विशेषांक: दलित साहित्य

11 Sep, 2020

कुछ अंश
पृष्ठ- १६० से १७२

मकान किराये पर लेने की भी बहुत लम्बी कहानी है। बहुत दिनों तक, कितने महीनों तक हम किराये के मकान की खोज में भटकते रहे। किराये का मकान ढूँढ़ते समय हमें हर जगह अपनी जाति बतानी पड़ी। हम अपनी जाति वाल्मीकि बताते थे। महाराष्ट्र प्रान्त में कुछ लोग ‘वाल्मीकि’ नाम से हमारी जाति के वर्ण और जातिभेद के स्तर को नहीं समझ पाते थे, तब वे हमें दो-चार दिन के बाद आने के लिए कहते। दो-चार दिन में वे ‘वाल्मीकि रहस्य’ को जान लेते, तब दोबारा उनके पास जाने पर उनका टका सा जबाब मिलता - "मकान किराये पर नहीं देना है।"

"आप हमारे मकान में कैसे रह सकते हैं?"

"वाल्मीकि कहकर आप हमें बेवकूफ़ बना रहे थे?" कई बार इस तरह की बातों से शर्मिंदा होना पड़ा था। हम जलालखेड़ा क्षेत्र के गौलीपुरा में एक मकान देखने गये। मकान में गाय भैंस का तबेला था। वह मकान अहीर जाति का था। मकान के सामने और आसपास दल-दल जैसा गोबर और पानी का गारा था जिससे गोबर और मूत्र की सड़ी दुर्गन्ध आ रही थी। उस मकान में पीछे के दो ख़ाली कमरे किराये पर देना था।

घर मालिक ने हमसे जाति पूछी। हमने वाल्मीकि बताया। वह कुछ समझा नहीं। उसने कहा - "बाद में आओ।" दूसरे दिन प्रकाश हाईस्कूल की आठवीं कक्षा की एक लड़की ने मुझे बताया - "टीचर जी, कल आप जिस घर को देखने गये थे, वे कह रहे थे वाल्मीकि याने भंगी होता है। वे आपको किराये से घर नहीं देंगे।" मैंने पूछा - "तुमको कैसे मालूम हुआ?" लड़की बोली - "मैं वहीं रहती हूँ।" तब मैं किसको क्या कहती? ऐसी स्थिति में हमें किराये का मकान कहीं भी नहीं मिल रहा था।

हमने बहुत मिन्नतें करके महेन्द्रे कामरेड का मकान किराये पर लिया था। इसके लिए भी बहुत पापड़ बेलना पड़ा। शेरसिंह नाहर दूर के रिश्ते का भतीजा है, उनके साथ टाकभौरेजी मकान मालिक से मिले। हमारी जाति का नाम सुनकर कामरेड की पत्नी ने मकान देने से साफ इन्कार कर दिया। उनका बेटा और शेरसिंह नाहर के बीच मित्रता थी। दोनों एक ही पार्टी का काम करते थे मगर मकान देने की बात अलग थी। तब टाकभौरे जी ने हमारे स्कूल के संस्थापक और मैनेजर श्री. प्रकाशे जी से मिन्नतें की और उन्हें साथ लेकर कामरेड की पत्नी और बेटे से मिलने गये। प्रकाशे जी जैसे बड़े व्यक्ति के आग्रह पर कामरेड की पत्नी से मुश्किल से मकान देना स्वीकार किया, सबसे पहले तो मकान का किराया ही दुगुना बताया। यद्यपि महेन्द्रे कामरेड की पत्नी नाराज़ थी। महेन्द्रे जी नहीं थे, बेटे ने माँ को समझाया। फिर भी माँ ने हमारे लिए कई बन्धन और शर्ते रखी थीं - "तुम्हारे रिश्तेदार यहाँ नहीं आयेंगे। तुम यहाँ कोई कार्यक्रम आदि नहीं करोगे। तुमसे पड़ोसियों को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।" ऐसी अनेक शर्तों को हमने सहज ही मान लिया था।

मिट्टी की दीवार और छोटे देशी कबेलू की छत का वह मकान बहुत पुराना था। दोनों तरह घरों की कॉमन दीवारें थीं। घर में दिन में भी अंधेरा रहता था। छत और दीवारों से मिट्टी गिरती रहती। फिर भी हमने वह मकान अधिक किराये पर खुशी से ले लिया। जाति के कारण कहीं और दूसरा मकान मिलना मुश्किल था। लोग किसी की पहचान पाने के लिए सबसे पहले जाति पूछते हैं - ‘आप कौन है?’ इसका मतलब है ‘आप किस जाति के हैं?’ मकान किराये पर लेने के लिए तो जाति का अपना अहम् महत्त्व है। जाति के बिना समाज नहीं हो सकता, जाति के बिना इन्सान नहीं हो सकता, जाति की जानकारी के बिना सामाजिक व्यवहार नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में कामरेड भाई का वह टूटा-फूटा मकान मिल सका, उसी में सन्तोष किया।

हम 1980-81 के बीच भालदारपुरा के पास बहुजन मराठा समाज की इस बस्ती में रहे। मिट्टी के उस अंधेरे घर में मैंने पहली बार अपनी गृहस्थी शुरू की। सासू माँ बीमार थी। ननद जब-तब आकर खूब खरी-खोटी सुनाकर जाती। अपना कहने को वहाँ आसपास कोई नहीं था। दिन इसी तरह बीतते रहे, एकाकी, अपने आप में सीमित। हम चुप-चुप ही रहते थे। पारिवारिक समस्या और आर्थिक कठिनाईयों के साथ-साथ हम जातिभेद के दंश भी सहन कर रहे थे। पड़ोसियों की उपेक्षा और तटस्थता से अपमान महसूस होता था, जाहिर तौर पर भी अपमान होता रहा।

एक दिन सुबह मैं अपना आँगन, घर झाड़ने की झाड़ू से झाड़ रही थी। पड़ोस की महिला भी आँगन झाड़ने के लिए बाहर आई। पति के पानठेले के भरोसे गरीबी में उनका गुजारा होता था। उसे देखकर मैंने औपचारिकतावश पूछा - "हो गया काम?" कभी-कभी ऐसे ही एक दो बातें होती थीं। हम बात कर रहे थे, तभी वहाँ अपनी झोली लेकर एक भिखारी आया। उसने जोर से आवाज लगाई - "माँ, दया करो... धर्म के नाम पर दान करो... " पड़ोसन तुरन्त भिक्षा लेने अन्दर चली गई। मैं उस भिखारी को देख रही थी। तभी सामने के घर की महिला ने भिखारी को आवाज देकर बुलाया। वह भिक्षा पहले ही दे चुकी थी, अब कोई नेक सलाह दे रही थी। भिखारी सिर हिलाता हुआ वापस आया। पड़ोसन ने एक कटोरी आटा बहुत श्रद्धाभाव के साथ उसकी झोली में डाला।

मैं बरामदे में आ गई। बरामदे से मैंने देखा और सुना, पड़ोसन भिखारी से हमारे घर की ओर इशारा करके कह रही थी -"महाराज जी, इस घर की भिक्षा नहीं लेना। यहाँ जमादारन रहती है।"यह सुनते ही मेरे कानों में जैसे बम फटा। मेरा सिर झन्ना गया, जैसे किसी ने कनपटी पर झन्नाटेदार चोट मारी हो। उसे पता था, मैं हाईस्कूल में शिक्षिका हूँ, फिर भी सवर्ण मानसिकता के कारण जाति से और ऊँच- नीच के जातिभेद से उसने मुझे बस यही समझा था। भिखारी ने झूमते हुए सिर हिलाकर कहा - "अच्छा हुआ माताजी, आपने बता दिया। मैं भला उनके घर का आटा कैसे ले सकता हूँ?"

सामने के घर की महिला ने भी भिखारी को बुलाकर यही कहा होगा। यह मेरा अपमान था मगर कहीं कोई चारा नहीं था। मैंने बरामदे से भिखारी को और पड़ोसन को देखा। पड़ोसन फटी हुई पुरानी साड़ी पहने थी। रूखा-सूखा चेहरा, सूखे-सूखे हाथ-पैर थे, जैसे कई दिनों से भरपेट न खाया हो। भिखारी पूरी तरह चकाचक दिख रहा था। सिर में भरपूर डाला गया तेल चेहरे पर भी चमक रहा था। काला रंग और गोल-मटोल शरीर था। वह सस्ता नकली रेशम का भगवा कुर्ता और पीली धोती पहना था। लाल रंग का रेशमी दुपट्टा गले में लिपटा था। माथे पर सफेद चन्दन की तीन लकीरें बनी थी। पैरों में बाटा का जूता और मोजे थे। कुछ भिखारी माँगने के लिए स्वांग बनाकर रखते थे। भिक्षा देने वाले उन्हें महाराज कहते। भिखारी मेरे घर की ओर देखते हुए आगे बढ़ गया। यदि वह मुझसे माँगता, तब भी मैं उस चिकने- चुपड़े भिखारी को कुछ नहीं देती। मगर यहाँ तो वह न माँगकर मेरा अपमान करके गया था।

भिखारी चला गया। पड़ोसन महिला भी घर के अन्दर चली गई मगर मैं वहीं बरामदे में खड़ी इस बात पर सोचती रही। मन में उथल-पुथल होती रही। ‘जाति ऐसी चीज है जो कभी जाती नहीं है। जाति-व्यवस्था जनमानस में बहुत गहराई तक अपनी जड़ें जमाकर बैठी है। इन्सान के जीवन में जैसे जाति ही सब कुछ है, बाकी और कुछ भी नहीं।’ इस बात से मेरा मन दुखी हो गया था। भालदारपुरा के उस मोहल्ले में ऊँची जाति की कहलाने वाली एक भी महिला ग्रेजुएट नहीं थी। मैट्रिक भी नहीं होगी। वे घर का काम करने वाली बाई जैसी ही थीं। फिर भी उनमें उच्च जाति का अभिमान था। मराठा, कुनबी, कोष्टी, तेली, तमोली जैसी बहुजन जाति की होकर भी वे स्वयं को श्रेष्ठ मानती थीं। वे मुझे स्कूल में अध्यापन के लिए जाते देखती थी, मगर इस बात का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं था। याद रखने की बात सिर्फ जाति थी।

जातिभेद के दंश ने मुझे बहुत पीड़ित किया है। मेरे साथ ही ऐसी घटनाएँ क्यों घटीं? यह बात नहीं है, ऐसी घटनाएँ मेरे जैसे सभी के साथ लगातार घटती रही हैं। अपमान वे ही महसूस करते हैं जिन्हें सम्मान मिला हो या जिन्होंने सम्मान को समझा हो। सम्मान मिलने पर भी मैंने लगातार ऐसे जातिभेद और छुआछूत के अपमान को भोगा है। मानसिक संताप की वे घटनाएँ मेरे लिए अविस्मरणीय बन गई हैं।

हमारे स्कूल के सहकर्मी शिक्षक गिरधारीलाल सोलंकी की मिसेस एक बार हमारे घर आईं। उन्होंने हमारे घर चाय, नाश्ता किया। हमसे मिलकर वे बहुत खुश हुईं। वह स्वयं को प्रगतिवादी मानती थीं, वे मुझसे अक्सर कहती थी - "मैं जाति-पाति नहीं मानती। जाति में क्या रखा है? सबको भगवान ने एक जैसा बनाया है।" उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत खुशी होती थी कि दुनिया में अच्छे लोग भी रहते हैं। दूसरी बार जब वह हमारे घर आई, तब टाकभौरे जी और मैं घर में नहीं थे। दरवाजा बन्द देखकर उन्होंने पड़ोसन से पूछा - "ये लोग कहाँ गये?" मिसेस सोलंकी का यह प्रश्न पड़ोसन को इस रूप में सुनाई दिया - "ये लोग कौन है?"

