विशेषांक: ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार

01 Jun, 2020

कथाकार तेजेन्द्र शर्मा से हिन्दी सिनेमा पर बातचीत

बात-चीत | डॉ. पूनम माटिया

कहानी किसी भी फ़िल्म की रीढ़ है- तेजेन्द्र शर्मा

क़रीब दो वर्ष पहले सरसरी तौर पर हुई मुलाक़ात आज इस मोड़ पर ले आई है कि दूर-भाषीय यंत्र यानि टेलीफोन और साइबर ट्रेवल यानि नेटवर्क के माध्यम से लन्दन, यू.के में रहने वाले प्रवासी भारतीय कहानीकार, उपन्यासकार श्री तेजेंद्र शर्मा जी का साक्षात्कार लेकर आप सभी के समक्ष उपस्थित हूँ। 

फ़रवरी २०१४ में दिल्ली के आज़ाद भवन में अखिल भारतीय संस्था-सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति द्वारा आयोजित एक सम्मान समारोह में २०१४ के साहित्यिक केलेन्डर का लोकार्पण होना था, जिसमें अन्य चार साहित्यकारों के साथ तेजेंद्र शर्मा जी भी थे और मैं (पूनम माटिया) भी। कार्यक्रम में सञ्चालन की ज़िम्मेदारी भी मेरी थी और चूँकि तेजेंद्र जी को सम्मान मिलना था तो कुछ दिन पूर्व ही उनके विषय में मैंने थोड़ी बहुत जानकारी गूगल और फ़ेसबुक से ढूँढ़ निकाली हालाँकि मेरी फ़ेसबुक मित्रसूची में वे पहले से ही थे। मंच पर सम्मान ग्रहण करने आते हुए तेजेंद्र जी मेरे क़रीब से निकले और बोले- ‘तुम मेरे बारे में जानती हो??’....बस ये कुछ शब्द कान में पड़े और फिर वे सम्मान लेकर मंच से उतरे और चले गए। तो मित्रो! ये थी एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात परन्तु उसी भारत प्रवास के दौरान एक अन्य कार्यक्रम में तेजेंद्र जी से फिर मिलना हुआ और वह थोड़ा बेहतर परिचय करा गया। मैंने उन्हें केलेन्डर भी भेंट किया क्योंकि उन्हें उनकी प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हों पायी थीं।

एक बहुत ही प्रचलित कहावत है आजकल –‘विश्व एक छोटे से गाँव में परिवर्तित हो गया है डिजिटल क्रांति के फलस्वरूप’ ..यह केवल कहावत ही नहीं सच भी है। जीमेल, फ़ेसबुक और ट्विटर के माध्यम से अब हमारे रिश्तों के तार भारत के विभिन्न प्रदेशों से ही नहीं, विदेश में रहने वालों से भी यूँ जुड़ गए हैं मानो बगल में रहने वाले पड़ोसी ही हों। पिछले वर्षों में साहित्यिक गतिविधियों के चलते तेजेद्र जी से यदा-कदा बातचीत होती रही... उनकी कुछ कहानियाँ भी पढ़ने का अवसर मिला किन्तु मित्रो आज बिलकुल नए कोण से मैं आपको तेजेंद्र शर्मा जी के जीवन के उस पक्ष से मिलवाने जा रही हूँ जो कविता, कहानी या फिर उनके कार्य क्षेत्र से कुछ अलग ‘भारतीय सिनेमा’ से सम्बन्ध रखता है। सच मानिए इस साक्षात्कार के दौरान मुझे महसूस हुआ जैसे भारत में रहते हुए भारतीय फ़िल्मों और उनसे जुड़े विभिन्न पक्षों के बारे में जो जानकारी मुझे है वो तेजेंद्र शर्मा जी के ज़ुबानी कोष में संगृहीत उपयोगी जानकारी के समक्ष नगण्य ही है। अचंभित होंगे आप भी जब जानेंगे कि फ़िल्में देखना एक बात है और फ़िल्मों की दुनिया को क़रीब से देखना और बात। फ़िल्मों के किरदारों को जानना, कहानीकार, पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार, गायक-गायिकाएँ, हीरो-हीरोइन, खलनायक, निर्माता-निर्देशक इत्यादि हर पक्ष और उनसे जुड़े लोगों के बारें में तेजेंद्र शर्मा जी यूँ बात करते हैं जैसे एक शोधकर्ता हों सिनेमा के। कोई पक्ष अछूता नहीं रहता... ख़ैर, अब पहेलियाँ बुझाने से अच्छा है आप उन्हीं के विचारों को जानें और देखें कि लन्दन में रहते हुए, वहाँ रेलवे में नौकरी करते हुए, कहानियाँ –उपन्यास रचते हुए ....फ़िल्में देखने के शौक़ के चलते भारतीय फ़िल्मों के बारें कितना कुछ है जो तेजेंद्र शर्मा जी आप से साझा करते हैं ........अगर मैं सही हूँ तो आपको लगेगा कि तेजेंद्र जी हिंदी सिनेमा के चलते-फिरते encyclopedia ’एनसायक्लोपीडिया’ हैं .…

पूनम माटिया

इक्कीस साल तक आपने एअर इंडिया में नौकरी की, मुंबई में रहकर, तो फ़िल्मों से आपका कुछ नाता जुड़ा। अगर हाँ तो किस तरह का?

