रकार की एक घटना उन्हें सुनाई थी, जिसके बाद उनके मन में यह कहानी आकार लेने लगी। अगल-बगल बैठे लोगों में उन्हें इस कहानी के पात्र नज़र आने लगे थे। इस तरह यह कहानी बन पड़ी। तीन लाइन की एक घटना को सुनकर कटु सामाजिक यथार्थ को उकेरने वाली ऐसी मर्मस्पर्शी और भावनात्मक गहराई से पगी कहानी कह डालना तेजेंद्र में संवेदना की सूक्ष्म दृष्टि के विद्यमान होने की घोषणा करने के लिए पर्याप्त है।

‘चरमराहट’ कहानी की चर्चा करना भी समीचीन होगा। इसमें बाबरी ध्वंस जैसी एक अलग और ख़ुद से दूर घटित घटना पर आधारित कथा-वितान की रचना में हम तेजेंद्र शर्मा की यथार्थ को उकेरने वाली विराट कल्पना-शक्ति के साथ-साथ उनके कथा-कौशल का प्रकर्ष देखते हैं। कहानी-विधा पर केन्द्रित कई पुस्तकें लिख चुके चर्चित लेखक शम्भू गुप्त लिखते हैं, ‘तेजेंद्र ने इस (चरमराहट) कहानी में विश्व-स्तर पर व्याप्त धार्मिक व अन्य प्रकार के तत्ववादी आग्रहों पर तीखी नज़र दौड़ाई है। भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ही धर्म एवं जाति किस तरह से आज भी आदमी की पहचान का एकमात्र आधार बने हुए हैं, इसे तेजेंद्र इस कहानी में बहुत प्रभावशाली ढंग से सामने लाते हैं।‘ कुछ कल्पना और कुछ देखी-सुनी चीज़ों के मिश्रण से तैयार इस कहानी की सबसे ख़ास बात यह रही है कि पाठक को अंत तक कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम सम्बंधित विषयों को लेकर लेखक का कोई झुकाव पकड़ में नहीं आता। पाठक को किसी पंक्ति में लगता है कि लेखक ने कोई पाला पकड़ा है, तभी अगली पंक्ति उसके इस विचार को बहा ले जाती है। दरअसल इस कहानी में तेजेंद्र सब पालों की बातें कह भी जाते हैं, मगर किसी एक पाले में खड़े नज़र भी नहीं आते। कथानक की ये संतुलित किन्तु प्रभावी प्रस्तुति जो अंत तक बनी रही है, विषयवस्तु पर लेखक के दृष्टि की गहरी पकड़ को ही दर्शाती है। बाबरी-ध्वंस की घटना के वैश्विक प्रभाव, मानव-मन से लेकर व्यावहारिक जीवन तक में गहरे पैठ चुके धर्म और आस्तिकता-नास्तिकता की उलझन जैसे गंभीर विषयों को बड़े सधे हुए और साहसिक ढंग से इस कहानी में पिरोया गया है।

अपने जीवनानुभवों से कोई विषय उठाकर उसपर कहानी लिखना ऐसा कर्म है जो एक मायने में सरल भी है और एक मायने में कठिन भी। सरल इसलिए है कि विषय के स्तर पर लेखक से कोई पहलू छुपा नहीं रहता, वो छोटी-छोटी बातों से भी अवगत रहता है; और कठिन इसलिए कि सब पहलुओं से अवगत रहने के कारण उन सबको कहानी में ढाल देने की चाह चुनौती की शक्ल लेकर खड़ी हो जाती है और इस क्रम में यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी कहीं यथार्थ का कोरा कथन बनकर न रह जाए। यह तेजेंद्र शर्मा का कथा-कौशल ही है कि अपने जीवनानुभवों पर कई कहानियाँ लिखने के बावजूद वे इस कठिनाई से अपनी कहानियों को बचाने में कामयाब रहे हैं। यहाँ ‘कैंसर’ कहानी का ज़िक्र करना ज़रूरी है। इसमें पत्नी के स्तन कैंसर से ग्रस्त हो जाने के बाद पति के ह्रदय और परिवार में व्याप्त त्रासदियों और विकृतियों की कथा कही गयी है। तेजेंद्र शर्मा को जानने वाले जानते हैं कि वे स्वयं इस कहानी की त्रासदी को कटुतम स्वरूप में भोग चुके हैं। अपने इस भोगे हुए यथार्थ पर कथा-वितान बुनते हुए भी तेजेंद्र शर्मा ने अपनी क़लम को जिस ढंग से भावनाओं के आवेग में बहने नहीं दिया है और कहानी के कहानीपन को सुरक्षित रखा है, वो उनके समर्थ कथा-कौशल का ही सूचक है। प्रख्यात लेखक राजेन्द्र दानी की टिप्पणी उल्लेखनीय होगी, ‘संत्रास में जी रहे परिवार का भावुकता से बचते हुए चित्रण करना किसी भी रचनाकार के लिए एक चुनौती है जिसका सामना रचनाकार ने इस कहानी (कैंसर) में अपने कौशल के साथ किया है। कथ्य की मार्मिकता पाठक के अंतर्मन में पैबस्त हो जाती है।‘