मिसेस सोलंकी ने पड़ोसनों की बातें हमें बताई थी। वैसे भी किसी नये व्यक्ति को यह बताना पड़ोसन अपना धर्म समझती थीं कि हम कौन है, हमारी जाति क्या है, ताकि लोग हमसे दूर रहें। पड़ोसन और सामने के घरों की महिलाएँ घर में ही रहती थीं। हमारे लिए पूछने पर वे वही बताने लगीं जो उनके मानस में था। पड़ोसन ने तत्परता से बताया था- "है कोई झाडूवाली, यहाँ रहती है। हम तो उनसे कोई वास्ता नहीं रखते। न लेना, न देना। पड़ोस में है तो मुंह देखना ही पड़ता है। कामरेड का बेटा बड़ा माडन बनता है। उसी ने अपना घर किराये पर देकर इन्हें यहाँ बसा लिया है।"

मिसेस सोलंकी को कुछ न बोलते देखकर पड़ोसन बोली थी - "आप कौन हो? आप तो ऊँची जाति की लगती हो?" अपनी जाति ऊँची होने का अभिमान सबको होता है। मिसेस सोलंकी ने तब गर्व के साथ बताया था - "हम सोलंकी है, राजपूत ठाकुर है। हमारे सोलंकी गुरूजी और ये दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाते हैं। मैं ऐसे ही मिलने आई थी।"

पड़ोसनों की कुछ बातें सोलंकी मैडम ने हमें बताई थी। जो उन्होंने नहीं बताया, वह पड़ोस के बच्चों से अलग-अलग किस्तों में मालूम हो गया था। सामने वाली महिला भुनभुनाते हुए बड़बड़ाने लगी थी - "हम तो राह देख रहे है, ये कब यहाँ से जायें, तो पाप कटे। रात दिन मुँह देखना पड़ता है।"

हम तभी आ गये थे। स्कूल की छुट्टी के बाद कुछ खरीदी करके लौटे थे। मेरे हाथों में छात्रों की परीक्षा के उत्तर पत्रिका के बंडल थे। मैंने और टाकभौरे जी ने खुशी जाहिर करते हुए मिसेस सोलंकी को नमस्ते कहा, मगर तब उन्होंने हमारी पड़ोसनों के सामने अपनी अधिक खुशी जाहिर नहीं की। मैं समझ गई थी, पड़ोसन ने अपने मन का जहर उगला होगा।

मैंने तभी महसूस किया था - ‘मैं शिक्षिका हूँ, बच्चों को पढ़ाती हूँ। उनकी परीक्षा लेती हूँ। उनकी उत्तर पत्रिका जाँचकर उनके ज्ञान का परिक्षण करती हूँ। उनके पास या फेल होने का निर्णय देती हूँ। सभी जाति-धर्म के छात्र-छात्राओं के विषय-ज्ञान के साथ उनके बुद्धि-विवेक का भी मूल्यांकन करती हूँ। तब, क्या मैं अपने इन पड़ोसियों के और इस तरह के लोगों के बुद्धि विवेक, ज्ञान और अभिमान का मूल्यांकन नहीं करती? जरूर करती हूँ , ऐसे सब लोगों को मैं फेल करती हूँ? तब मैं बेचारी क्यों? बेचारे तो ये लोग हैं जो बुद्धि से दरिद्र हैं, समता-मानवता के ज्ञान के अभाव में, अविकसित मानसिकता के कारण पंगु हैं, जो समाज के नाम पर कलंक है।’ मैंने तब सोचा था, बचपन से धर्म और संस्कार के नाम पर इन्होंने यही सीखा है, यही देखा है इसलिए वैसा ही सोचते है और वैसा ही करते है। दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है, इन्हें कुछ पता नहीं है। कुएँ के मेंढक की तरह ये लोग अपनी छोटी-सी दुनिया में ऊँच-नीच की टर्र-टर्र करते रहते हैं।
उस दिन मिसेस सोलंकी हमारे घर बहुत कम समय रुकी थी। बहुत आग्रह करने पर उन्होने सिर्फ चाय पी। साथ ही बहुत अपनेपन के साथ मुझे समझाकर कहा था - "देखो, आप बुरा मत मानना। मैं छुआछूत नहीं मानती, मगर आप अपनी पड़ोसनों को और मोहल्ले में किसी को भी यह नहीं बताना कि मैं आपके घर खाती-पीती हूँ। ये लोग हमारी जाति के लोगों को यह बतायेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा।"

उनकी बातें सुनकर मेरा मन विचलित हो गया था। कौन अपना है कौन पराया, समझ में आ गया था। क्यों लोग ढ़ोंग करते हैं? क्यों लोग बड़प्पन ओढ़ते हैं? जब मन से भेदभाव गया ही नहीं, तो दिखावा क्यों करतें है? यदि सच में प्रगतिशील बनने की बात करते हैं तो वैसी हिम्मत भी चाहिए - परिस्थितियों का सामना करने की, लोगों को जबाब देने की, डटकर खड़े रहने की, सामने वालों की मानसिकता बदलने की। बहुत हिम्मत चाहिए, प्रगतिशील बनने के लिए। हमारे सामने अलग बातें और हमारे पीछे कुछ और बातें? यह तो उनका बहरुपियापन है।

कैसा प्रभाव है बुरे लोगों का? उनके प्रभाव से अच्छे लोग भी बुरे बन जाते हैं। भेदभाव फैलाने वाली इन भावनाओं को कोई जड़ से खत्म क्यों नहीं कर सकता? क्या यह जातिभेद की भावना लोगों के दिलों से कभी खत्म ही नहीं होगी? क्या यही सामाजिक भेदभाव, जातिभेद का कलंक हमारे देश का गौरव और हमारे देश की संस्कृति बना रहेगा? हिन्दूधर्म की ये बातें मन को बहुत संतप्त करती हैं। अपने भारत देश को, अपनी भारतीय संस्कृति को निष्कलंक बनाने के लिए हृदय तड़पता है।

किसी देश और समाज की स्थिति का मूल्य मापन कहीं आर्थिक स्थिति से होता हैं, कहीं राजनैतिक स्थिति से। कहीं नैतिक मूल्यों के आधार पर होता है, कहीं शिक्षा से। मगर हमारे देश में अभी तक व्यक्ति और समाज का मूल्यांकन जाति के आधार पर ही होता रहा है। यह देखकर बहुत दुख और अफसोस होता है। शिक्षित, समझदार लोग भी इन बातों को नहीं समझ पाते हैं, नासमझ लोगों की तो बात ही अलग है।

पड़ोसन तम्बोली जाति की थी। उसका चार साल का लड़का था। पति 11-12 बजे रात तक पान- ठेला बन्द करके लौटता। अक्सर शाम को तमोलन के घर एक जवान लड़का आता था, तंमोली के आने के पहले वह चला जाता था। हम और मोहल्ले के अन्य लोग भी उसे आते-जाते देखते थे। लोग यह बात जानते हैं, यह जानकर भी तमोलन निर्लज्जता के साथ हँसती रहती थी, जैसे यह कोई गलत बात ही नहीं है। चरित्रहीन होने के बाद भी उसे ऊँची जाति का गुमान था।

सामने वाली महिला कुनबी जाति की थी, वह बहुत धार्मिक थी। सुबह शाम नियमित रूप से पूजा करती, पोथी पढ़ती और भजन करती रहती थी। घर का काम बेटी करती रहती। बेटी मैट्रिक पास नहीं कर सकी, फिर भी उसे इस बात का दुख नहीं था। उसे दुख था हमारे वहाँ रहने का। इसके लिए वह रात-दिन कुढ़ती थी। उसके लिए जातिभेद ही सर्वोपरि था, बेटी का भविष्य नहीं। जातिभेद की बातें लोग पूरी तरह मानते थे, अपना लाभ-हानि भी नहीं देखते थे।

महेन्द्रे कामरेड के उस घर में हम मकान मालकिन की शर्तों के अनुसार ही रह सके थे। हमसे मिलने हमारे रिश्तेदार वहाँ अधिक नहीं आये। कभी ननद का परिवार आता था, कभी चचेरे ननद, देवर, जेठ कुछ देर के लिए आते थे, बस! कामरेड की पत्नी होकर भी वह धर्म-कर्म, जातिभेद अधिक मानती थी।

एक बार माँ और पिताजी आये थे। आते ही घर के अन्दर चले गये। तीन दिन वे अन्दर ही रहे, फिर चुपचाप वापस चले गये। कितना आतंक था मोहल्ले वालों का? बेचारे हर समय डरे सहमें रहे। न जोर से बोले, न हँसे, सिर झुकाकर आये और सिर झुकाकर चले गये। उन्हें चिन्ता थी - ‘कहीं उनके बेटी- दामाद किसी परेशानी में न पड़ जायें? यदि जाति के कारण उन्हें इस घर से निकाला गया तो वे कहाँ जाकर रहेंगे?’ किराये का दूसरा घर मिल पाना आसान बात नहीं थी। अपने जाति समुदाय के मोहल्लों में रहना भी कठिन था। असुविधा, शोर-आवाज, ईर्ष्या-द्वेष और झगड़ों के कारण शांति से वहाँ रहना मुश्किल था। हमारे लोग कभी अनजाने में और कभी जानबूझकर तकलीफ बढ़ा देते थे। इन्हीं परेशानियों से बचने के लिए हमने गैरों के बीच में रहने का निर्णय लिया था।

मेरी सासू माँ की मृत्यु इसी घर में हुई थी, 65 वर्ष की उम्र थी। कुछ शारीरिक तकलीफ थी, वे कई दिनों से बीमार थीं। घर में अन्दर ही अन्दर रहकर, बिना किसी से बोले, दिनभर अकेले चुप रहना दुखदायी था। हम स्कूल जाते थे तब से हमारे आने तक दरवाजा बन्द रहता था, हमारे आने के बाद फिर से बन्द हो जाता था। घर भी ऐसा था न हवा, न प्रकाश। दिन में भी अंधेरा रहता। दिनभर बिजली का बल्व ऑन रखते थे।