तेजेन्द्र शर्मा

बात यह है पूनम कि जब दिल्ली में था तो रेडियो एवं टीवी के नाटकों में हिस्सा लेता था। मंच पर भी अपने जौहर दिखाने के मौक़े मिलते रहे। कहते हैं कि मैं एक सुन्दर लड़का हुआ करता था, शायद इसीलिये अपने इलाक़े की रामलीला में सीता का किरदार निभाने का अवसर भी मिला। नाटक हरिश्चन्द्र में तारामती का रोल किया।... यानि कि एक्टिंग का शौक़ तो था मगर मेरी नौकरी मुझे कई-कई दिनों तक देश से बाहर ले जाती थी इसलिये टिक कर मुंबई में रहने का मौक़ा नहीं बन पाता था फिर भी दूरदर्शन के लिये ‘शांति’ सीरियल के लेखन से जुड़ा तो अन्नु कपूर निर्देशित फ़िल्म ‘अभय’ में नाना पाटेकर के साथ काम करने का मौक़ा भी मिला। 

पूनम माटिया

अभय फ़िल्म में आप ने अभिनय किया....... ये कैसे संयोग बना? और फिर आपने आगे उसे जारी क्यों नहीं रखा?

तेजेन्द्र शर्मा

दरअसल अभय फ़िल्म के लिये अन्नु कपूर ने मेरे पुत्र मयंक को चाइल्ड हीरो के तौर पर साइन किया था। हम एक महीना गुजरात के राजपीपला महल में जा कर रहे थे। वहाँ एक कलाकार बीमार हो गया तो अन्नु ने उस रोल को निभाने की मुझ से गुज़ारिश की और मैं मान गया। इस तरह मुझे वो रोल पाने के लिये कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। क़िस्मत कुछ ऐसी थी कि मेरे सभी सीन नाना पाटेकर के साथ थे। मित्रों ने अभिनय को सराहा भी।

सच तो यह है कि मैं एक डरपोक किस्म का युवा रहा होऊँगा। एअर इण्डिया की पक्की नौकरी थी, दुनिया-जहान में घूमता था, वैश्विक ग्लैमर का हिस्सा था। शायद मुझ में फ़िल्मों में शामिल होने के लिये किये जाने वाले संघर्ष की हिम्मत नहीं थी। इसलिये फ़िल्मों, टीवी और मंच को केवल शौक़ तक रखा, उसे अपना रोज़गार नहीं बना पाया। 

पूनम माटिया

सिनेमा जगत को दूर से देखना एक बात....और उसका हिस्सा बनना एक बात...... इस विषय पर अपने विचार साझा करें।

तेजेन्द्र शर्मा

अंग्रेज़ी में एक कहावत है – All that glitters, is not Gold. बस यही मैंने देखा कि एक स्थिति को नेचुरल बनाने के लिये इतने नक़ली काम किये जाते हैं कि बोरियत होने लगती है। जिन सितारों के नाम से फ़िल्में बिकती और चलती हैं वे भीतर से कितने डरपोक होते हैं।... एक छोटी-सी घटना... अन्नु कपूर ने हमें एक सीन दे दिया जिसमें मेरा एक पाँच पंक्तियों का संवाद था। शूटिंग रात को दस बजे से शुरू होनी थी। मुझे नाना का फोन आया, “अरे यार शर्मा जी, तुम बुरा तो नहीं मानोगे”।“ मैंने कहा, “भाई तुमने ऐसा क्या किया है जो मैं बुरा मानूँगा?” नाना ने बहुत अधिकार से कहा, “यार शर्मा जी आपका वो डॉयलॉग मैं बोलूँगा।”... मैं हैरान था... नाना कहे जा रहा था... “फ़िल्म के लिये अच्छा रहेगा अगर वो डॉयलॉग मैं बोलूँ।” और एक महान एक्टर एक नॉन-एक्टर का डॉयलॉग बोल कर फ़िल्म को महान बना गया। कभी तुम्हें बताऊँगा कि अगर मैं वो संवाद बोलता तो कैसे बोलता और नाना ने कैसे बोला।

पूनम माटिया

आपके किसी साक्षात्कार में मैंने जाना कि आप को हिंदी सिनेमा से बेहद लगाव रहा है...... किस पीरियड को हिंदी सिनेमा का गोल्डन पीरियड मानते हैं और क्यूँ?

