विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

जनेऊ-तोड़ लेखक

 

लेखक महोदय बामन हैं
और हो गये हैं बहत्तर के
विप्र कुल में जन्म लेने में
कोई कुसूर नहीं है उनका
वे ख़ुद कहते हैं और हम भी
लेखक ने अपने विप्रपना को
इस बड़ी उम्र में आकर
धोने की एक बड़ी कर्रवाई की है
तोड़ दिया है अपने जनेऊ को
और पोंछ डाला है अपने द्विजपन को
अपने लेखे
कहिये कि जग के लेखे 
बल्कि जग के लेखे ही बावजूद
लोग उन्हें
मान बख़्शते हैं सतत विप्र का ही
सतत घटती इस घटना में भी 
उनका क्या रोल
वे किसको किसको कहाँ कहाँ 
अपने जनेऊ तोड़ लेने का
वास्ता देते फिरे
 
हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण मंच पर
बदस्तूर अब भी मिल रहा है उन्हें बुलावा
और उनके जनेऊ-तोड़ 
डी-कास्ट होने के करतब को
रखते हैं ठेंगे पर सब अपने पराये
सवर्ण-मान पर ही रखकर
उन्हें हर हमेशा
वे गुरेज़ करें भी तो करें
कैसे
क्यों
मिलते अधिमान को
इन मानों से
जनेऊ तोड़ना आसान है
 
क्योंकि यह टूटता है बाहर बाहर ही
भले ही रहता हो सात बसनों के अन्दर
गोकि
बाहर बाहर टूटकर भी
उसके टूटने का बाहर कोई असर आये ही
क़तई ज़रूरी नहीं
असर के लिए 
पुरअसर पाने के लिए 
धागा के साथ बहुत कुछ तोड़ा जाना ज़रूरी है
दशरथ मांझी सा बाइस बरस लगा
किसी बड़ी कार्रवाई का साथ लगाना ज़रूरी है
जनेऊ द्विजत्व है
दो मनुष्य होना है
एक माता उदर से
दूसरे ख़ुद को अलग से जन्मा
मान लेने से 
जन्म-दर्प का दर्पण है यह
और यह सतत घटित होती एक कार्रवाई है
चाहे यह आपके मन से घटे अथवा मन के विरुद्ध 
बताया पूछा लेखक से
जनेऊ तोड़ा ठीक किया
इसके अलावा अपनी जात-जनेऊ का
क्या क्या तोड़ा
लेखक अभी याद करने में लगा है!

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