उन दिनों मीरा अपनी सास के घर नागपुर की डिफेन्स कॉलनी गई थी। मेरी सास की मृत्यु हुई तब मैं घर में अकेली थी। टाकभौरे जी सुबह से किसी काम से बाहर गये थे। चिन्टू बेटा उनके साथ था। सासू माँ को हिचकी लेते देखकर मैंने उन्हें पुकारा - "माँ, माँ... क्या हुआ माँ?" उन्होंने कोई जबाब नहीं दिया। मैं उनकी छाती पर हाथ फेरती रही, उनकी हथेलियाँ मलती रही। सासू माँ शांत लेटी है, यह देखकर मैं देर तक पलंग पर उनके सिरहाने बैठी रही। काफी देर हो गई, यह देखकर मैंने उन्हें पुकारा। उनका हाथ पकड़कर हिलाया। उनकी हथेली को अपनी हथेली से मलती रही।

मैंने देखा, धीरे धीरे सासू माँ की उंगलियाँ मुड़कर कठोर हो गयीं और मेरी हथेली को जकड़ने लगीं, यह देखकर मैं डर गई। मैं डरकर चीखने लगी, चीखते हुए मैंने अपना हाथ छुड़ाया और नीचे बैठकर अकेली रोने लगी। मेरी चीख, मेरा रोना सुनकर भी पड़ोस का कोई नहीं आया।

टाकभौरे जी ने आकर देखा, माँ अब नहीं रही। उन्होंने अपने कुछ रिश्तेदारों को खबर दी। कुछ लोग घर के सामने इकठ्ठे हुए। घर मालकिन ने यह देखा तो वह एक मिनिट के लिए घर के अन्दर आई, फिर बाहर आकर टाकभौरे जी से बोली - "यह सब तो ठीक है मगर आप इन्हें किसी रिश्तेदार के घर ले जाओ। वहाँ ले जाकर वह सब क्रिया- कर्म करो। हमारे घर में यह सब नहीं होना चाहिए। आप लाश यहाँ से ले जाओ।"

1980 की 4 मई को ‘लास्ट वर्किंग डे’ के बाद हम दोनों पति-पत्नी को डेढ़ माह की, स्कूल की ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ मिली थीं। जैसे सासू माँ इस दिन की राह देख रही थीं कि ‘कब मेरे बेटे-बहू को अवकाश मिले तो मैं इस घर से जाऊँ!’ तबियत खराब होने के कारण वे सोई-सोई रहती थीं। मकान मालकिन की बात सुनकर टाकभौरे जी ने तुरन्त रिक्शा बुलाया। मृत सासू माँ को चादर में लपेटकर रिक्शे में रखा। मैं लाश के साथ रिक्शे में बैठी। चचेरी ननद कमलाबाई भी साथ बैठी। मोहल्ले की कोई महिला बाहर नहीं आई, न किसी ने मुझे सांत्वना दी। यह सब देखकर मेरा हृदय क्रन्दन कर उठा। ‘क्या यही है भारतीय समाज? भारतीय सहिष्णुता? विश्व बंधुत्व की बात करने वाले अपने पड़ोसी से भी मानवता-भाईचारे का सम्बन्ध नहीं रख सकते?’ मैं जोर-जोर से रोने लगी, तब टाकभौरे जी ने कहा - "यहाँ मत रोओ।"

मैं रिक्शे में बैठी हथेलियों में मुँह छिपाये रोती रही। रिक्शा शाम टाकीज के पास से मेडिकल टी.बी. वार्ड के धोबीचाल के क्वार्टर आया। यहाँ सर्वेन्ट क्वार्टर में चाचा ससुर, मौसी सास अपने परिवार के साथ रहते थे। चाचा और मौसी मेडिकल अस्पताल में नौकरी करते थे। उनके चार बेटे और तीन बेटियों का भरा- पूरा परिवार था।

मैय्यत उठाने के लिए हमारे सब रिश्तेदार यहाँ इकट्ठे हुए। मोहल्ले के सब लोग भी आ गये। घर परिवार के हम सब लोग धाड़ मारकर रोने लगे। जहाँ हम एक साल से रह रहे थे, उस मोहल्ले के लोग मुझसे एक शब्द नहीं बोले थे, इतनी बड़ी दुखद घटना होने के बाद भी संवेदना-सहानुभूति का भाव नहीं बता सके। किसी ने अपने बच्चों को भी वहाँ झाँकने नहीं दिया। ऐसा असामाजिक व्यवहार? ऐसा अमानवीय, हृदयहीन व्यवहार? क्या हम इन्सान नहीं? वहाँ हम अपने दुख में जोर से रो भी नहीं सकते थे।

यहाँ हमने अपने लोगों को अपना दुख बताया। हमारे लोगों ने हमारा दुख समझा। हमारे दुख में वे भी सहभागी हुए, वे भी रोये। मैंने रो-रोकर सबको बताया- "मैं अकेली थी, मुझे कुछ जानकारी नहीं थी कि यह सब कैसे होता है। सासू माँ ने मेरा हाथ पकड़ लिया था, मैं डरकर चीखी थी। मेरी चीख-सुनकर कोई नहीं आया। मैं रोती रही, मुझे रोती देखकर भी कोई नहीं आया।" चचेरी ननद कमलाबाई बोली - "हम तो कहते हैं, यहीं अपने वालों के बीच रहो। इधर-उधर परायों के बीच रहने क्यों जाते हो?" मैं उनसे क्या कहती? अपनों के बीच रहने में भी परेशानियाँ थीं। शिक्षित होकर, अच्छी नौकरी करते हुए हम अच्छे जीवन-यापन की कामना करने लगे थे मगर इसके लिए हमें सहयोग नहीं मिल सका।

वहाँ उपस्थित रिश्तेदार महिलाओं ने हिन्दु रीति-रिवाज से सासू माँ को नहलाया। सभी महिलाओं ने उन पर थोड़ा-थोड़ा पानी डाला, मानों सब ने नहलाया। पुराने गीले कपड़े उतारकर नये कपड़े पहनाये गये। उन्हें महाराष्ट्रियन पद्धति की सोलह हाथ लम्बी साड़ी कछौटा लगाकर पहनाई गई। तुरन्त सिलवाकर ढीला लम्बा नया ब्लाउज उलटा पहनाया गया। सास विधवा थी, इसलिए उनका कोई श्रृंगार नहीं किया गया। पुरुषों ने बाँस की सीढ़ी (ठठरी) बना ली। उस पर तनस (लम्बी घास) बिछाकर नया सफेद झिरझिरा कपड़ा बांधा गया। सासू माँ हमेशा के लिए बिदा हो रही हैं, फिर कभी नहीं दिखेंगी - यह सोचकर ही छाती फट रही थी। टाकभौरे जी घबराये हुए रो रहे थे। अर्थी पर शाल डाला गया। रिश्तेदारों और मोहल्ले के लोगों ने फूलों के हार डाले। पूरी अर्थी फूलों के हार से ढँक गई। चार लोगों ने कंधों पर अर्थी उठाई। टाकभौरे जी रस्सी से बँधी छोटी मटकी में अग्नि लेकर अर्थी के आगे-आगे चले। श्मशान घाट में चिता को अग्नि दी गई।
इस दुखद घटना के साथ उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार और बहिष्कार की हृदय-विदारक वह घटना ऐसी थी कि हम जलती चिता के सामने खड़े होकर प्रण करते, कसम खाते और सबके सामने यह जाहिर करते - "हम ऐसे जातिवादी लोगों से बदला जरूर लेंगे।" बदला लेने की कसमें ऐसे ही अवसरों पर खाई जाती हैं। जब दिल पर बहुत गहरी चोट लगी हो, जब दुख का पहाड़ सिर पर टूटा हो, जब अन्याय- अत्याचारपूर्ण दुर्व्यवहार के असीम दुख से मन तिलमिलाया हो, तब हृदय की हूक दृढ़ निश्चय की कसम बन जाती है। तब आक्रोश की चिनगारियाँ फूटने लगती हैं, तब अन्यायी व्यवस्था को तोड़ने का निश्चय आग की तरह भड़क उठता है। मैंने भी यह निश्चय किया, ‘हम उस मोहल्ले में उन जातिवादी लोगों के बीच नहीं रहेंगे।’

फिल्मों की बात या कहानी, उपन्यासों में चरमोत्कर्ष की बात अलग होती है। साधारणतः जीवन में सोच समझकर कदम उठाया जाता है। क्रान्ति कुरबानी के बिना नहीं आती। क्रांतिकारी बनने के लिए भावनाओं के उद्रेक के बहुत ऊँचे तापमान की जरूरत होती है। उतना तापमान जितना ज्वालामुखी के भीतर होता है जो धरती की छाती फाड़कर आग का दरिया बहा देता है। तभी आग्नेय क्रान्ति होती है। मुझमें आग की कमी नहीं थी, आक्रोश भी बहुत था। मगर हम दुखी थे। क्रांतिकारी विद्रोही मन को अकेलेपन के दुख ने कमजोर कर दिया।

5 मई 1980 को सासू माँ का दाह संस्कार हुआ। हम अपने दुख में रोते रहे। तेरहवें दिन पूजा और गुरू-पाठ कराया। हमारे लोग सिख धर्म का अनुकरण करते हुए गुरूपाठ और गुरू का प्रसाद करते है। वाल्मीकियों के गुरूद्वारे उत्तर भारत, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में बहुत हैं। गुरू वाणी और अरदास के साथ हमने घर में गुरू प्रसाद किया था। भोजन परोस कर सासू माँ के नाम से भोग लगाकर समाज के लोगों को भोजन कराया। तेरहवीं का कार्यक्रम करके हम अपने उसी घर में लौट आये मगर अब यहाँ मेरा मन नहीं लगता था। मुझे यहाँ के लोगों से नफरत हो गई थी। दुखी हृदय चीख-चीखकर कहता था - "कैसे हैं ये लोग? कैसा इनका धर्म है? कैसे इनके संस्कार है? कैसा ईमान है? जो हमें इन्सान नहीं समझते, ऐसे इन्सानों पर थू है... ऐसे समाज पर थू... थू... थू... है !"