तेजेन्द्र शर्मा

मुझे लगता है कि 1949 से 1971 तक का काल हिन्दी सिनेमा के लिये ‘गोल्डन पीरियड’ कहा जा सकता है। इस काल में गुरूदत्त, बिमल रॉय, राज कपूर, बी.आर. चोपड़ा, शांताराम, महबूब ख़ान, के. आसिफ़, कमाल अमरोही, चेतन आनन्द, देव आनन्द, सुनील दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी आदि ने बेहतरीन फ़िल्में बनाईं। इसी पीरियड में दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनन्द, अशोक कुमार, मोतीलाल, राज कुमार, सुनील दत्त, धर्मेन्द्र, बलराज साहनी, नूतन, नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान, वैजयन्ती माला, महमूद, जॉनी वॉकर, ललिता पवार, के.एन. सिंह और प्राण जैसे कलाकारों ने ज़बरदस्त अदाकारी का प्रदर्शन किया। शंकर जयकिशन, नौशाद, सचिन देव बर्मन, मदन मोहन, ओ.पी. नैय्यर, सी. रामचन्द्र, रौशन, जयदेव, ख़्य्याम आदि ने अमर संगीत दिया तो वहीं शैलेन्द्र, साहिर, शकील, मजरूह, कैफ़ी आज़मी, राजा मेंहदी अली ख़ान, भरत व्यास, आनन्द बख़्शी एवं इंदीवर ने साहित्यिक फ़िल्मी गीतों की एक नई विधा पैदा कर दी। लता मंगेश्कर, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, मन्ना डे, आशा भोंसले, तलत महमूद और किशोर कुमार की आवाज़ का सुनहरा जादू भी इसी काल का हिस्सा है। जब इस तरह सृजनात्मकता का विस्फोट-सा हो रहा हो उस काल को हिन्दी सिनेमा का गोल्डन पीरियड मानना ही पड़ेगा। 

पूनम माटिया

विदेश में जाकर भी भारतीय फ़िल्मों से आपका लगाव बना रहा। ऐसा क्यूँ?

तेजेन्द्र शर्मा

हिन्दी फ़िल्में देख कर बड़ा हुआ हूँ। बहुत सी फ़िल्में, उनके गीत, संवाद, सीन सब मेरे व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा बने हुए हैं। बहुत से गीत तो जैसे मुहावरों की तरह मुँह से निकलते आते हैं। मैंने तो शेख़ मुख़्तार, एन.ए. अन्सारी, गोप, याकूब, श्याम, सुरैया, दारा सिंह, रंधावा, चित्रा, आज़ाद, चन्द्रमोहन, सोहराब मोदी, ख़ुरशीद, के.एल. सहगल आदि की फ़िल्में भी पुरानी दिल्ली के सिनेमा घरों में सुबह 9.00 बजे के शो में देखी हैं। उन दिनों पुरानी दिल्ली में मिनर्वा, जगत, मैजेस्टिक, जुबली, मोती, रिट्ज़, फ़िल्मिस्तान, अम्बा और पैलेस जैसे सिनेमा हॉल हुआ करते थे। अपने आपको फ़िल्मों का विद्यार्थी माना करता था। जो फ़िल्में मेरे जन्म से पहले बनी थीं मैंने उन सबको भी ढूँढ़-ढूँढ़ कर देखा था। ज़ाहिर है जब फ़िल्मों के साथ इतना गहरा रिश्ता बना हो तो विदेश में आने के बाद टूट कैसे जाएगा। वो रिश्ता आज तक क़ायम है। 

पूनम माटिया

आपके प्रिय गीतकार शैलेन्द्र रहे.....ऐसा मुझे ज्ञात हुआ..... उनके गीतों में आप ने क्या ख़ासियत देखी?

तेजेन्द्र शर्मा

शैलेन्द्र की ख़ासियत यह है कि वह आम आदमी के दर्द का लेखक है। वह सरल शब्दों में बड़ी बात कहता है। शंकर जयकिशन गीत की धुन पहले बना दिया करते थे। अब सोचा जाए कि धुन बन चुकी है। फ़िल्म की कहानी, सिचुएशन, कलाकार, धुन आदि का ख़्याल रखते हुए शैलेन्द्र को सृजन करना होता था और वह इतनी सीमाओं में रहते हुए भी अपने दिल की बात उन गीतों में डाल दिया करते थे। यानि कि उनका गीत फ़िल्म की स्थिति को तो समझाता ही था उसके साथ-साथ कहानी को आगे बढ़ाता हुआ उनकी अपनी फिलोसॉफी भी समझा जाता है। शैलेन्द्र ने शंकर जयकिशन के अलावा सचिन देव बर्मन, सलिल चौधरी, रौशन और सी. रामचन्द्र के लिये भी गीत लिखे। शैलेन्द्र पर नेहरू के सपनों का ख़ासा असर था और वे मानते थे कि आने वाली दुनिया में सबके सर पर ताज होगा। राजकपूर उन्हें हमेशा कविराज कह कर बुलाते थे। वैसे आज के बाएँ हत्था (वामपंथी) लोगों के लिये एक संदेश अपने एक गीत में शैलेन्द्र दे गये हैं – कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं, इन्सान को कम पहचानते हैं। 

पूनम माटिया

शैलेन्द के गीतों और आज के गीतों में क्या अंतर देखते हैं? आज के गीत कहानी को आगे बढ़ाते से नहीं लगते बल्कि ज़बदस्ती लादे हुए लगते हैं। आप क्या सोचते हैं?