तेजेंद्र शर्मा के कथा-संसार की एक और विशेषता यह है कि वे अपनी कहानियों के विषयों के प्रति बेहद ईमानदार रचनाकार हैं। तेजेंद्र शर्मा ने उन्हीं विषयों पर लिखा है, जिनपर उनकी क़लम स्वाभाविक रूप से लिख सकी। इस क्रम में साहित्यिक विमर्शों, विचारधाराओं या चर्चादायक विवादों की लालसा से प्रभावित होकर उनके द्वारा कोई लेखन किया गया हो, ऐसा कहीं नहीं दिखता। तेजेंद्र शर्मा ने अबतक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित एक भी कहानी नहीं लिखी है। इस विषय में एकबार मैंने उनसे पूछा था कि आपकी कहानियों में गाँव-खेती-किसानी आदि क्यों नहीं है? इसपर उनका जवाब था – भई, मैंने गाँव देखा ही नहीं है, मुझे गाँव के विषयों की कोई समझ ही नहीं है, तो उसपर कहानी कैसे लिख दूँ। उन्होंने अपने एक लेख में भी लिखा है, ‘मैं पूरी तरह से एक शहरी उत्पाद हूँ। इसीलिये मेरी कहानियों में गाँव नहीं आता।‘ दरअसल तेजेंद्र शर्मा हिंदी के उन कमसंख्यक लेखकों में से हैं, जो अपने वातानुकूलित कमरे में बैठकर जलती धूप में पसीना बहा रहे किसान की पीड़ा लिखने में यक़ीन नहीं रखते। कहानियों के विषयों के प्रति तेजेंद्र की ईमानदारी का अनुभव उनके कहानी-संग्रहों और उनके जीवन की घटनाओं के कालक्रम का एक तुलनात्मक अध्ययन करने पर भी होता है।

तेजेंद्र शर्मा का पहला कथा-संग्रह ‘काला सागर’ जो 1990 में प्रकाशित हुआ था, की कहानियों के विषय मोटे तौर पर पारिवारिक रिश्ते-नातों, महानगरों में जीवन की जद्दोजेहद और विमानन क्षेत्र से सम्बंधित विषयों पर आधारित हैं। इस प्रकार के विषय कोई संयोग नहीं थे, बल्कि ये उस वक़्त तक लेखक को मिली मानसिक खुराक का परिणाम थे। अड़तीस साल का एक युवा जिसका बचपन अभाव से अधिक परिस्थितियों के कारण संघर्षमय रहा था, के मन में पारिवारिक रिश्तों के प्रति हल्के रोष की भावना होनी स्वाभाविक ही है। परिवार के प्रति एक युवा का यह हल्का रोष, अर्थ-संचालित पारिवारिक रिश्तों के खोखलेपन का शिकार समाज के अन्य लोगों से जब एकाकार हुआ होगा तभी संभवतः ‘रिश्ते’, ‘दंश’ और ‘कड़ियाँ’ जैसी कहानियों ने आकार लिया होगा। ऐसे ही, विमान सेवा में कार्य करते हुए जब किसी दुर्घटना के पश्चात् कोई विद्रूप दिखा होगा, तो विमान दुर्घटना पर आधारित हिंदी की पहली कहानी ‘काला सागर’ की रचना हुई होगी। यूँ ही विमान सेवा की मशहूर चरित्र ‘एयर होस्टेस’ की चुनौतियों देखते-देखते जब किसी दिन लेखक का हृदय द्रवित हुआ होगा तो एयर होस्टेस पर केन्द्रित हिंदी की पहली कहानी ‘उड़ान’ रची गयी होगी। पत्नी के साथ मुंबई में एक अदद घर के लिए जद्दोजेहद करनी पड़ी तो लेखक का मन-मस्तिष्क ‘ईंटों का जंगल’ लिखने को आकुल हो उठा होगा।

