विशेषांक: फीजी का हिन्दी साहित्य

20 Dec, 2020

धरती मेरी माता : उपन्यासकार- जोगिंद्र सिंह कँवल 

पुस्तक चर्चा | शुभाषिणी लता कुमार

जोगिन्द्र सिंह कँवल (1927-2017) फीजी के सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ लेखक माने जाते हैं। फीजी के हिंदी साहित्य जगत में श्री जोगिन्द्र सिंह कँवल एक युगांतर उपस्थित कर देनेवाले रचनाकार के रूप में अवतरित हुए। जोगिन्द्र सिंह कँवल का जन्म व शिक्षण पंजाब में हुआ था। आपने 1959 में फीजी के डी.ए.वी कॉलेज में शिक्षक के रूप में पदभार संभाला व बाद में 1960 में आपने खालसा कॉलेज में अध्यापन किया व 28 वर्षों तक वहाँ के प्रधानाचार्य रहे। स्वर्गीय जोगिंद्र सिंह कँवल को फीजी का एक प्रतिष्ठित शिक्षक तथा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक अमूल्य योगदानकर्ता के रूप में याद किया जाता है। आज भी कँवल जी अपनी रचनाओं के मार्फत जीवित हैं। पंजाबी और उर्दू भाषाओं का अधिकार होते हुए भी उन्होंने हिंदी में तीन काव्य संग्रह, चार उपन्यास, एक कहानी संग्रह, निबंध, आलेख, आलोचनाएँ आदि विविध विधाओं में लिखकर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। वे हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा में भी लिखते रहे हैं। 

अपने साहित्यिक योगदान के लिए कँवल जी विभिन्न सम्मानों से अलंकृत हुए हैं। उन्हें फीजी के राष्ट्रपति द्वारा, 'मेम्बर ऑफ ऑर्डर ऑफ फीजी' (1995), प्रवासी भारतीय परिषद सम्मान (1981), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (1978), फीजी हिंदी साहित्य समिति सम्मान (2001), विश्व हिंदी सम्मान (2007) प्राप्त हैं। फीजी में हिंदी भाषा और साहित्य के उत्थान में कँवल ने अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाई है। वे हमेशा कहते थे- "मुझे भाषा से इश्क है"। यह भाषा के सम्बन्ध में उनकी उत्साहवर्धक उक्ति रही है जो युवी पीड़ी के लिए प्रेणादायक साबित हुई।

कँवल की कृतियाँ 

कँवल जी ने अनेक साहित्यिक विधाओं में उत्कृष्ट रचनाएँ प्रदान की है जो फीजी में हिंदी भाषा शिक्षण और साहित्यिक अध्ययन के लिए महान साधक रहे हैं। ‘फीजी में हिंदी के सौ वर्ष’, ‘फीजी का हिंदी काव्य साहित्य’, ‘मेरा देश मेरे लोग’, तथा औपन्यासिक कृतियाँ- सवेरा’ 1976, ‘धरती मेरी माता’ 1975, ‘करवट’ 1979, ‘सात समुद्र पार’ 1983, आदि रचनाएँ हिंदी भाषा, साहित्य और प्रवासी शोध अध्ययन के लिए बहुमूल्य हैं। कँवल जी ने फीजी के समकालीन जन-जीवन पर कई संवेदनात्मक कविताएँ भी लिखी हैं जो निम्नलिखित रचनाओं में संकलित है:- ‘यादों की खुशबू’, ‘कुछ पत्ते कुछ पंखुड़ियाँ’ तथा ‘दर्द अपने-अपने’। कँवल जी रचनाएँ गिरमिट के दर्द भरे इतिहास को मनवीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। सत्य पर आधारित उनकी रचनाएँ फीजी के प्रवासी भारतीयों की हृदय की गहराइयों में उतरकर वहाँ की दशा का सजीव और मार्मिक चित्रण दर्शाते हैं।

फीजी में अस्सी प्रतिशत जमीन वहाँ के आदिवासियों की है और इसी जमीन को भारतीयों को लीस पर रहने और किसानी करने के लिए दिया जाता है। इस लीस की अवधी तीस से नब्बे साल की रहती है। भारतीय इसी जमीन को माँ समझकर खूब परिश्रम से सेवा करते हैं और फसल की उमंग में हल चलाते हैं। उपन्यास ‘धरती मेरी माता’ में भी लेखक मुख्य पात्र नन्दू के माध्यम से कहता है- “अगर भगवान मुझसे इस धरती पर आ कर पूछें कि ये गन्ने के हरे-भरे लहलहाते खेतों में कौन-सी महक बिखरी हुई है तो मैं भी शबरी की तरह उन्हें बतलाऊँगा कि हमारे पूर्वजों का पसीना इन खेतों में मिला हुआ है।” लेकिन कानून के अनुसार यह भूमि उनकी नहीं है। लीस समाप्त होने पर गरीब किसानों से उस ज़मीन का अधिकार छीन लिया जाता और उन्हें अपने लहलहाते खेत छोड़कर दूसरा घर बसाना पड़ता। “यह देश मेरी मातृभूमि है... हमारी रग-रग में इसका पानी खून बनकर दौड़ रहा है। हमारी नस-नस में यहाँ की जलवायु महकती है। हमारे रोम-रोम में इसका प्यार समाया हुआ है।...जमीनों से जब हमें अलग कर दिया जाता है तो ऐसा अनुभव होता है जैसे बच्चे को उसकी माँ से अलग कर दिया जाता है।” 