तेजेन्द्र शर्मा

शैलेन्द्र का ज़माना अलग ज़माना था। उस ज़माने में आइटम साँग नहीं हुआ करते थे। एक प्रतिस्पर्धा रहती थी गीतकारों में कि कौन बेहतर गीत दे सकता है। यदि आप हर गीतकार का किसी एक विषय पर लिखा गीत पसन्द करेंगी तो दूसरे गीतकार ने भी उससे बढ़िया या उसके मुक़ाबले का कुछ लिख दिया होगा। पहले के गीत और संगीत सुन कर इन्सान का सिर हिलता था। संगीत में मेलोडी होती थी। आज के संगीत में बीट होती है। इसलिये आज का संगीत सुन कर पैर हिलते हैं। बड़ी से बड़ी हीरोइन भी आइटम नम्बर करने का लालच नहीं छोड़ पाती। आज भी कुछ निर्देशक ऐसे हैं जो गीतों के ज़रिये अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हैं मगर सच है कि कहीं शब्दों की गुणवत्ता में कमी आ गई है। समस्या यह है कि गीतकार के अलावा इस इंडस्ट्री में सभी गीतकार होते हैं। हर आदमी अपनी राय देने से बाज़ नहीं आता। क्या हम सोच सकते हैं कि अपने ज़माने में कोई निर्माता साहिर को उसके गीत या नज़्म के बोल बदलने को कह सके? शैलेन्द्र के ज़माने में बोल होते थे आजकल साउण्ड होती है। मगर फिर भी बीच-बीच में कहीं न कहीं से कुछ ऐसा निकल आता है जो दिल को सुकून देता है। जिस तरह आज की फ़िल्मों की शेल्फ़-लाइफ़ कम हो गई है ठीक वैसा ही कुछ गीतों के साथ भी हुआ है। 

पूनम माटिया

कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना है किन्तु भारत में एक बड़ा वर्ग इसे मनोरंजन के रूप में तो देखता ही है, साथ में अदृश्य रूप में उससे सीखता भी है... तो आपके ख़याल से कैसी सोच फ़िल्मों की कहानियों में झलकनी चाहिए?

तेजेन्द्र शर्मा

फ़िल्में सदा से मनोरंजन का साधन रही हैं। यदि वे साथ ही साथ जीने की राह भी दिखाती हैं तो सोने पे सुहागे वाली बात हो जाती है। जो सिनेमा अपनी बात रोचक ढंग से नहीं कह पाता उसे आर्ट सिनेमा कहा जाता है। जिसे मैं हिन्दी सिनेमा का गोल्डन पीरियड कहता हूँ उस काल में गहरी बात को रोचक ढंग से कहा गया है। राजकपूर का ग़रीब आदमी इतना प्यारा लगता है कि ग़रीब हो जाने को जी चाहता है। गुरूदत्त जहाँ साहिब बीवी और ग़ुलाम बनाते हैं वहीं चौदहवीं का चाँद भी बनाते हैं और आर पार भी। इसी काल में ज़िम्बो, टार्ज़न, हंटरवाली, शिन-शिना-की बिबला बू, बहादुर लुटेरा, बंजारन, एक नन्ही मुनी लड़की थी, बारूद, ब्लैक टाइगर जैसी अनेकों फ़िल्में बनती थीं। ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, मारधाड़, सस्पेंस, हॉरर फ़िल्में पहले भी बनती थीं और आज भी बनती हैं। हाँ, ऋषिकेश मुखर्जी ने सिनेमा की एक नई विधा शुरू की थी जिसे बासु चटर्जी ने आगे बढ़ाया। अमिताभ बच्चन से पहले और अमिताभ बच्चन के बाद सिनेमा की कहानी में बहुत परिवर्तन आया है। उसने जो एण्टी हीरो की छवि बनाई उसने कहानी, संगीत, गीत सभी का ख़ासा नुक़्सान किया। आज भी तारे ज़मीन पर, मुन्ना भाई सीरीज़, लगान, स्वदेश, जोधा अकबर, ओह माई गॉड, ब्लैक, चीनी कम, कोई मिल गया जैसी अच्छी फ़िल्में बन रही हैं। कुछ गीत भी अच्छे हैं मगर गीत-संगीत के मामले में हम ग़रीब होते जा रहे हैं। 

पूनम माटिया

तेजेंद्र जी, तो क्या आपको लगता है कि आज की फ़िल्में ऐसी हैं जिनसे आम दर्शक कुछ सीख सकता है या कुछ सोच-विचार के विषय साथ लेकर जा सकता है? 