गल्फ़ देशों में बसे भारतीयों के दर्द को बयान करती तेजेंद्र की एक कहानी है ‘ढिबरी टाईट’। यह कहानी भारत में रहने वाला कोई कथाकार शायद उतना बेहतर नहीं लिख सकता था जितना तेजेंद्र शर्मा ने लिखा है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि विमान सेवा में कार्य करते हुए गल्फ़ देशों में बसे भारतीयों के दर्द को वे काफ़ी क़रीब से देख और समझ चुके होंगे इसीलिए यह कहानी यथार्थ के निकट और प्रभावी बन पड़ी है।

तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में भारत के अलावा ब्रिटेन, जापान, पाकिस्तान आदि अनेक देश मौजूद हैं। साथ ही उनकी बहुतायत कहानियों में विमान सेवा में कार्यरत पात्र भी मिल जाते हैं। इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि वायुसेवा में रहने के कारण वे इस क्षेत्र के पात्रों के विषय में सब जानते-बूझते थे, इसलिए उनको ही उन्होंने ज़्यादातर अपनी कहानियों का हिस्सा बनाया न कि बिना जाने-बूझे काग़ज़ी किरदार गढ़ने की कोशिश की। हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं कि तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में अन्य प्रकार के चरित्र नहीं आते।

तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे उनमें एक नाम ‘नरेन’ बहुत अधिक दिखा। हर दूसरी-तीसरी कहानी में इस नाम का कोई न कोई पात्र मौजूद है। मैंने तेजेंद्र जी से पूछा कि क्या इस नाम को रखने का कोई ख़ास कारण है? इसपर उनका जवाब था, ‘नरेन का अर्थ है राजा जो प्रजा की स्तुति-निंदा सब ग्रहण करता है, शिव की तरह अमृत-विष सब धारण करता है; मेरी कहानियों में उपस्थित इस नाम का पात्र भी अच्छाई-बुराई दोनों को धारण करने व प्रशंसा-निंदा सब ग्रहण करने वाला होता है।’ उनका यह भी कहना था कि इस नाम के पात्र के रूप में प्रायः वो ख़ुद भी अपनी कहानियों में मौजूद होते हैं।

‘ढिबरी टाईट’ संग्रह की कहानी ‘नवयुग’ और ‘धुंधली सुबह’ भी उल्लेखनीय होंगी जो साहित्यिक समाज की विडम्बनाओं को उजागर करती हैं। नवयुग जहाँ संपादक और लेखक की स्थिति की विडम्बनाओं पर तंज करती कहानी है, तो वहीं ‘धुंधली सुबह’ सामाजिक-उद्धार की बड़ी-बड़ी कथाएँ लिखने वाले लेखकों के व्यक्तिगत धरातल पर अनैतिक और पतनशील आचरण की स्याह तस्वीर पेश करती है। अगर हम देखें तो तेजेंद्र शर्मा के पहले कथा-संग्रह ‘काला सागर’ में हमें इस प्रकार की कोई कहानी नहीं मिलेगी, जिसका कारण यह प्रतीत होता है कि तबतक वे साहित्यिक समाज के लिए नए थे, लेकिन ‘ढिबरी टाईट’ कहानी-संग्रह के आने तक वे इस समाज की अंतर्कथाओं से सुपरिचित हो चुके होंगे और तब इन कहानियों ने स्वाभाविक रूप से आकार लिया होगा।