मेरी नाराज़ी वाजिब थी मगर किसी को हमारी नाराज़ी की परवाह नहीं थी। हमने निश्चय करके वह घर, वह मोहल्ला छोड़ दिया, फिर भी पीड़ा मन में कसकती रही। जातिभेद के दर्द के वे घाव अभी तक हरे-भरे हैं। हमने लगातार प्रयत्न करके नया मकान ढूँढा था। शेरसिंह नाहर की मदद से मानेवाड़ा रोड़ के तुकड़ोजी चौक पर एक कमरा और किचन का छोटा मकान हम पा सके थे।

नये घर में आकर मैं उस पुराने घर को याद करती थी, तब मन वितृष्णा से भर जाता था। कैसा था वह घर? जमीन से कभी चीटों के झुण्ड निकलते, कभी चीटियाँ पूरे घर में फैल जातीं। पके हुए चावल, रोटियों में चीटियाँ भर जाती। मिट्टी की चौड़ी दीवारों में चूहों के बिल थे। दिन-रात घर में और छत पर चूहे दौड़ते रहते। छत के ऊपर चूहों के लिये बिल्लियाँ दौड़ती। ऐसा मकान, वह भी इतनी शर्तो पर, एहसान करके दिया गया था। ऐसे मकान का दुगना-किराया देकर हम वहाँ रहे थे, वह भी इतनी उपेक्षा और अपमान के साथ! उन्हें ऐसा स्वभाव-व्यवहार कहाँ से मिला? किसने सिखाये थे उन्हें ऐसे संस्कार? किसने बनाई समाज की ऐसी मनोवृत्ति? किसने बनाये थे ऐसे कायदे-कानून, नियम-रीति परम्पराएँ कि इन्सानों से इन्सानियत का रिश्ता भी न रखा जाये? हम इन्सानों की बस्ती में रहकर भी उनसे अलग रहने के लिए मजबूर किये गये।

हिन्दू धर्म में नर्क की कल्पना की जाती है, लोग स्वर्ग और नर्क की बात मानते हैं। इसका सम्बन्ध भाव, विचार और अनुभूतियों से है। उस पुराने घर के मोहल्ले में एक बनिया की किराने की दुकान से लोग सौदा लेते थे। मई 1980 के पहले की बात है, एक दिन उसकी दुकान नहीं खुली। पालतू बीमार कुत्ते की देखभाल करने के कारण दुकान नहीं खोली थी। दुकान के पीछे बनिया का घर था। कारण मालूम होने पर मोहल्ले के लोग कुत्ते का हालचाल पूछने-देखने बनिया के घर गये। मरणासन्न कुत्ते को देखकर हमें भी दुख हुआ था। लोगों ने बनिया से सहानुभूति जताते हुए कहा था - "एक दिन सबको स्वर्ग जाना है। दुनिया तो चार दिन का मेला है। जब तक रहो, हिल-मिलकर रहो, बाद में यहाँ से क्या ले जाना है।" तब किसी ने यह भी कहा था - "बदी भूलकर नेकी करते रहना चाहिए। आप सबके साथ नेकी करते है, आपके पुण्य से आपका कुत्ता स्वर्ग जायेगा।"

मुझे जब उनकी ये बातें याद आती थीं तो बहुत आश्चर्य होता था। जो लोग एक कुत्ते के लिए इतने संवेदनशील हो सकते हैं, वे अपने पड़ोसी इन्सान के प्रति इतने संवेदनशून्य, हृदयहीन क्यों हो गये? सिर्फ जाति के कारण? क्या हम कुत्ते से भी गये गुजरे हैं? इन्सान होकर भी जानवरों से तुच्छ, उपेक्षित हैं? किसने निर्धारित की ऐसी धारणा? ऐसे दुष्टों को सजा देना है, उनकी कुटिल-नीतियों का पर्दाफाश करके उनकी तथाकथित उच्चता-श्रेष्ठता को खत्म करना है।

जातिभेद-वर्णभेद की बातें कोई सामान्य बातें नहीं हैं। इसके पीछे बहुत बड़ा रहस्य है, बहुत बड़ा इतिहास है। यह भारत के मूलनिवासियों और यूरेशियों के बीच संघर्ष का परिणाम है। छल-कपट के साथ, साम-दाम-दंड-भेद के साथ यहाँ के मूलनिवासियों को पराजित करके उन्हें उपेक्षित, शोषित, पीड़ित बनाये रखने का इतिहास है।

मैं इतना जानती थी, हमारे देश के उच्च वर्ण के चालाक लोग जातिभेद मानते हुए इन्सानों में भेदभाव करते हैं। जाति के नाम पर स्वयं को श्रेष्ठ कहने वाले जाति-व्यवस्था बनाये रखना चाहते हैं। वे समाज-व्यवस्था में ऊँच-नीच की विषमता बनाये रखने के लिए, अपने ढँग से कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष रूप से, धर्म और परम्परा के नाम पर लोगों से इन बातों का पालन करवाते हैं। सामाजिक व्यवहार में मैं इन बातों को देखती थी- लोग ऐसी परम्पराओं से अपना लाभ निकालते थे।

प्रकाश हाईस्कूल के शिक्षक, भास्कर पाण्डे ने ज्योतिष विद्या के साथ वास्तुशास्त्र का भी अध्ययन किया था। वे हमसे बहुत आत्मीयता-अपनेपन के साथ मिलते थे, हमें बहुत सम्मान देते थे। वे ब्राम्हण नहीं थे, ओ.बी.सी. तेली जाति के थे मगर अपनी ज्योतिष विद्या को चलाने के लिए उन्होंने अपना सरनेम पाण्डे रख लिया था। वे कभी अपने पाण्डे होने के विषय में खूब हँसते हुए अपनी बातें बताते थे - "इसमें मेरा कसूर नहीं है। यह यहाँ की पद्धति का कसूर है। यहाँ के लोग इतने जड़-बुद्धि हैं कि इन्हें किसी भी तरह नहीं समझाया जा सकता। बस पंडित कह दो, आँख मूँदकर उसे महान विद्वान मान लेंगे। भले ही वह अनपढ़, गँवार, नालायक, चरित्रहीन कुछ भी हो। लोग उसके पैर छूने जायेंगे। हमारे पास कितनी भी विद्वता हो मगर वे हमको छोटा ही समझते हैं। तब क्या करना? मूर्खों को समझाने के लिए उन्हें और मूर्ख बनाना पड़ता है। पाण्डे नाम सुनकर लोग मेरे पैरों पर गिरते रहते हैं। मुझे तो हँसी आती है, बहुत मजा आता है।"
भास्कर पाण्डे की बातों में सच्चाई थी। उनके माथे का तिलक, उनका बोलचाल, रहन-सहन देखकर सब उन्हें पाण्डे ही मानते हुए, उन्हें ब्राम्हण विद्वान मानते थे। उनकी ये बातें सुनकर मुझे लोगों की मानसिकता पर अफसोस होता था। साथ ही समाज की ऐसी रूढ़ि परम्पराओं पर गुस्सा आता था। यह हमारी समाज व्यवस्था और सामाजिक मानसिकता का सच था। मैं भी सोचती थी, ऐसे बुरे लोगों को उन्हीं की नीतियों से लताड़ना चाहिए।

समाज में सामान्यतः लोगों की यही धारणा रहती है, ‘जाति भगवान ने बनाई है, भगवान के नियमों को मानना ही धर्म है।’ धार्मिक पौराणिक कथाएँ, प्रवचन उपदेश की बातें-सभी के माध्यम से ब्राम्हण वर्ण को श्रेष्ठ बताते हुए कहा जाता है ब्राम्हण ब्रम्हा के मुख से पैदा हुए हैं। मैं कहती हूँ, वे ब्रम्हा के मुख से पैदा कैसे हुए? यह बात क्यों लोग नहीं सोचते? कभी इस पर तर्क क्यों नहीं करते? कभी शंका-कुशंका क्यों नहीं करते? बीसवीं सदी के वैज्ञानिक युग में भी इस बात की सच्चाई क्यों कबूल नहीं की गई? क्यों अभी भी ब्राम्हणों को श्रेष्ठ कहा जाता है?

इक्कीसवीं सदी में भी हमें वर्णभेद के आधार पर समाज में अतिशूद्र-अछूत मानकर अपमान और तिरस्कार का जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। उच्च वर्ण के चालाक लोगों ने लेखन, वाचन और भाषण-प्रवचन से इन बातों को समाज में हमेशा व्याप्त रखा है, तब सामान्य सवर्ण और बहुजन वर्णभेद, जातिभेद की मानसिकता से कैसे मुक्त हो सकेंगे? अछूत अपमान की पीड़ा से कैसे बच सकेंगे? इसके लिए संघर्ष, विरोध और विद्रोह चाहिए, तभी जातिवादी मानसिकता को तोड़कर समतावादी मानसिकता का निर्माण हो सकेगा। समाज की भेदभाव की नीति के विरूद्ध मेरे मन में आक्रोश भरने लगा था।

उन दिनों मैं अपने जाति-समुदाय के उत्थान के विषय में सोचने लगी थी। एक शिक्षिका होने के नाते अपने जाति समुदाय को प्रगति और परिवर्तन की बातें समझानेलगी। लेखन, भाषण और चर्चा-बातचीत के द्वारा अपने लोगों को समझाकर, पुरानी परिपाटी को बदलने के लिए मैं अपने ढँग से प्रयत्न करने लगी। चुप रहकर अपमान और संताप सहने के विरूद्ध, उन्हें समता- सम्मान के साथ जीने की बात कहने लगी।

इसके पहले मेरे जीवन में कुछ अलग था। मैं भाषण देने के नाम से बहुत डरती थी। टाकभौरे जी मुझे प्रोत्साहित करते थे, भाषण लिखकर भी देते थे। मैं भाषण याद करती, मुद्दे याद करती मगर भाषण के समय माईक के सामने जाते ही सब भूल जाती। सम्बोधन के बाद कुछ याद ही नहीं आता था कि क्या बोलना है। पहली बार मैंने लिखा हुआ भाषण देखकर पढ़ा था। घबराहट में एक पंक्ति को दो-दो बार पढ़ा, तब मुझे बहुत शर्म महसूस हुई थी। फिर भी मैं अपने जाति-समुदाय की एकमात्र महिला थी जो अपने लोगों की बीच जाकर, मंच से बोलती थी।

टाकभौरे जी 1965 के पहले से सामाजिक कार्यों से जुड़े थे। 1974 में उनके साथ मैं भी सामाजिक कार्यक्रमों में जाने लगी थी। भाषण उद्बोधन, विचार गोष्ठी चर्चा, कार्यक्रम में सबके विचार सुनती थी। धीरे-धीरे मुझमें आत्मविश्वास आने लगा। वैचारिक पृष्ठभूमि बनने के बाद, मैं आत्मविश्वास के साथ स्वतः प्रेरणा से भाषण-उद्बोधन करने लगी, निडरता के साथ मंच से बोलने लगी, अपने विचार व्यक्त करने लगी। समाज के लोगों से मुझे प्रोत्साहन मिलता रहा। मैं अपने विचार बताऊँ, भाषण दूँ, इसके लिए टाकभौरे जी, सोहनलाल तांबे जी, गोवर्धन डगोरिया जी का आग्रह रहता था। मैं सामाजिक कार्यो में भाग लूँ , टाकभौरे जी को इसमें गर्व महसूस होता था। मैं नागपुर के अपने जाति समुदाय में उच्च शिक्षित, शिक्षिका थी। सबकी यह अपेक्षा रहती थी, मैं सामाजिक जागृति के लिए अपना समय और सहयोग दूँ। सामाजिक कार्यक्रमों में अपने जाति समुदाय से मुझे बहुत मान-सम्मान मिला। उनके बीच मेरी एक पहचान बनती गई। कभी सामाजिक उद्बोधन के कार्यक्रमों में, मैं न जाऊँ तो लोग उम्र और रिश्ते के अनुसार पूछ-पूछ कर परेशान कर देते थे - "मैडम क्यों नहीं आई? बहू क्यों नहीं आई? काकी क्यों नहीं आई?" टाकभौरे जी कार्यक्रमों में मुझे साथ ले जाते थे।