तेजेन्द्र शर्मा

हाँ, क्यों नहीं! पूनम। दरअसल शिक्षा के नाम पर भाषण बाज़ी हो ऐसा ज़रूरी नहीं, ‘subtle’ यानि अभिनय, निर्देशन, कहानी, गीत कई माध्यम हैं जिनके द्वारा सन्देश जनता तक पहुँचाया जा सकता है। वैसे भी सामाजिक सरोकार समय के साथ बदलते रहते हैं उदाहरण स्वरुप बी आर चोपड़ा ने अविवाहित माँ को केंद्र में रखते हुए ‘धूल का फूल’, ‘क़ानून’, ‘नया दौर’ में सहकारी आन्दोलन, ‘इन्साफ का तराज़ू’ में रेप; बिमल रॉय की ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’ सभी महत्वपूर्ण मुद्दे सामने लायीं। आज की सोच बदली है, आज अगर कोई महिला विवाहेतर सम्बन्ध स्थापित करती है तो त्राहि-त्राहि नहीं मचती। ‘चीनी कम’, ‘आरक्षण’, ‘गंगा जल’, ‘राजनीति’ ऐसी कुछ फ़िल्में हैं जो आज के सामजिक परिवेश से विषय उठाती हैं। साहित्य मूल रूप से अपने स्वभाव में Elitist (संभ्रांतवादी) है और इसकी पहली शर्त है आपका पढ़ा-लिखा होना जबकि सिनेमा आम आदमी के दिल के अधिक निकट है। यदि आप किसी भाषा को समझते हैं तो सिनेमा को भी समझ लेंगे वर्ना चेहरे के हाव-भाव और इमोशन आपको सिनेमा समझा देते हैं।

पूनम माटिया

कुछ एक फ़िल्मों को छोड़कर अधिकतर फ़िल्मों में औरत एक वस्तु की तरह (शो पीस) इस्तेमाल की जाती है.. आपका नज़रिया क्या है इस सन्दर्भ में?

तेजेन्द्र शर्मा

जब हिन्दी सिनेमा में कहानी प्रधान हुआ करती थी, औरत को केन्द्र में रख कर बहुत सी फ़िल्में बनीं। मदर इण्डिया, शारदा, कोशिश, साधना, सुजाता, साहिब बीवी और ग़ुलाम, बन्दिनी, मैं तुलसी तेरे आँगन की, रात और दिन, मौसम, आँधी, मेरा साया, इंतक़ाम, वो कौन थी, फूल और पत्थर, काजल, तपस्या, घर, ख़ूबसूरत, आदि कुछ ऐसी बेहतरीन फ़िल्में हैं जिनमें औरत केवल जिस्म नहीं थी। राजकपूर की फ़िल्मों में नरगिस का रोल कभी भी हीरो से कम नहीं होता था। अमिताभ बच्चन के आगमन के बाद नायिकाएँ केवल सुन्दर कपड़े पहन कर पेड़ों के इर्द-गिर्द नायक के साथ दोगाने गाती दिखाई देने लगीं। यही उनके बाद वाली पीढ़ी ने जारी रखा। मगर उस काल में शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, रेखा और दीप्ति नवल ने नारी पात्रों को अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति दी। आजकल भी करिश्मा कपूर, तब्बू, बिपाशा बसु, मनीषा कोइराला, रानी मुखर्जी, प्रीती ज़िन्टा, करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पदुकोण, अनुष्का शर्मा आदि ने ऐसी बहुत सी फ़िल्में की हैं जिन में औरत केवल शो-पीस की तरह मौजूद नहीं है। 

पूनम माटिया

किन्तु तेजेंद्र जी, फ़िल्मी इतिहास को देखा जाए तो ये मुठ्ठी-भर फ़िल्में अनुपात में कहीं नहीं ठहरतीं और आज तो फ़िल्म उद्योग में इनका अनुपात और भी क्षीण हो गया है।

तेजेन्द्र शर्मा

पूनम! नग्नता अश्लीलता का पर्याय नहीं है। कोई भी फ़िल्मी दृश्य अश्लील तब होता है जब उसमें औरत के शरीर को बेचने का नज़रिया झलकता हो या उसे ऐसे फ़िल्माया जाए कि दर्शक नारी शरीर को देख कर चटकारे लें। वक़्त के साथ नज़रिया भी बदला है जैसे कि हरि शिवदसानी एक सिन्धी चरित्र अभिनेता थे इन्होने आज़ादी से पहले सबसे लम्बा ‘किसिंग सीन’(चुंबन दृश्य) दिखाया क्योंकि उस समय सेंसर बोर्ड उन ही दृश्यों को सेंसर करता था जिनमें अंग्रेज़ी सिस्टम के ख़िलाफ़ कुछ कहा या दिखाया गया हो। किन्तु आज़ादी के बाद सेंसर बोर्ड ने चुंबन और नग्नता पर पूरी तरह रोक लगाई जाने लगी। तब फूलों, भँवरों इत्यादि का सहारा लिया जाने लगा। नैतिकता को ऊपर रख फ़िल्म निर्माता –निर्देशक कैब्रेट में हेलेन, शशिकला वग़ैरह को स्किन के रंग के कपड़े पहना कर अपना उद्देश्य पूरा करने लगे जिससे एहसास के स्तर पर दर्शकों को नग्नता परोस देते थे। राजकपूर ने जब रंगीन फ़िल्में बनानी शुरू कीं तब उनके भीतर का कलाकार नारी सौन्दर्य को पूजता था और उनके निर्देशन में सेंसर बोर्ड ने भी उनकी फ़िल्मों में उन दृश्यों को मान्यता दी कहानी की ज़रूरत क़रार देकर। ‘पड़ोसन’ फ़िल्म में महमूद का डायलाग – ‘हे बिंदु जी..ज़रा पकड़ो न...मेरा हाथ’ अश्लीलता के कई स्तर पार कर गया जबकि फ़िल्म ‘अलीगढ़’ में भी मनोज बाजपेयी के श्रेष्ठ अभिनय ने उनके ‘गे’ रूप में बिना कपड़ों के दृश्य में अश्लीलता का एहसास तक होने नहीं दिया तो पूनम, ये मानसिकता के स्तर पर है कि कितनी अश्लीलता परोसी गयी या फिर कहानी की ज़रूरत रही। 