1999 का वर्ष था, जब तेजेंद्र शर्मा के तीसरे कहानी-संग्रह ‘देह की कीमत’ का प्रकाशन हुआ। इस संग्रह में भी एयर इंडिया की नौकरी के कारण बटोरे अनुभवों पर आधारित देह की कीमत, चरमराहट, कोष्ठक जैसी कहानियाँ हैं, तो साहित्य में स्त्री-विमर्श की विद्रूपता पर चोट करती ‘मुझे मुक्ति दो’ जैसी कहानी भी है। लेकिन, इस संग्रह की उल्लेखनीय कहानी है – कैंसर। इससे पूर्व के दो संग्रहों में हमें कैंसर जैसी बीमारी पर कोई कहानी नहीं मिलती। शायद तेजेंद्र शर्मा ने सोचा भी न हो तब तक कि उन्हें इस जानलेवा बीमारी पर कहानी लिखनी होगी। परन्तु, 1995 में कैंसर से पत्नी के अकाल निधन के पश्चात् इस कहानी के बीज पड़े होंगे, जिन्होंने तेजेंद्र शर्मा की भावी कथा-रचना में कैंसर पर आधारित कई कहानियों के रूप में आकार लिया।

ग़ौर करें तो नये विषय तो तेजेंद्र शर्मा की प्रवास से पूर्व की कहानियों में भी हैं, परन्तु प्रवास के पश्चात् इस नयेपन को और अधिक विस्तार मिला है। अनेक ऐसे विषय और पात्र, जो तेजेंद्र शर्मा के साथ-साथ समग्र हिंदी कहानी के लिए भी एकदम अपरिचित थे, का समावेश प्रवास बाद की उनकी कहानियों में दिखाई देता है। यहाँ वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव का कथन उल्लेखनीय होगा, “तेजेंद्र ने बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। मैं कहूँगा कि उन्होंने हिंदी कहानी में एक नए तरह के कथानक और नए तरह के पात्र लाए हैं, जिनका क्षेत्र देश भी है और विदेश भी...उनकी कहानियों में लंदन का व अन्य देशों का परिवेश है, वहाँ के संबंध हैं, वहाँ की समस्याएँ हैं, वहाँ के लोग हैं और ये चीज़ हिंदी साहित्य की मूल धारा को काफ़ी समृद्ध और संपन्न करती है।” 

लन्दन प्रवास के बाद तेजेंद्र शर्मा का पहला कहानी-संग्रह ‘बेघर आँखें’ 2007 में प्रकाशित हुआ जिसमें संकलित कहानियों में विषय के स्तर पर व्यापक बदलाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। इस संग्रह में संकलित ‘अभिशप्त’ कहानी, तेजेंद्र शर्मा द्वारा लंदन प्रवास के बाद लिखी गयी पहली कहानी है। यह भारत से अच्छे जीवन की उम्मीद में लन्दन जाकर बस गए रजनीकांत की कहानी है जो वहाँ भी सुख नहीं पाता। भारत में बीए करने के बाद यहाँ कथित छोटे काम वो नहीं करता, लेकिन लन्दन में बोझा ढोने का काम करने में उसे कोई हिचक नहीं होती। अपने से बड़ी लड़की से विवाह करता है और धीरे-धीरे उसके द्वारा उपेक्षित होने लगता है। जल्द ही ये उपेक्षा और उदासी ही उसका जीवन बन जाती हैं। रजनीकांत की मानसिकता के पात्र हमें अपने आस-पास मिल जाएँगे जो जिस स्तर के जीवन को भारत में निकृष्ट मानते हैं, उससे भी बुरे ढंग से विदेश में रहने को तैयार हो जाते हैं। इस कहानी में प्रवासी भारतीयों के दर्द के साथ-साथ ब्रिटेन की पृष्ठभूमि में पुरुष-विमर्श का एक वितान भी बुना गया है। भारत में पत्नी की इच्छा-अनिच्छा के प्रति पतियों की जो बेपरवाही प्रायः देखने को मिलती है, ब्रिटेन में रजनीकांत के प्रति उसकी पत्नी की वही बेपरवाही हम देखते हैं। निशा, पति के रूप में अपेक्षित कोई सम्मान और अधिकार रजनीकांत को नहीं देती, मगर रात को बिस्तर पर उसे भोगे बिना उसको नींद भी नहीं आती। अपनी इच्छा-अनिच्छा को भूल रोज़ बिस्तर पर पत्नी को संतुष्ट करना भी रजनीकांत का एक काम है। भारत में लिखी कहानियों में ऐसी दशा स्त्री की मिलती है, ब्रिटेन में इसका पात्र एक पुरुष है। चर्चित लेखिका डॉ. प्रीत अरोड़ा ने इस कहानी को पुरुष-विमर्श का सशक्त उदाहरण बताते हुए लिखा है, “इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने पुरुष-मन के भीतर आर्थिक स्वावलम्बन, अधिकार-चेतना, व्यक्तित्व की महत्ता व स्वतंत्र जीवनदृष्टि आदि जैसी भावनाओं को प्राप्त न कर पाने की टीस को प्रस्तुत कर पुरुष-विमर्श को एक नया आयाम दिया है l”    