1979 में नागपुर के भालदारपुरा क्षेत्र मे सुदर्शन-वाल्मीकि जाति-उपजाति समुदाय का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसमें वाल्मीकि समाज के नेता बूटासिंह को दिल्ली से नागपुर निमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम में मैंने बूटासिंह जी और समाज के सभी छोटे-बड़े नेताओं के सामने अपने विचार रखे थे। बच्चों की शिक्षा का महत्त्व, समाज की एकता और जाति समुदाय से जुड़े पैतृक रोजगार से छुटकारे की बात जोरदार ढंग से कही थी। तब सुदर्शन-वाल्मीकि समाज के नेता और सभी लोग मेरे विचार और भावनाओं से प्रभावित हुए। बूटासिंह ने मेरी प्रशंसा करते हुए कहा था -"सुशीला बहन जैसी हमारी महिलाएँ सामने आयेगीं तो हमारे समाज की प्रगति जरूर होगी।" उनके द्वारा बहन कहे जाने पर मुझे बहुत गौरव का अनुभव हुआ था। इसके बाद मैं बहुत आत्मविश्वास के साथ, अपनी जिम्मेदारी समझकर समाज-प्रबोधन के कार्यक्रमों में जाने लगी थी। अपनी सामर्थ्य और सीमा के अनुसार समाज का मार्गदर्शन करने लगी थी।
मुझे शुरू से नागपुर के अपने जाति-समुदाय का बहुत सम्मान और विश्वास मिला है। कई बार तो उनके श्रद्धा-सम्मान की मैं ऋणी होने का अनुभव करती रही हूँ और इसके बदले अपने समाज की जागृति-प्रगति में अपना सहयोग हमेशा देते रहने का दृढ़ निश्चय कर, अपना कर्तव्य पूरा करती रही। इसके साथ मैं घर और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाती रही।

पिंकी बेटी का जन्म अक्टूबर 1980 में हुआ था। घर का काम और जिम्मेदारियाँ बढ़ गये थे। बच्चों को सम्भालने के लिए कुछ महीने चचेरी ननद की बेटी कभी मीना, कभी माया हमारे साथ रही थीं। उनके न रहने पर गिरधारीलाल सोलंकी जी के घर उनकी मिसेस और बच्चों के भरोसे रोती हुई बेटी को छोड़कर मैं अपने स्कूल की नौकरी पर जाती थी। बेटी के साथ कुछ कपड़े और दूध की बोतल रख देती, बच्ची रोती रहती थी। शरद बेटे का एडमिशन गाँधीबाग के ‘लिटिल फ्लॉवर’ कान्व्हेन्ट स्कूल में कर दिया था। बेटे की उम्र कम थी। उसे 11 बजे कान्व्हेन्ट में छोड़ देते। बच्चा कभी रोता, कभी सोता रहता। तीन बजे हमारे स्कूल में ले आते थे। पिंकी को कभी सोलंकी जी के घर, कभी किसी रिश्तेदार के घर छोड़ते, शाम 5 बजे गुमसुम, उदास दोनों बच्चों को लेकर घर आते थे।

1981 में हमने मानेवाड़ा रोड के तुकड़ोजी चौक पर मकान खरीदा। यह कम इनकम-वालों के लिए बनाए गये एल.आई.जी. हाऊसिंग बोर्ड के एक कमरा, एक किचन का ब्लॉक था। यह घर मेरा फंड निकालकर लगभग 15 हजार रुपये में खरीदा था। उस समय हमारे लिए 15 हजार रु. भी बहुत बड़ी रकम थी। पहली बार अपने खरीदे हुए घर में आकर मुझे बहुत खुशी हुई थी। 10x20 फुट के इस घर में 10x10 का एक कमरा था। वही हमारा ड्राईंग रूम था, वही बेडरूम, वही स्टडी रूम था। छोटासा किचन था, सामने 2 फुट चौड़ी गैलरी थी।

गैलरी में खड़े होने पर तुकड़ोजी चौक से दूर तक नजारा दिखता। स्कूटर, गाड़ियाँ सतत् प्रवाह के रूप में सड़क पर दिखते। रात में सड़कों पर दूर तक स्ट्रीट लाईट की कतारें दिखतीं। सड़क के किनारे, हरे-भरे झाड़ों पर सुबह-शाम पक्षी चहचहाते। गैलरी से ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय का सौन्दर्य दिखाई देता। तब मैं देर तक बाहर खड़ी रहकर आसमान का सौन्दर्य देखती थी। पक्षियों का स्वर मन में उल्लास भर देता था। गरमी के दिनों में हम अपने ब्लाक की छत पर सोते, तब मैं सोने के पहले ढेर सारे तारों को देर तक देखती थी। ऐसा सुख पहले नहीं मिला, यहाँ आकर सुकून मिला था, फिर भी थोड़ी खुशी, थोड़े सुख के साथ समस्याएँ और अशांति साथ-साथ ही रहते थे।

 

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कुछ अंश
पृष्ठ १९०-२०५ तक

यदि मेरे जीवन में इतने आक्रोश के क्षण नहीं आते तो शायद मैं अपनी ऐसी रचनाएँ नहीं लिख पाती। यह आक्रोश मेरे साथ हुई हिंसा का परिणाम था। मानसिक और शारीरिक पीड़ा पहुँचाकर मुझे इतना तड़पा दिया जाता कि मेरी भावनाओं का लावा फूट पड़ता था। गुस्से में यदि कभी कुछ कहती तो ऐसे समय मुझे यही सुनना पड़ता - "तेरा मुँह गन्दगी की गटर है। जब भी मुँह खोलती है, गटर की गन्दगी उगलती है।" उस समय लगता ही नहीं था कि यह मेरा पति है। पति क्या ऐसा दुश्मन होता है? गुस्सा क्या सिर्फ इन्हें आता है? मुझे नहीं आता? गुस्सा आने पर क्या मैं एक-दो बात भी नहीं बोल सकती?

मैं जो बोलती हूँ , वह गलत नहीं, यह जानते हुए भी मुझे बोलने क्यों नहीं दिया जाता? छोटी-छोटी बातों को मेरी गलती बताकर, मारपीट से भयभीत करके सच्चाई को कहने नहीं देते, क्या यह मेरे साथ अन्याय नहीं था? समझदार, समाज सुधारक पति, मुझे सच्चाई क्यों नहीं कहने देते? सच्चाई को क्यों कबूल नहीं करते? इसका उत्तर मुझे कभी नहीं मिला। मैं कितने बरसों तक इन स्थितियों का सामना करती रही, कितने बरसों तक मैंने मानसिक यातना-वेदना को सहा है। क्या मुझे एक बार भी इन बातों को बताने का हक नहीं? मुझे यह हक है। समाज में न जाने कितनी स्त्रियाँ जीवन भर पति का जुल्म सहती हैं। कई तो पति द्वारा जान से मार दी जाती हैं फिर भी वे मरते दम तक पति को दोष नहीं देतीं। स्त्रियों का यह संस्कार, यह आदर्श ही पुरूषों को निरंकुश बनाता है। पुरूष वर्ग स्त्रियों से हमेशा यही उम्मीद रखता है कि स्त्रियाँ उनकी कमजोरी और गलती न बताएँ।

1990 में नागपुर में प्रा. कुमुद पावडे से भेंट हुई थी, तब वे नागपुर के मॉरेस कॉलेज में संस्कृत विषय की प्राध्यापिका थी। उनके साथ मैं भी महिला मुक्ति और समाज जागृति के आन्दोलन से जुड़कर कार्य करने लगी। इसके पहले से मैं विशेष रूप से सफाई कामगार जाति समुदाय की जागृति के लिए टाकभौरे जी के साथ काम कर रही थी।

यह काम भी साथ-साथ चलता रहा। महिला जागृति संस्था की महिलाओं के साथ मैं भी महाराष्ट्र के छोटे-छोटे गाँवो और शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में भाषण देने जाती थी, देश के बड़े-बडे़ शहरों में भी जाती थी। कार्यक्रमों में पुरुषों के अत्याचारों और महिलाओं के शोषण को देख-सुनकर मुझे भी अपने शोषण का आभास होता था, इस बात पर दुख होता था, क्रोध आता था। मगर न जाने क्या बात थी, इसे समझकर भी मैं अपने प्रति घरेलू हिंसा के व्यवहार को पूरी तरह बदल नहीं सकी। इसका एक कारण मेरा स्वभाव था। मैं समय बीतते ही बातों को भूलकर सहज रूप से सोचने लगती थी। दूसरा कारण टाकभौरे जी का स्वभाव था, वे अवसर देखकर अपना व्यवहार बदल लेते थे।

मैं महिला जागृति के कार्यक्रमों में जाकर, महिलाओं को अपने अधिकार छीनकर लेने वाली साहसी और विद्रोही बनने के प्रेरणादायी भाषण देती थी। लेकिन स्वयं अपने घर में अपने शोषण का मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पाती थी। प्रा. कुमूद पावडे़ हमेशा मुझे कहती थी -"सुशीला महिला मुक्ति की बात करती है मगर खुद अपने पति का पागड़ा सिरपर लेकर (पति की सत्ता को मानते हुए) चलती है।

महिला जागृति के कार्यक्रमों में एक सत्र ‘आप बीती’ बातों और ‘अनुभव कथन’ पर होता है। महिलाएँ अपने घर में पति के दुर्व्यवहार को और अपने साहस, विरोध, विद्रोह को बताती थी। वहाँ मैं चुप रहती थी। तब मैं सोचती थी, अपने घर की बातों को बताने से टाकभौरे जी की ‘इमेज’ खराब होगी। लोग उन्हें बुरा समझेंगे। जब एक साथ रहना है तो सबके सामने यह सब क्यों बताना? अब मुझे लगता है, जब जीवन ही बीत चला है और मैं उन्हें अभी तक इसका जवाब नहीं दे सकी हूँ , तो यह सब बताने में क्या हर्ज है? मेरे साथ हुए अन्याय का कुछ तो प्रतिकार होना चाहिए। सच्चाई उन्हें भी मालूम होनी चाहिए।

‘दलित महिला आंदोलन’ के द्वारा महाराष्ट्र में 1975 के बाद स्त्रियों की सामाजिक, पारिवारिक प्रमुख समस्याओं के निराकरण पर बहुत काम हुआ है। तब महिलाओं की घरेलू हिंसा और पारिवारिक, सामाजिक शोषण की समस्या को व्यक्तिगत न मानकर विश्वस्तर पर संपूर्ण स्त्री वर्ग की समस्या माना गया। 1994 में तिरूपति में ‘अखिल भारतीय स्त्री संगठन’ के सम्मेलन में दलित स्त्रियों ने बड़ी सँख्या में भाग लिया था और उन्होंने दलित स्त्रियों की समस्याओं पर प्रश्न उठाये थे।