पूनम माटिया

आज नायक और खलनायक के कामों में कोई ख़ास अंतर नहीं रह गया है... नायक कितने भी जुर्म करके क़ानून की गिरफ़्त से दूर रहता है... ऐसे किरदारों के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

तेजेन्द्र शर्मा

1943 की फ़िल्म किस्मत में अशोक कुमार पहली बार एण्टी हीरो बने थे। 1952 में राज कपूर ने फ़िल्म बेवफ़ा में ऐसा ही किरदार निभाया। 1966 में यही काम किया धर्मेन्द्र ने फ़िल्म फूल और पत्थर ने। यानि कि अमिताभ बच्चन के पास एण्टी हीरो के उदाहरण पहले से ही मौजूद थे। मगर अमिताभ बच्चन ने हीरो और खलनायक के बीच की दूरी को लगभग गडमड कर दिया। पुराने ज़माने में के.एन. सिंह, एन.ए. अन्सारी, प्राण, मदन पुरी, प्रेम चोपड़ा, अजित आदि पूरी तरह से खलनायक होते थे जो कि हीरो की राह में रोड़े अटकाने का काम करते थे। शाहरुख़ ख़ान ने डर में पूरी तरह खलनायक को हीरो बना दिया। आज हमारे निर्माता निर्देशक को विलेन की शायद आवश्यकता ही नहीं होती। अब तो फ़िल्मों में  विलेन या एण्टी हीरो को ग्लैमरस बना दिया जाता है। अक्षय कुमार, सलमा ख़ान, आमिर ख़ान, अजय देवगण ऐसे बहुत से किरदार निभा चुके हैं। शाहरुख़ का क..क..क..क..किरण तो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया था। शायद इसीलिये असली जीवन में भी बहुत से विलेन राजनीति के हीरो बने बैठे हैं। 

पूनम माटिया

तेजेंद्र जी! हाँ ये तो सही है कि आज के हीरो ही ‘मल्टीप्ल रोल’ कर रहे हैं पर महत्वपूर्ण बात जो मैं पूछना चाह रही हूँ वो यह कि दर्शक हर हालत में हीरो को क़ानून की गिरफ़्त से बचते हुए देखना चाहते हैं और ऐसे में मुख्य कलाकार (हीरो अथवा हेरोइन) ग़लत काम करके भी जब बचा लिया जाता है कहानी में तो भी जनता तालियाँ बजाती है...तो क्या सही शिक्षा पहुँच रही है समाज में? 

तेजेन्द्र शर्मा

पूनम, आज सिनेमा घुमाव-फिराव का रास्ता नहीं अपनाता बल्कि ‘फ़ोर्थराईट’(सीधे-सीधे, निष्कपट) बात करता है जैसे कि दृश्यम में ..अजय देवगन उस बेटी का बाप है जिससे परिस्थितिवश अपनी रक्षा करते है एक ऐसे लड़के की हत्या हो जाती है जो पूरी तरह गुनाहगार है ..तो ऐसे में अगर फ़िल्म के अंत में अजय देवगन यानि पिता क़ानून की गिरफ़्त से बचा रह जाता है तो इसमें क्या ग़लत है? दूसरी ओर ‘बाजीगर’ एक दूसरे सिस्टम को दर्शाती है क्योंकि वह विदेशी फ़िल्म की कॉपी है हालाँकि उसमें भी शाहरुख़ का अभिनय पसंद किया गया पर चरित्र को मान्यता कभी नहीं दी गयी। दीवार में विजय... शोले में जय-वीरू इसलिए ही मुमकिन हुए क्यूँकि नेगेटिव किरदार होते हुए भी उन्होंने सामाजिक बुराई के प्रति आवाज़ उठाई परन्तु वहाँ भी अंत में यही सन्देश दर्शकों तक पहुँचा कि बुरे का बुरा ही होता है।

पूनम माटिया

आजकल फ़िल्में अधिकतर पुरानी, विदेशी या दूसरी भाषा की फ़िल्मों की रीमेक होती हैं, नयापन, नए विषय यदा-कदा ही सामने आते हैं। हमारे कहानीकारों की सोच को क्या जंग लग गया है या वो नए प्रयोग करने से डरते हैं?