इसी संग्रह की कहानी है – क़ब्र का मुनाफ़ा। एक ऐसी कहानी जिसका विषय और कथानक भारतीय पाठकों की कल्पना से भी परे होने जैसा है। धन के आगे कैसे मानवीय संबंधों से लेकर खुद मनुष्य तक का अस्तित्व बौना होता जा रहा है, इस सामाजिक विसंगति को ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ कहानी में बड़े अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कहानी के दोनों प्रमुख पात्रों खलील और नजम, जिन्होंने अपने देश से दूर एक विदेशी कंपनी को बढ़ाकर काफ़ी पैसा कमा लिया है, द्वारा जब अपने लिए क़ब्र की बुकिंग करवाई जाती है, तो पाठक चकित रह जाता है। क़ब्र की बुकिंग? कहानी की शुरुआत में ही आने वाली यह बात किसी भी भारतीय पाठक को चकित करने के लिए काफी है। खलील और नज़म क़ब्र की बुकिंग करते हैं ताकि मरने के बाद उन्हें पूरी शानो-शौकत के साथ दफनाया जाय और उनकी क़ब्र भी पूरी आलिशान बने, जिससे वे थकान भरे जीवन के ख़त्म होने पर मौत के बाद आराम से रह सकें। इस दौरान शिया मुसलमानों के लिए अलग से ‘रिजर्व्ड क़ब्रिस्तान’ की चर्चा के जरिये मुस्लिम समुदाय में मौजूद ऊंच-नीच के भेदभाव को भी लेखक ने हल्के से छू लिया है। अधिक पैसा आदमी को किस हद तक संवेदना और भावना से हीन तथा दम्भी बना देता है, यह कहानी इसको शानदार ढंग से अभिव्यक्त करती है। सबसे बढ़कर इस कहानी का जो तथ्यपरक ढंग से व्यंग्यात्मक अंत लेखक ने किया है, वो इसे हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों में शुमार कर देता है। इस विषय में वरिष्ठ व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी को उद्धृत करना समीचीन होगा, “कहानी (क़ब्र का मुनाफ़ा) का अंत एक सपाट व्‍यंग्‍यकार द्वारा रचा अंत है और कहानी को नये अर्थ देकर नई ऊँचाई भी देता है। जीवन ऐसा हिसाबी-किताबी हो गया है कि ‘क़ब्र का मुनाफ़ा' कमाया जा सकता है और मरने जीने को भी एक नये धंधे में तबदील किया जा सकता है।“ 

कोख का किराया, ये क्या हो गया, पासपोर्ट का रंग आदि भी तेजेंद्र की कुछ उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। कोख का किराया सरोगेसी के मुद्दे पर व्यापक परिप्रेक्ष्यों में बात करती है। ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी में मुख्य पात्र बाऊजी की पीड़ा यह है कि उन्हें लन्दन में बसे बेटे के साथ रहने की मजबूरी में भारत की नागरिकता छोड़ उस ब्रिटेन की नागरिकता लेनी पड़ रही है, जिसके ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में वे गोलियाँ खा चुके हैं। इस दौरान भारत सरकार की तरफ से यह ऐलान कि वो पाँच देशों के भारतीयों को दोहरी नागरिकता देगी, उन्हें ख़ुशी से भर देता है। मगर, यह ऐलान सिर्फ ऐलान ही रह जाता है। सरकारें बदल जाती हैं, मगर इस ऐलान को अमलीजामा नहीं पहनाया जाता। इस कहानी में लेखक ने उन बुज़ुर्ग भारतीयों के देशप्रेम और प्रवास की विवशता के बीच के विकट द्वंद्व को तो चित्रित किया ही है, जो मजबूरी में अपनी जड़ों से अलग हो विदेशी धरती में जा बसे हैं, साथ ही प्रवासी भारतीयों के प्रति भारत सरकार की ढुलमुल कार्यप्रणाली को सामने लाने में भी लेख प्रभावी ढंग से सफल रहा है।