1975 से 1994 के बीच महाराष्ट्र में ‘महिला मुक्ति आंदोलन’ से जुड़ी महिलाओं ने अधिक सक्रिय होकर, हर जाति- हर वर्ग की शिक्षित, समझदार महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने का काम किया। इस तरह मैं भी उनकी संस्थाओं से जुड़कर महिला मुक्ति आंदोलन से जुड़ गई। मेरा परिचय मिलने पर संस्थाओं ने स्वयं मुझे आमंत्रित किया था। उन महिलाओं के साथ कार्यक्रमों में जाने के लिए मैंने दूर-दूर की यात्राएँ की।

सितम्बर 1995 में बीजिंग (चीन) में ‘विश्व महिला परिषद’ में विश्व स्तर पर महिलाओं के शोषण की समस्या उजागर हुई थी। महाराष्ट्र में पूना की ‘आलोचना’ संस्था और मुंबई, गुजरात की अनेक स्त्रीवादी संस्थाओं ने स्त्री जागृति के कार्यक्रम आयोजित करके बीजिंग में हुए ‘विश्व महिला परिषद’ के महिला विमर्श की चर्चा की थी। तब मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ था कि सभी देशों में महिलाओं का शोषण होता है। डॉ. अम्बेड़कर, महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की प्रेरणा से स्त्री जागृति का आंदोलन बड़े पैमाने पर सभी प्रांतों में चलाया जा रहा था। बंगलोर की रूथ मनोरमा ने भारत के कई प्रांत के अनेक शहरों में ‘महिला सम्मेलन’ लेकर महिला आंदोलन चलाया है। प्रा. कुमुद पावड़े के साथ मैं अधिकतर कार्यक्रमों में जाती थी। मैं भी इन संस्थाओ से जुड़कर महिला जागृति के विचारों का प्रचार-प्रसार करने लगी थी, साथ ही अपनी शोषित, पीड़ित स्थिति को भी महसूस कर रही थी।

प्रा. कुमुद पावडे़ ने महिला मुक्ति आंदोलन से जुड़ी नेता और कार्यकर्ता महिलाओं के सामने मुझे सुनाते हुए कई बार कहा था -"आज भी महिलाओं का शोषण होता है, आज भी बीस साल के अंतर के अनमेल विवाह होते हैं। सुशीला टाकभौरे इसका उदाहरण है।" यह सुनकर मुझे संकोच और दुःख होता था कि मेरे साथ ऐसा हुआ। केवल इतना ही नहीं, टाकभौरे जी मुझे इतना डराकर रखते थे कि मैं सवाल-जवाब न करने लगूँ। सवाल करूँ भी तो जवाब देने की जरूरत न समझी जाये। वे यह सत्य जानते थे, मगर बताना चाहते थे, ऐसा कुछ नहीं है। वे ऐसा जानबूझकर करते थे। उन्होंने कई बार कहा था -"तू नहीं जानती, तू कितनी बदसूरत है। वो तो मैं हूँ जो तुझे निभा रहा हूँ। " वे मुझे बदसूरत कहकर नगण्य बताते थे। इन बातों से मैं दुःखी हो जाती थी। इसके साथ उनकी लगातार बीमार तबीयत, हर समय पेट दर्द, गैस ट्रबल, एसीडिटी देखकर मैं तंग आ गई थी। गुस्सा भी आता था।

शंकर भैया तुकडोजी चौक के हमारे घर आये थे तब मैंने मानो हारकर कहा था -"भैया, यह सब देखते-सुनते मैं थक गई हूँ, अब और नहीं सहा जाता।" शंकर भैया चुप रह गये थे। मैं उन बातों को याद करती हूँ तो बहुत दुख होता है, साथ ही आश्चर्य भी, मैं इतने साल तक इस तरह कैसे रही? मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ। मैं अनपढ़, गँवार नहीं थी, मैं लावारिस-अनाथ भी नहीं थी। ऐसा भी नहीं कि धन, ऐश्वर्य भोगने के लालच में मैंने इनसे शादी की हो, फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? इसका जवाब कौन देगा?

एक बार नेमावर गाँव के दूर के रिश्ते के भाई कैलास घांवरी नागपुर आये थे। वे साधु सन्तों से भी जुड़े थे और कांग्रेस पार्टी के साथ राजनीति से भी। नागपुर आने का उनका मकसद था, वे यहाँ के अनाथाश्रम की लड़की से विवाह करना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे ऐसा करने पर उन्हें सरकारी मदद मिलेगी और यश भी मिलेगा। उनके साथ मैं और टाकभौरे जी श्रद्धानंदपेठ के ‘अनाथाश्रम’ गये। वहाँ के व्यवस्थापक बहुत खुश हुए कि एक अनाथ लड़की का जीवन सँवर जायेगा। उन्होंने पूछा - "लड़का कहाँ है?" कैलास भैया ने कहा -" मैं ही लड़का हूँ।" व्यवस्थापक उन्हें देखता रह गया। उस समय भैया की उम्र 35 साल के आसपास थी। लंबे बाल, भगवा लंबा कुर्ता, लुंगी में वे ‘लड़का’ नहीं दिख रहे थे। व्यवस्थापक ने कहा -" हमारे यहाँ बड़ी लड़कियाँ 18-20 साल की ही हैं। इतनी कम उम्र की लड़की का विवाह आपके साथ नहीं कर सकते।" तब हम लौट आये थे।

मेरे मन में ये बातें बहुत दिनों तक उमड़ती-घुमड़ती रही थीं। अनाथाश्रम के व्यवस्थापक भी अनाथ लड़कियों के भविष्य की, उनके सुखद वैवाहिक जीवन की और उनकी सही जोड़ी बनाने की चिंता करते हैं। मेरे माता-पिता और भाई-भाभी ने क्या मेरे भावी जीवन की चिंता नहीं की होगी? क्या टाकभौरे जी ने यह बात नहीं समझी होगी? मैंने जो सपने विवाह के पहले देखे थे, वे तो कभी पूरे हुए ही नहीं! हमउम्र साथी का साथ मिला ही नही! अब तो उम्र बीत चली है, क्या वे दिन कभी लौटकर आयेंगे? यह एक स्त्री का दुख नहीं है , न जाने कितनी स्त्रियाँ मेरी तरह जिंदगी का संताप भोगती हैं। न शिकवा, न शिकायत ! जिंदगी का जहर चुपचाप पीते रहना, वे अपनी किस्मत मान लेती हैं। यह परंपरा टूटनी चाहिए। स्त्रियाँ स्वयं अपना दुख बतायेंगी, अपने कष्ट और अन्याय की बात स्वयं कहेंगी, तभी लोग इन बातों को समझेंगे। जो स्त्रियाँ कभी घर से बाहर नहीं निकल पातीं, उनको शोषण, उत्पीड़न के साथ शारीरिक और मानसिक पीड़ा सहने का सन्ताप होता है, लेकिन जो स्त्रियाँ घर से बाहर की दुनिया से जुड़कर भी, शोषण -उत्पीड़न सहते हुए शारीरिक और मानसिक पीड़ा सहती हैं, उनका सन्ताप कहीं ज्यादा होता है।

डॉ. विमल कीर्ति द्वारा दो बार 1993 और 1995 में नागपुर में आयोजित, फुले-अंबेडकर साहित्य लेखक सम्मेलन में अनेक दलित साहित्यकारों से भेट हुई थी। ओमप्रकाश वाल्मीकी जी और दयानंद बटोही जी ने मुझे अनेक दलित साहित्यकारों और दलित पत्र-पत्रिकाओं की जानकारी दी थी, जिससे प्रेरणा मिलती रही। कुछ लोगों के पत्र आते थे। मैं भी प्रसन्नता के साथ उन्हें पत्र भेजती थी। मैं पहले हर काम पति से पूछकर ही करती थी। इसे मेरी मानसिक कमजोरी माना जा सकता है। बचपन से ऐसे वातावरण में पली बढ़ी थी कि अपना निर्णय खुद लेने की क्षमता नहीं आ सकी थी। मेरी इस स्थिति से मुझे नुकसान भी बहुत हुआ और अपमान, उत्पीड़न भी सहना पड़ा। किसी को पत्र लिखना हो, तो जैसे पहले पति से अनुमति लेती थी कि इन्हें पत्र लिखना है, लिखूँ या नहीं लिखूँ। यदि वे चाहें तो बड़े जोर-शोर से उसके विरूद्ध नकारात्मक वातावरण बना देते थे, तब पत्र लिखने का विचार ही खत्म हो जाता था। यदि कभी वे चुप रहकर सहमति दे दे, तब मैं खूब सोच-विचार करके पत्र लिखती, फिर इन्हें दिखाती थी। वे एक-एक पंक्ति का पोस्टमार्टम करते। कभी मुझे इतना बेवकूफ साबित कर देते कि मैं शून्य बनकर रह जाती। कभी पत्र में लिखी सामान्य बातों का इतना बतंगड़ बना देते कि मैं उनकी बातों से नाराज हो जाती और पत्र के टुकडे-टुकडे कर देती। तब वे चुप हो जाते जैसे इसमें उनकी मौन सहमति हो। वे सामान्य भाव से हँसते-मुस्कराते अपने काम में लग जाते और मैं कई-कई दिनों तक इन बातों को याद करके जलती-भुनती, कुढ़ती, पछताती रहती। कई महीने बीत जाते मगर पत्र लिखना और भेजना रह जाता।

हो सकता है, इसमें मेरी ही गलती अधिक रही हो, मगर धीरे-धीरे मैं यह बात समझने लगी कि मेरे साथ जानबूझकर ऐसा किया जाता है। तब मैं पत्र लिखने के बाद ही इन्हें बताती, इनकी काट-छाँट की बातें सुनकर पत्र में थोड़ी काट-छाँट कर देती और पत्र लिखकर भेज देती। फिर मुझे यह समझ में आने लगा कि पत्रों में हमेशा काट-छाँट की जरूरत नहीं रहती है, फिर भी जानबूझकर दबाव डालकर, मानसिक तनाव देकर यह मुझसे करवाया जाता है। ऐसा न करने पर घर का वातावरण, आपसी व्यवहार बिगड़ता। मुझे उनकी उपेक्षा, अवहेलना, नाराजी और क्रोध का शिकार बनना पड़ता। ताने मसलों के रूप में कई-कई दिनों तक जली-कटी बातें सुनना पड़ता। ऐसी स्थितियों से तंग आकर मैंने भी थोड़ी होशियारी से काम लेना शुरू किया। मैं पत्र लिखकर बिना इन्हें पढ़वाये चुपचाप पोस्ट करने लगी। परिस्थितियों के साथ मैं कई बातें सीख रहीं थी, आत्मविश्वास के साथ अपने निर्णय खुद लेने लगी थी।