तेजेन्द्र शर्मा

विदेशी फ़िल्मों पर आधारित या उनका री-मेक केवल आज की समस्या नहीं है। राजकपूर और नर्गिस की चोरी चोरी, गुलज़ार की परिचय, कोशिश, मेरे अपने, फ़िरोज़ ख़ान की खोटे सिक्के, रमेश सिप्पी की शोले, राज कुमार की 36 घण्टे, शम्मी कपूर निर्देशित मनोरंजन, शाहरुख़ ख़ान की बाज़ीगर और आमिर ख़ान की कई फ़िल्में विदेशी फ़िल्मों का री-मेक हैं या उन पर आधारित हैं। मैं क़रीब 175 फ़िल्मों की सूची बना सकता हूँ जो कि विदेशी फ़िल्मों की नक़ल हैं। मगर याद रहे कि इनके साथ साथ हमेशा से बेहतरीन भारतीय सोच की ओरिजिनल फ़िल्में भी साल-दर-साल बनाई जाती हैं। दरअसल हुआ यह है कि फ़िल्म बनाना अब बहुत महँगा सौदा हो गया है। कोई भी निर्माता ख़तरा नहीं लेना चाहता इसलिये बारबार आज़माया हुआ फ़ॉर्मूला इस्तेमाल करता है। फिर भी नई सदी में चीनी कम, तारे ज़मीन पर, पीकू, पा, पिंक, सिड, बर्फ़ी, रॉकेट सिंह, हिरोइन, चमेली, ओंकारा, मकबूल, दृश्यम, ज़ख्म, रेनकोट, हल्ला बोल, मसान, एअरलिफ़्ट, स्पेशल 26, फ़ना, लगे रहो मुन्ना भाई जैसी बेहतरीन फ़िल्में बनी हैं। दरअसल आजकल सही मायने में नये प्रयोग हो रहे हैं – कहानी के स्तर पर भी और तकनीकी स्तर पर भी। हाँ, गीत-संगीत में कुछ मेहनत की ज़रूरत है। 

आज फ़िल्में बनाना केवल कहानी सुनाना नहीं है बल्कि उससे बहुत आगे बढ़ गया है। It has become an art by itself. असल में बात ये हैं कि हमारी आदत है कि हम past को glorify करते हैं और वर्तमान में कमियाँ ही ढूँढ़ते रहते हैं। अब पिंक फ़िल्म को ही सोचें तो क्या ऐसी फ़िल्म पहले बनाना क्या संभव भी था ....औरत की "न" को "न" ही समझा जाए .. कितनी बड़ी बात निकल के सामने आती है, एक बड़े बदलाव का आग़ाज़ हुआ है इस फ़िल्म से। वहीं अलीगढ, पानसिंह तोमर जैसी फिल्मे फ़िल्म मेकिंग में आये बड़े बदलाव को दर्शाती हैं और नए एक्टर्स के लिए ज़मीन भी तलाशती हैं जो कि करोड़ों की लागत वाले कमर्शियल सिनेमा में संभव नहीं।

पूनम माटिया

पहले की फ़िल्मों की अपेक्षा आज फूहड़पन और अश्लीलता हास्य का पर्याय बन गया है। आप किसको स्वस्थ मनोरंजन व हास्य कहेंगे? 

तेजेन्द्र शर्मा

जैसे कि मैंने पहले भी कहा- हास्य में फूहड़पन लाने की शुरूआत महमूद ने पड़ोसन फ़िल्म से शुरू की थी। उन्होंने द्विअर्थी संवाद बोल-बोल कर और दक्षिण भारतीयों का मज़ाक बना कर हास्य पैदा करने का प्रयास किया। जो घटियापन वहाँ से शुरू हुआ वो आजतक बना हुआ है। अब तो हीरो ही हास्य भी कर लेता है। अमिताभ बच्चन ने ही इसकी भी शुरूआत कर दी थी। अब तो अक्षय कुमार, सलमान ख़ान, आमिर ख़ान, सुनील शेट्टी, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह, अजय देवगण आदि स्वयं ही कॉमेडी कर लेते हैं। वैसे तो राजपाल यादव जैसे हास्य कलाकार अभी भी मौजूद हैं मगर जब हास्य होगा ही नहीं तो शील या अश्लील का क्या सवाल.....। यदि हमें स्वस्थ हास्य का उदाहरण देखना हो तो चलती का नाम गाड़ी, प्यार किये जा, चुपके चुपके, पड़ोसन में किशोर कुमार का अभिनय, गोलमाल (ऋषिकेश मुखर्जी), आज की ताज़ा ख़बर, बीवी ओ बीवी, मनचली, अंदाज़ अपना अपना, अंगूर आदि फ़िल्में देखनी होंगी जहाँ हास्य स्तरीय है। आई. एस. जौहर और देवेन वर्मा ने कभी हास्य को फूहड़ नहीं होने दिया। 