ब्रिटेन में बसने के बाद लिखी गयी तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में दो बातों का विशेष रूप से प्रवेश नज़र आता है – मुसलमान और सेक्स। ऐसा नहीं है कि प्रवास पूर्व की कहानियों में ये बातें रही ही नहीं हैं, लेकिन प्रवास बाद की कथा-रचना में लेखक का इन विषयों पर विशेष ज़ोर दिखाई देता है। इस दौरान मुसलमान पात्रों को लेकर तेजेंद्र शर्मा ने तरक़ीब, होमलेस, दीवार में रास्ता आदि कई कहानियाँ लिखी हैं। 

‘तरक़ीब’ कहानी का ज़िक्र ज़रूरी होगा। इसमें भारत-पाकिस्तान से ब्रिटेन में आकर बसे मुसलमान दम्पति अदनान और समीना को केंद्र में रखकर कथा का ताना-बाना बुना गया है। इस्लाम की मर्दवादी मान्यताओं और स्त्री को पुरुष का गुलाम बना देने वाले मज़हबी क़ायदों की इस कहानी में ख़ूब ख़बर ली गयी है। अदनान के जुल्म और तानाशाही भरे बर्ताव से तंग आकर समीना जब उससे तलाक़ माँगती है, तो वह सोच में पड़ जाता है क्योंकि ब्रिटेन में तलाक़ देने पर वहाँ के क़ानून के मुताबिक उसे संपत्ति में बड़ा हिस्सा समीना को देना पड़ेगा। इस मुश्किल के हल के लिए वो कोई ऐसी तरक़ीब सोचने लगता है जिससे समीना से छुटकारा भी मिल जाए और संपत्ति में से कुछ देना भी न पड़े। कहानी के अंत में जो तरक़ीब सामने आती है, वो शरीयत की वहशी व्यवस्था को उजागर करने वाली है। वैसे तेजेंद्र शर्मा सिर्फ़ मुसलमानों के मज़हब की समस्याओं को ही सामने नहीं लाते बल्कि उनके जीवन की चुनौतियों और मुश्किलों पर भी बात करते हैं। 

इस संदर्भ में ‘दीवार में रास्ता’ कहानी का उल्लेख उपयुक्त होगा जिसमें लेखक ने हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्व का विषय उठाते हुए मुसलमानों के दुःख-दर्द को रेखांकित करने का प्रयास किया है। ये कहानी अपने शीर्षक से लेकर कथानक तक रूपकाभिव्यक्ति का भी उदाहरण है। मोहसिन के घर के आगे संध्या ठाकुर की शह पर हिन्दुओं द्वारा रास्ता बाधित करने को खड़ी की गयी दीवार, सिर्फ ईंट पत्थरों का एक ढाँचा भर नहीं है, बल्कि दोनों समुदायों के बीच खड़ी अविश्वास और वैमनस्यता का प्रतीक है। मोहसिन छोटी जान के आने से उम्मीद लगाता है कि वे संध्या ठाकुर पर दबाव डालकर दीवार हटवा देंगी, मगर वे संध्या ठाकुर से बात करने के बाद कहती हैं, “देखो मोहसिन, मैंने संध्या जी से बात कर ली है। तुम मेरे पीछे इनसे मिलकर इनकी मदद माँग लेना। अब यही तुम्हारी मुश्किल हल करेंगी।” यहाँ छोटी जान का चरित्र अविश्वास की दीवार में विश्वास के एक रास्ते जैसा प्रतीत होता है। ‘..इनसे मिलकर इनकी मदद माँग लेना’ इस बात का व्यापक सन्देश यही है कि हिन्दू-मुसलमान को आपस में मिलजुलकर अपने अविश्वास को दूर करना होगा और अपने मसले सुलझाने होंगे, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। ‘होम-लेस’ कहानी की बात करें तो ये एक तरफ जहाँ ब्रिटेन के बेघर लोगों से परिचित करवाती है, वहीं विश्वव्यापी इस्लामिक आतंकवाद के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अविश्वास का सामना कर रहे मुसलमानों की व्यथा को भी स्वर देने का काम करती है। 