पत्रोत्तर आने पर इन्हें आश्चर्य होता कि उन्हें पत्र कब भेजा था? मैं कभी गोलमाल उत्तर देती, कभी चुप रहती। तब किन्हीं दूसरी बातों के कारण मुझ पर नाराजी बताकर भड़ास जरूर निकाली जाती। धीरे-धीरे मैं मजबूत बनती गई। मेरे बदलते व्यवहार को देख, वे भी चुप रहने लगे थे। फिर भी कभी-कभी व्यंगपूर्ण कठोर बातें सुनना ही पड़ता था -"अब तो खुद को बहुत विद्वान समझने लगी है। अकल दो कौड़ी की नहीं है, अगर मुझे पूछती तो मैं बताता, पत्र कैसे लिखते हैं? और पत्र में क्या-क्या लिखना था।" यद्यपि यह सच है, टाकभौरे जी जितने जानकार और विद्वान हैं, कोई दूसरा दलित पुरुष उनके समान अध्ययनशील, विद्वान नहीं दिखा, मगर वे अपनी विद्वता के सामने मुझे हमेशा नगण्य ही मानते रहे, इस बात का मुझे दुख होता था।
कभी मैं भी अक्ल की दुश्मन की तरह बात के पीछे लट्ठ लेकर दौड़ती और कह देती -"तुमसे पूछकर पत्र लिखती तो तुम लिखने ही नहीं देते। तुमको दिखाकर पत्र भेजती तो तुम भेजने ही नहीं देते। तुम यही चाहते हो, मैं हर काम तुम से पूछकर करूँ। तुम्हारी बैसाखी के बिना कभी एक कदम भी न रखूँ।" यह सुनते ही इनका अहं चोट खाकर आहत हो जाता। फिर मुझे पूरी तरह निर्बल, अबला साबित करने के लिए बलप्रयोग किया जाता। हड्डी-पसली तोड़ने के लिए लात-घूंसों का प्रयोग करके मुझे सिर से पैर तक दर्द ही दर्द में डुबा दिया जाता। फिर भी मैं खुश रहती कि मैंने सही बात कह दी है। वे अपना बदला कई दिनों तक निकालते। मैं कई दिनों तक शारीरिक और मानसिक पीड़ा सहती। मुझे लगता था कि सही बात कहने से वे उस बात को समझेंगे और अनजाने में हुई ऐसी बातें न करके आगे भविष्य में मुझे अपना सहयोग देंगे। मगर उनका रवैया नहीं बदलता, ताड़ना-प्रताड़ना के हथकंडे बदलते रहते। सहते हुए, सुनते हुए, सोच-सोचकर मैं ऐसे रास्ते निकालने का प्रयत्न करती कि उनके अहम् को धक्का भी न पहुँचे और मेरा काम भी होता रहे। यह सब सहज रूप से होना कठिन था।

धीरे-धीरे मुझे ही बदलना पड़ा। मेरा बदलना ही मेरे लिए लाभप्रद हो सका। मैं अपना लेखन और पत्र व्यवहार का काम अपनी मन-मर्जी से करने लगी। बिना इनसे पूछे, बिना इनकी राय लिए अधिक उत्तम ढ़ंग से अपना काम करती। इसके साथ उनके गुस्से और लड़ाई-झगड़े का सामना भी करती रहती। लेखिका होने की मेरी यह यात्रा शुरू से ही बहुत कष्टपूर्ण रही है। शारीरिक कष्ट के साथ मानसिक संताप को सहते हुए मैं अपनी इस यात्रा में आगे बढ़ती रही। जो संघर्ष मुझे घर से बाहर, दूसरों के साथ करना पड़ा, वैसा ही संघर्ष घर में अपनों से भी करना पड़ा। लेखन के साथ प्रकाशन का कार्य भी मैं बहुत कठिनाईयों के बीच संघर्ष करके कर सकी थी। लगातार उपेक्षा, अवहेलना और झगड़ा-लड़ाई से मैं परेशान हो जाती थी।

एक बार मैंने कॉलेज में अंग्रेजी की प्रा. रेखा महाजन के सामने यह बात रखी -"हमेशा मुझे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। बिना बोले मुझसे रहा नहीं जाता और बोलने के बाद की तकलीफ कई गुना और कई दिनों तक सहना पड़ता है।" मैड़म ने मुझे बहुत प्यार और अपनेपन से समझाकर बताया था -

"आपको नहीं मालूम? इसका बहुत बड़ा गुरूमंत्र है। जब आपके पति कुछ बोलते हैं तो आप चुप रहना, मगर मन ही मन उन्हें खूब गालियाँ देना। जो कुछ कहना हो तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, प्रतिवाद सब मन ही मन करना। उन्हें कुछ न सु्नाना, मगर अपने मन में खूब बोलना, जी भरकर बोलना। देखना वे कैसे तुरन्त चुप होते हैं? उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि आपने क्या कहा और आप अपने मन की बात भी कह लोगी। वे भी अकेले हवा मे कहाँ तक, कब तक लड़ेंगे? खुद ही चुप हो जायेंगे। देखो मैड़म, आज से ही मेरा नुस्खा आजमाना शुरू कर देना। आप भी खुश, मियाँ जी भी खुश, झगडा़ खत्म।" यह बताकर अपनी मुक्त – हँसी के साथ उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया था।

प्रा. रेखा की बातें सुनकर मुझे हँसी आई, साथ ही बुरा भी लगा - "कोई पत्नी अपने पति को गाली दे, क्या यह अच्छी बात है? भले ही मन में दो, गाली तो गाली है न?" लेकिन जब दूसरे ही दिन ऐसी स्थिति आई और मेरा मन गुस्से में आग बबूला होने लगा तब और कोई चारा न देखकर मैंने मैडम का नुस्खा अपनाया। उस समय गुस्से में मन ही मन गाली देना बुरा नहीं लगा। साथ ही अच्छा लगा कि जो जैसा है उससे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। बेकार की बातों से किसी का जीना हराम करना, क्या ऐसा करना अच्छी बात है? नाक में दम आ जाता था। हमेशा इनके बड़प्पन को झेलते रहो, इनके सामने भीगी बिल्ली बने रहो। किसी बात का सही जबाब देना भी मुश्किल कि जबाब देकर इनकी तोहीन कर दी। बाप रे बाप, क्या आतंक था।

फिर मैं अक्सर इसी नुस्खे को अपनाने लगी। ऐसे समय मुझे अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शब्दशक्ति से पूर्ण अच्छी-अच्छी गालियाँ याद आतीं। मैं गुस्से से भरकर मन ही मन गालियाँ देती और गाली देकर मुस्करा लेती। झगडे़ के बीच मुझे हँसते-मुस्कराते देख इनको बहुत हैरत होती कि यह ईंट का जवाब पत्थर से देने के बदले मुस्करा क्यों रही है। इसका गुस्सा कहाँ गया? इसके तेवर क्यों बदल गये? ये क्या सोचकर हँस रही है। कहीं मेरी किसी कमजोरी का मजाक तो नहीं उड़ा रही है? तब वे और विकराल रूप में झगड़ा बढ़ाते, गुस्सा करते, मारने के लिए लपकते। मैं शांत भाव से इनको समझाकर झगड़ा खत्म करने की कोशिश करती और मन ही मन बहुत कुछ कहती रहती। बाद में जब भी ऐसी घटना होती, मुझे रेखा मैड़म की याद आती थी। उन्होंने मेरी कितनी बड़ी समस्या को इतने आसान तरीके से सुलझा दिया था। 15 वर्ष बीत गये थे, कभी प्रति दिन, कभी चार-आठ दिन में ऐसे प्रसंग आते ही रहते थे। मैडम नौकरी छोड़कर पूना चली गई मगर उनकी स्मृति जीवन में इस नुस्खे के साथ मीठी याद बनकर रह गई।

लेखन के क्षेत्र में पहले मुझे अजीब परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। यद्यपि उन परिस्थितियों का कारण मैं स्वयं थी। मेरा स्वभाव और व्यवहार इसके जिम्मेदार थे। आत्मविश्वास की कमी के कारण मुझे इस तरह भी जूझना पड़ा। इसके साथ शारीरिक और मानसिक सन्ताप भी सहना पड़ा था। पहले जब मैं कोई कहानी लिखती थी तब पहले पाठक के रूप में पति से ही पढ़वाती थी। मुझे यह उम्मीद रहती थी, वे मेरे लेखन की अच्छाई-बुराई बताकर मेरा मार्गदर्शन करेंगे। मगर मेरे लेखन को देखने का इनका तरीका हमेशा अलग ही रहता था। कभी खूब गंभीर मुद्रा बनाकर कागज देखते, कुछ पढ़ते, फिर निर्विकार भाव से पटक देते। मैं पूछती ही रहती - "बताओ न ... बताओ न।"

वे कुछ बताते ही नहीं। इनकी खुशामद करने के लिए मैं इन्हें अच्छा खाना बनाकर खिलाती, कपडे़ धोती, घर के काम संबंधी इनकी हर बात को मिनटों में, सैकन्ड़ में पूरा कर देती। फिर भी वे अपना मुँह नहीं खोलते। मैं भी ऐसे समय में ऐसी पगला जाती थी कि जैसे वे जो कहेंगे उसी से सही मार्गदर्शन मिलेगा, यह मान बैठती।

मेरी इस भावना को समझकर वे बात को रबर की तरह खींचते रहते। बड़े मनीषी की तरह गंभीर मुद्रा बनाये रखते, मानो कितनी बड़ी बात है जो वे कहने की तैयारी कर रहे हैं। मैं भावनाओं में डूबी इनका मुँह देखती रहती और इधर-उधर की बातें करते हुए इनके निहोरे करती रहती। बहुत बाद में वे कहानी संबंधी छोटी सी बात कहकर अपनी बात खत्म कर देते। तब मुझे लगता - "खोदा पहाड़ निकली चुहिया! क्या सिर्फ इतनी-सी बात सुनने के लिए मैं इनको इतना मक्खन लगा रही थी?" बार-बार पूछने पर भी वे कहानी की कोई बात नहीं बताते। मैं निहोरे कर-कर के पूछती रहती। बाद में वे निर्णय रूप में कह देते -"बताने लायक कोई बात ही नहीं है।" मैं चुप रह जाती। क्या यही सुनने के लिए मैं यह सब करती हूँ, सोचकर खुद पर अफसोस होता। तब बहुत दिनों तक एक खालीपन लगता रहता, जैसे तेज लहरों के ज्वार के बाद भाटा की लहरें अपने उद्गम में लौट जाती हैं। मन में विरक्ति छा जाती। कई दिनों, महीनों तक कहानी का फिर से देखने-पढ़ने का मन नहीं होता, जैसे सब कुछ निरर्थक हो।

टाकभौरेजी ने बहुत साहित्य पढ़ा था। वे अच्छी जानकारी रखते थे। मौखिक आलोचना-समीक्षा भी करते थे। इस कारण मुझे उनसे बहुत अपेक्षा रहती थी। कभी अच्छी राय भी बताते थे मगर अधिकतर नाटकीय तरीके से टाल देते थे। इसके पीछे यही विचार रहता था- मैं लेखन-प्रकाशन के बदले सामान्य रूप से नौकरी करती हुई घर-परिवार सँभालती रहूं, एक सामान्य स्त्री का जीवन जीती रहूँ।