पूनम माटिया

अपनी पसंदीदा फ़िल्म और गीत के बारे में बताएँ जो आप को सुकूं देता हो।

तेजेन्द्र शर्मा

दरअसल किसी एक फ़िल्म को या गीत को अपनी पसंदीदा बताना बहुत सी महान फ़िल्मों के साथ अन्याय हो जाएगा। मैं मुख्यधारा के सिनेमा को पसन्द करता हूँ। मुझे राज कपूर, गुरूदत्त, बिमल रॉय, बी.आर. चोपड़ा, राजकुमार हीरानी, ऋषिकेश मुखर्जी, महबूब ख़ान जैसे फ़िल्मकारों की फ़िल्में पसन्द हैं। मुझे यश चोपड़ा एक बेहद डरे हुए फ़िल्म निर्माता लगते रहे जो केवल बड़े कलाकारों के साथ फ़िल्में बनाना पसन्द करते थे। मुझे साहिर, शैलेन्द्र, शकील, मजरूह और कैफ़ी के गीत बहुत पसन्द हैं। आनन्द बक्षी का गीत – ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम... शायद हिन्दी सिनेमा का एक अद्भुत गीत है। 

पूनम माटिया

नए फ़िल्मकारों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?

तेजेन्द्र शर्मा

कहानी किसी भी फ़िल्म की रीढ़ की हड्डी है। शोध हो कहानी के लिए और फिर उस कहानी पर कसा हुआ स्क्रीनप्ले अगला क़दम है। कहानी और स्क्रीनप्ले के हिसाब से कलाकार तय किये जाएँ। कलाकार के फ़िल्म साइन करने के बाद कहानी की तलाश न की जाए। सेट फ़ॉर्मूले को तोड़ना होगा। एक बार स्क्रीनप्ले फ़ाइनल होने के बाद उसको किसी स्टार की दख़लअन्दाज़ी के कारण न बदला जाए। 

पूनम माटिया

आप स्वयं एक कहानीकार हैं... आपको क्या लगता है कैसी कहानियाँ आनी चाहियें आने वाली फ़िल्मों में? 

तेजेन्द्र शर्मा

कहानी में जबसे क़िस्सागोई ख़त्म हुई है, वो फ़िल्मों से दूर होती चली गई है। फ़िल्म के लिये घटनाक्रम बहुत ज़रूरी है। यदि कहानी केवल साइकॉलॉजी की तरह भीतरी परतें उधेड़ती है तो कैमरे और निर्देशक के लिये करने को कुछ बचता नहीं। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि साहित्य की पहली शर्त है पढ़ा-लिखा होना। तभी आप साहित्य का आनन्द उठा सकते हैं। जबकि सिनेमा के लिये ऐसी कोई शर्त नहीं है। कहानियाँ ऐसी हों जो आम आदमी से लेकर ख़ास आदमी तक की ज़िन्दगी का सही आकलन करें। और केवल कहानी से फ़िल्म नहीं बनती। कहानी पर स्क्रीनप्ले और निर्देशक का काम और समझ बहुत ज़रूरी है। ख़्वाजा अहमद अब्बास राजकपूर के लिये कहानी लिखा करते थे, जैसे कि आवारा, श्री 420 और बॉबी। और राजकपूर उनकी कहानियों पर सुपर हिट फ़िल्म बनाया करते थे। मगर अब्बास साहब ने कभी अपनी कहानी पर कोई हिट फ़िल्म नहीं बनाई। अनहोनी, आसमान महल, शहर और सपना वग़ैरह आईं और चली गईं। साहित्यकार को समझना होगा कि हर कहानी पर फ़िल्म नहीं बन सकती। कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी दो ऐसे साहित्यकार थे जो सिनेमा और टीवी के माध्यम को अच्छी तरह समझ गये थे। कहानी में नयापन ज़रूरी है। कहानी में समाज का दर्द, इन्सान की तड़प, मूल्यों का स्थापन और रिश्तों की व्याख्या यदि होंगे तो सिनेमा के लायक़ कहानी बन पाएगी। 

पूनम माटिया

बहुत-बहुत शुक्रिया तेजेंद्र जी.. आपके समय और जानकारी के लिए जो आपने बहुत मन से दी.. मुझे पूरी उम्मीद है कि यह साक्षात्कार कारगर साबित होगा हिंदी सिनेमा प्रेमियों, इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं, फ़िल्मों से जुड़े हर कलाकार, टेक्नीशियंस, गीतकार, संगीतकार और निर्माता–निर्देशकों के लिए ......साथ ही साथ सहेजनीय होगा लन्दन,भारत और पूरे विश्व में आपके प्रशंसकों के लिए।

जहाँ तक मेरा प्रश्न है ..मुझे अति प्रसन्नता है कि अब तक लिए गए साहित्यिक साक्षात्कारों से हटकर इस साक्षात्कार के ज़रिये मैंने सिनेमा के क्षेत्र में भी पदार्पण किया ...सुखद भविष्य और अनवरत लेखन की मंगलकामनाओं के साथ।

डॉ. पूनम माटिया (मानद उपाधि)
M sc. B Ed. MBA
writer, poetess, anchor,
literary editor- True Media 
e mail : poonam.matia@gmail.com 

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