अब जहाँ तक बात ‘सेक्स’ की है, तो ये विषय तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में प्रायः स्त्रियों की एक दमित इच्छा के रूप में आया है। तेजेंद्र शर्मा की कहानियों की स्त्री अपनी शारीरिक इच्छाओं के प्रति उदासीन नहीं है। वो ‘संभोग’ को उसके वास्तविक अर्थ, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों को समान सुख मिले, में प्राप्त करना चाहती है। इसके लिए वो नैतिकता और मर्यादा के खाँचे को तोड़ने से में भी नहीं हिचकती। पराई औरतों में उलझे पति के सुख को तरसती ‘तरक़ीब’ की समीना हो या ‘प्यार...क्या यही है?’ की अपने से पंद्रह वर्ष युवा लड़के को भोगने वाली पूजा हो या ‘अभिशप्त’ में रोज़ रात को पति के बिना सो पाने में असमर्थ निशा हो अथवा सबसे बढ़कर पति द्वारा शारीरिक सुख न मिलने की स्थिति में घर में घुसे चोर के साथ संबंध में पड़ जाने वाली ‘कल फिर आना’ की रीमा हो – ये सभी स्त्रियाँ अपने शारीरिक सुख के प्रति अत्यंत सचेत और आग्रही हैं। ‘कल फिर आना’ की रीमा तो पति के मुँह पर कहती है, “कबीर आप पचास के हो गए तो इसमें मेरा क्या क़सूर है? मैं तो अभी सैंतीस की ही हूँ। जिस तरह पेट को भूख लगती है, कबीर, जिस्म को भी वैसे ही भूख महसूस होती है।” सेक्स को लेकर ऐसी ‘बोल्डनेस’ तेजेंद्र शर्मा की प्रवास पूर्व की कहानियों में नहीं दिखाई देती। यहाँ लिखना ज़रूरी होगा कि तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में सेक्स तो है, लेकिन वो कहानी के ज़रूरी हिस्से की तरह है न कि तमाम लेखकों द्वारा क्षणिक लोकप्रियता के लिए चित्रित की जाने वाली पोर्नोग्राफी की तरह। तेजेंद्र की कहानियाँ ‘संभोग’ की ज़रूरत और उससे पूर्व की सामाजिक-मानसिक परिस्थितियों की जटिलता को विषय बनाती हैं, संभोग दृश्यों के चित्रण में नहीं डूब जातीं। ये प्रमुख कारण है कि यह कहानियाँ अपने विषय के साथ न्याय करने में सफल हैं।  

कुल बातों का मजमून यही है कि तेजेंद्र शर्मा ने उन्हीं विषयों पर लिखा जिनपर उनकी क़लम स्वाभाविक रूप से लिख सकी। साहित्यिक विमर्शों या चर्चादायक विवादों की लालसा से प्रभावित होकर उन्होंने अस्वाभाविक या जबरन कुछ भी नहीं लिखा। ऐसे में ये कह सकते हैं कि तेजेंद्र शर्मा की कहानियों की स्वाभाविकता ही उनकी सबसे बड़ी यूएसपी है और उन्हें स्वाभाविकता के रचनाकार के रूप में भीड़ से अलग करती है।

कथानक कोई भी हो, तेजेंद्र शर्मा की भाषा-शैली उसे रोचक बना देती है। जैसा कि वरिष्ठ व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा है, ‘तेजेन्‍द्र शर्मा के पास क़िस्‍से भी हैं और क़िस्‍सागोई भी। भाषा से खेलना भी उन्‍हें बढ़िया आता है। उर्दू-हिन्‍दी के लोकभाषा तथा प्रवासी हिन्‍दी भाषी की अपनी अंग्रेज़ीदां हिन्‍दी का सटीक इस्‍तेमाल करके वे चुटीले संवाद बनाते हैं और कहानी की भाषा में वह रवानगी क़ायम रखते हैं जो पाठक को कथा से बाँधकर रखती है।‘ तेजेंद्र शर्मा की कहानियों की प्रस्तुति ऐसी है कि ये शुरू होते ही पाठक को बाँध लेती हैं। शुरू में किसी सूत्र का एक सिरा देकर उसके दूसरे सिरे की रहस्यात्मकता बनाए हुए अपनी बहती हुई सी भाषा-शैली के बलबूते वे पाठक को कथा के अंतिम बिंदु तक सहज लिए जाते हैं, जहाँ उसे शुरूआती सूत्र का दूसरा सिरा मिलता है और वो उस कथा-लोक से चमत्कृत-सा एक अलग अनुभव लिए हुए बाहर आता है।
 

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