विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

बहुत अर्से पहले प्राइमरी कक्षा में
मैंने लाइब्रेरी से ली हुई किताब गुमा दी
फिर टीचर को डरते डरते बताया
उन्होंने कहा, 'अब तुमको ही लाइब्रेरी में बंद कर दूँगी'
मैं सोचती रही कैसी लगूँगी अलमारी में बंदी होकर
सब खुली हवा में मुझे देखा करेंगे 
और मैं बन्द पसीजी रहूँगी भीतर उमस से
तब कहाँ जानती थी बंदी जीवन का इतिहास
जहाँ गहरे साँस लेने पर भी साँस ठहरा दी जाती थी 
और वर्तमान से भी कोई साबका नहीं था तब तो,
साँसें अब भी नियंत्रित हैं, जल्द ही ज्ञात हुआ मुझको।
 
घर मे कॉमिक्स पढ़ने की मनाही थी
सो मैंने संगी साथियों से माँग कर
कभी छीन कर, छुप-छुप कर पढ़ीं
चाचा चौधरी, मोटू पतलू की हरकतें
तेनाली रामा और बीरबल के क़िस्से,
 
एक दिन घर में हाथ लग गई बुद्धचरित 
जिसको पढ़ कर मन करुणा से भर गया
मगर यशोधरा कहीं नहीं थी बुद्धचरित में
यशोधरा ने क्या किया तमाम उम्र
कैसा जीवन जीया होगा सोचा मैंने कितनी ही बार!
 
इतिहास की किताबें पढ़ते हुए
राजा-रानियों के क़िस्सों में स्त्री कहीं नहीं मिली!
इतिहास के पन्नों से बेदख़ल रही
स्त्री का कहीं कोई इतिहास नहीं था
मैं स्त्री को खोजती रही तलाशती रही
उम्र के एक पड़ाव पर आकर पता चला
स्त्री गुमा दी गई थी चौके-बर्तनों में
और मैं खोज रही थी उसे किताबों में!
 
बीच सफ़र मुझे कुछ स्त्रियाँ मिलीं
जो ख़ुद ही अपनी किताब थीं,
मैं भी अपने लिए एक किताब बन गयी
इस किताब में मेरे सपनों की उड़ान थी
सुकून की नींद थी, अब सिरहाना थी किताब
किताब ने सोख लिए मेरे बहुत सारे दुख।
किताब आज भी गीली है
अपने सीलेपन से द्रवीभूत करती हैं मुझे
 
बेशक कई पृष्ठों से ग़ायब हैं शब्द
खा गए हैं दीमक उन्हें पर अर्थ मुकम्मल हैं 
एक कोमल स्पर्श अभी बचा हुआ है वहाँ
जिसे ज़माने भर की दीमक चट नहीं कर पाई
पर मैं जब भी खोलती हूँ अपनी किताब
तो मुदित हुए बिना नहीं रहती।
 
मैं  चाहती हूँ हर बच्ची के हाथ में किताब
जिसमें उसके स्वप्न ज़िंदा रहें,
उनकी उम्मीदें बरक़रार रहें
और किताबें भरी हों प्रेम के स्पंदनों से
जहाँ वो बैठ सके सुकून से
ख़ुद के साथ, ख़ुद के पास,
जैसे आजकल मैं रहती हूँ एक किताब की तरह
ख़ुद के साथ, ख़ुद के पास॥

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