विशेषांक: फीजी का हिन्दी साहित्य

20 Dec, 2020

पल भर में भय का बादल छाया
जो बुन रही थी सपने कभी
दरारें उनमें पड़ने लगीं
आखिर मोड़ ऐसा क्यों आया?
क़ुदरत की ये कैसी माया?
 
महामारी का वार है भारी
टूटे हैं कुछ सपने
ग़म नहीं
जब करीब हैं अपने
थोड़े ग़म भी हैं कहीं
जब
कुछ घर पहुँचे नहीं अपने।
 
रो रहे हैं सब
कहीं मौत का तांडव हो रहा
विनाश की भँवर में
तड़प रही प्रकृति
ना जाने कुसूर किसका है?
 
खून के आँसू रोती हूँ मैं
जब पीड़ित रोगियों को देखती हूँ
कभी कुंठा में सन जाती हूँ
जब बेशर्मों को थूकते देखती हूँ
जान-बूझकर रोग फैलाते देखती हूँ
आखिर ये कैसा बैर है?
वसुधैव कुटुम्बकम् को अपनाओ दोस्तों
धर्म यही है
तीर्थ यही है।
 
देर न हो जाए
थोड़ी देर संभल जाओ
आशा की किरण मिल जाएगी
आज की उदासी कल किलकारी बन जाएगी
ग़म की परछाई अस्थायी है
थोड़ी देर हिम्मत बाँध लो
प्रार्थना में बड़ी ताकत है बन्धुओं
कुछ देर धरती माँ को सम्भाल लो
 
कहर से कराह रही है यह धरा
ऐ मानव!
धरती का कुछ भार,
तुम भी सह लो,
कृष्ण बन के गोवर्धन उठा लो!!

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