लेख लिखने के बाद इनको दिखाकर तो जैसे मैं मुसीबत को मोल लेती थी। अक्सर मेरे लेख के हर वाक्य को नकारा साबित करते हुए, वे अपनी बात कहते। मेरे हर विचार के बदले दूसरे विचार रखकर मेरे पूरे लेखन को कचरा साबित कर देते। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ देखती रह जाती -"क्या इसी कचरे को मैं इतने मनोभाव के साथ श्रृंखलाबद्ध विचारों के रूप में संजो रही थी?" तब मन कड़वा हो जाता। वे विचार, वे भाव, कई दिन, महीनों और वर्षों तक फाईल में बन्द पड़े रहते। जब भी उन्हें दोबारा देखती, वे कचरा ही नजर आते। मुझे अपना लिखने-पढ़ने का काम व्यर्थ नजर आता। मैं इस ओर से ध्यान हटाकर घर परिवार के काम में और नौकरी संबंधी जिम्मेदारियों में लीन हो जाती।

मेरे साथ यही होता रहा, बड़ी हुनरबाजी से ऐसा किया जाता। देखने में यही लगता, कुछ नहीं कहा, कुछ नहीं किया मगर असर मेरे मन की सब परतों को निष्क्रिय बना देता। तरीका यह था, लोहे को खूब गरम करके हल्की चोट से ही मन के मुताबिक आकार दे दिया जाता। यह काम धीरे से किया जाता और मैं अपना सिर दीवारों से टकराती रहती। मन में यह हताशा रहती -" मैं कुछ नहीं कर सकती, मैं कितनी नाकाबिल हूँ! मैं क्यों कुछ नहीं कर पाती? मैं यह सब (लेखन) करती ही क्यों हूँ?" मन कई दिनों तक अशांत रहता। मुझे उदास-मन या विचलित हृदय देखकर टाकभौरे जी सहृयता के साथ कभी प्रा. गोकुलप्रसाद साहू, प्रा. हरभजनसिंह हंसपाल, प्रो. रामेश्वर शर्मा और डॉ. शास्त्री मैडम से भेंट कराने ले जाते। तब मैं हजार-हजार मन से इनकी एहसानमंद हो जाती कि मैं इतनी नालायक हूँ, वे ही मुझे पत्थर से प्रतिमा बना रहे हैं।

वैसे यह सच हैं, नागपुर आने के बाद टाकभौरे जी से मुझे लाभ भी बहुत मिला है। उनकी जानकारी, उनका अध्ययन, उनके संपर्क का लाभ जाने-अनजाने मुझे मिलता रहा। जो लाभ वे खुद के लिए नहीं ले सके, वह लाभ मुझे मिला। प्रकाश हाईस्कूल में नौकरी के साथ मेरी सफलता की यात्रा शुरू हुई, जिसका वे एहसान भी खूब जताते थे। मैं भी उनका एहसान मानते हुए अन्य बातों को भुला देती। मैं इनके एहसान का बदला कई दिन तक चुकाती। इनकी जी-हजूरी करती रहती। यद्यपि इसके साथ अपनी प्रगति का मार्ग भी बनाती रही, जिसका फायदा मुझे लगातार मिलता रहा। लेकिन यह किस कीमत पर मिला, इसकी लम्बी कथा है।

मैं एक सतर्क नौकरानी की तरह हर काम के लिए तुरन्त हाजिर रहती थी। तब वे भी तरह-तरह के तरीके अपनाकर मुझे अकबकाने की स्थिति में और डाँट-फटकार की बातें सुनने की स्थिति में पहुँचा देते थे। अक्सर ऐसा होता, वे देख लेते, मैं सामने नहीं हूँ तब बहुत धीरे से कहते - "पानी देना।" मुझे पता ही नहीं चलता, कब किसने क्या कहा। मैं आराम से अपना काम करती रहती। तभी वे गरजते -बरसते मेरे ऊपर आक्रमण कर देते -"जान-बूझकर नहीं सुना। सुनकर भी पानी नहीं दिया। पानी को तरसा दिया। प्यासा मार डाला?" मुझे बड़ी हैरत होती। मैं सोचती - 10x20 फुट के घर में अपने हाथों से पानी लेने भला इन्हें कितनी दूर जाना पड़ता?

जब मैं उनके सामने होती, वे बड़े नाटकीय ढँग से कहते -" गुण्डी में पानी है?" मैं तुरन्त जाकर देखती और आकर बताती - "हाँ, है।" वे धीरे-धीरे मुस्कराते रहते। मुझे समझ ही नहीं आता, ऐसा क्यों पूछा। मैं नासमझी में दूसरे काम में लग जाती। तब वे गुस्से से एकदम सिर पर सवार जैसे नजदीक आकर कहते -" मूर्ख, बेवकूफ, तुझे इतनी समझ नहीं है, मैंने पानी के लिए क्यों पूछा? गुण्डी में पानी है, यह तो मुझे भी मालूम था, मगर तेरे दिमाग में गोबर है, भूसा है। इतना नहीं समझ सकी मैंने पानी के लिए क्यों पूछा?" मैं परेशान होकर कहती -"सीधे-सीधे क्यों नहीं कहा कि पानी दे दो।" मैं पानी लाकर देती, तब वे पानी का गिलास फेंक देते। घंटो गुस्सा करते, बातें सुनाते। मैं अपनी अकल पर घंटो तरस खाती और सोचती - ‘सचमुच मैं कितनी पागल हूं, इतनी-सी बात क्यों नहीं समझी?’ मैं अपना सिर धुनती रहती, वे अपना गुस्सा ताने रखते। बात कई दिनों तक खिंचती रहती। मानसिक पीड़ा से मेरा मन व्यथित होता रहता। जैसे- तैसे बात खत्म होती।

कुछ दिनों के बाद वे फिर उसी स्टाईल में कहते -"आज पानी भरा था न?" मैं "हाँ" कहकर अपने ख्यालों में खोई रहती या अपने काम में लगी रहती। फिर झगड़ा-मारपीट सब कुछ होता। कई दिनों तक वे हँसते-बोलते नहीं, बात नहीं करते, जली-कटी बातें सुनाते। मैं मूक-बधिर जैसी अपना माथा खुद फोडती रहती। बेबात की बात ऐसी बन जाती -‘आ बैल मुझे मार।’ सिर हिला-हिलाकर वे दूर से सींग मारते रहते, मैं अपने तन-मन पर उन चोटों को झेलती रहती। अक्सर ऐसे प्रसंग आते रहते।

ऐसा क्यों होता था मेरे पास? मेरा स्वभाव-व्यवहार देखकर ही ऐसा किया जाता था। मेरी कमजोरी और नासमझी को देखकर, इस तरह परेशान करके मजा लेना ही प्रमुख बात थी। झगडे का बहाना ढूँढ़कर मुझे अपने आप मे त्रस्त और व्यस्त कर देने की बात थी। कहने को वे छोटी-छोटी बातें थी मगर मेरे लिए सिरदर्द बन जातीं। उन दिनों मेरे मन में भावनाएँ खूब रहती थी, खूब अपेक्षाएँ रहती थी। कोई मेरा ख्याल रखे, मेरी सुने, हँसे-बोले, मन बहलाये, मेरी हर बात माने, मैं जैसा चाहूँ वैसा हो। मगर ऐसा कुछ होता ही नहीं था। मन हमेशा रूखा-रूखा, सूखा-सूखा, भूखा-प्यासा रहता था। लगता था जिन्दगी मशीन की तरह खट्-खट् करती चल रही है। हर बात में पति-पत्नी के बीच खटपट होती रहती थी। कभी मेरी तरफ से, कभी उनकी तरफ से। मेरा तो किसी भी बात में एक शब्द भी बोलना गुनाह था। और यह गुनाह करके मैं पूरी सजा पाती थी। तब कई दिनों तक लगता था, मैं जिन्दा ही नहीं हूँ , चलती-फिरती लाश हूँ।

बहुत बाद में मैं इस बात को समझ पाई, मुझे लगातार ऐसी स्थिति में उलझाकर रखा जाता था ताकि मैं सहज न रहूँ। गुस्से में रहूँ या उदास रहूँ। पति से कुछ अपेक्षा न करूँ, न प्यार की न अपनेपन की, न जिम्मेदारी की। कभी कोई शिकायत न करूँ। अपनी दुनिया में खोई रहूँ। अपनी मानसिक यातना में उलझी रहूँ। अपनी जिम्मेदारी यंत्रवत निभाती रहूँ। मैं कई बरसों तक ऐसे मानसिक शोषण से त्रस्त रही थी।

ऊपर-ऊपर देखें तो जीवन में सब सहज और सामान्य लगता है, मगर अन्दर, जीवन के अनेक पृष्ठों पर मन को उद्वेलित करने वाली कितनी धधकती धाराएँ बहती रही हैं, चेतना को शून्य कर देने वाली कितनी बर्फीली धाराएँ बहती रही है! ये कभी हृदय से आह बनकर धुँधले बादल बनकर छाई हैं, कभी अश्रुधारा बनकर जीवन के पटल पर छाये दुख- दर्द के बादलों को धोती रही हैं। जब कभी वे बातें याद आती हैं, तो मन में हूक सी उठती है। मैंने जीवन का यह रूप भी जीया है। जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तब यादों के साये जीवन के झरोखे से, मुझे फिर से उन बीथियों में ले जाते हैं और मैं फिर से उन अनुभूतियों को जीकर व्यथित हो जाती हूँ। किस तरह जीवन में संघर्षों से जूझती रही, संग्राम की तरह लड़ती रही, हारती रही, जीतती रही। जीतना ही उद्देश्य था। मैं कभी हताश नहीं हुई।

मेरी संघर्ष कथा में भावनाओं का अन्तरद्वंद्व बहुत है। जीवन में दिल और दिमाग दोनों का महत्व है। शरीर भले ही नगण्य हो फिर भी जीवन उसी से रहता है। तन और मन की बातें जीवन से अलग नहीं होती, भावनाएँ जुड़ी रहती हैं। इन्सान की जिन्दगी में प्यार का अपना अहम् स्थान है। यदि कोई अपनी जिन्दगी की बातें बताना चाहे तब विशेष जिज्ञासा होती है उसके व्यक्तिगत जीवन के प्रति। मेरे जीवन में भी ये बातें रहीं। यह बात अलग है, समय पर मैं इन्हें समझ नहीं सकी। जब समझी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब मैं क्या करती? कल्पना में प्यार के सपने बुनती रही, जिसे हम चाहे जिधर मोड़ सकते हैं, चाहे जैसा रूप दे सकते हैं और सुख पा सकते है। मैंने जीवन के इस अभाव को बरसों तक इसी रूप में पाया है।

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