‘धरती मेरी माता’ में नन्दू भूमिहीन किसान का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय कृषक जिस भूमि को अपने खून पसीने से सींचते हैं उस पर उनका अधिकार तो नहीं पर भूमि से उनका मोह बना रहा। 

‘धरती मेरी माता’में उपन्यासकार फीजी में बसे भारतीयों की जमीन से जुड़ी संवेदनाओं को कथा का रूप देते हैं। जमीन अपनी हो तो देश अपना लगता है और जमीन अपनी न हो तो व्यक्ति का देश से जुड़ाव नहीं हो पाता। इन प्रवासी संवेदनाओं को कँवल जी अपने अनुभावों से जोड़ते हुए लिपिबद्ध करते हैं जिसके फलस्वरूप उनकी रचनाएँ ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की कसौटी में सटीक बैठती है। 

‘धरती मेरी माता’ का अंश पृष्ठ 88-89

मनुष्य का स्वभाव भी कितना विचित्र है। यह कोई बहुमूल्य वस्तु खो दे तो भी मनुष्यता को नहीं छोड़ता। उसकी खुशी पंख लगाकर उड़ जाए, वह फिर भी मनुष्य ही रहता है। जब उसके सपनों और आशाओं के पर कट जाते हैं तो वह घायल पक्षी की तरह ज़मीन पर पड़ा फड़फड़ाता रहता है।

मृग-तृष्णा एक वह चीज़ है जो उसे सपनों के संसार से बाँधे रखती है। उसके मन को भरमाती रहती है। जब वह भी उससे छीन ली जाए और उसके सपने टूटकर मिटटी में मिल जाएँ तो वह जिंदा लाश-सा बन जाता है।

मनीसिंह की मानसिक दशा भी कुछ ऐसी ही हो रही थी। वह कई सपने संजोए बैठा था। फसल अब कुछ अच्छी होने लगी थी। गन्ने का दाम भी बढ़ गया था। उसे लगता था कि उसके परिवार के दिन बदल जाएँगे। उसके परिवार का जीवन कष्टों के भंवर से निकल जाएगा। लेकिन जब उसकी अधूरी आशाओं के पूरा होने के दिन आए तो आबाद की हुई ज़मीन हाथों से निकलने लगी। यह चिंता उसे भीतर-ही-भीतर खाने लगी जैसे लकड़ी को दीमक लग जाता है। दूसरी मुसीबत यह थी कि उसकी लीज़ के कागज़ात पिछले तूफ़ान में नष्ट हो चुके थे। उसने सरकारी दफ्तरों के कई चक्कर लगाए। वह वकीलों के पास भी पहुँचा। सूवा में नेटिव-लैंण्ड-ट्रस्ट-बोर्ड के दरवाज़े कई बार खटखटाए मगर उसे कोई भी संतोषजनक जवाब न मिलता। वह इधर-उधर घूमता उकता गया। कहाँ से पता लगे कि ज़मीन की लीज़ कब समाप्त होगी?

इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए पता नहीं वह कहाँ-कहाँ घूमा। कोई कर्मचारी उसे कह देता कि ज़मीन का नक्शा उसे नहीं मिलता और कोई यह कहकर टाल देता कि जब तक लीज़ का नम्बर नहीं मिलता, वह उसकी सहायता नहीं कर सकता। कहीं स्टेम्प ड्यूटी की बात सुनता और कहीं फीस की। जब शाम को घर लौटता तो उसके शरीर में ज़रा भी शक्ति न होती। उसे ऐसा अनुभव होता जैसे उसके शरीर से आत्मा निकल गई हो और वह माँस और हड्डियों का लोथड़ा बनकर रह गया हो। 

नन्दू को अपने पिता की इस हालत का ज्ञान था। जो कुछ उससे हो सका, उसने बड़ी गम्भीरता से किया। कई ज़िम्मेदार आदमियों से मिला जो उनकी इस मुआमले में कोई मदद कर सकते थे। कई स्थानों पर जाते-जाते उसके पैर घिस गए पर कोई बात न बन सकी। वह कभी-कभी शाम को मेली के घर की ओर निकल जाता और वहाँ उसके बाप और भाई से ज़मीन और लीज़ के विषय पर घंटों विचार-विमर्श करता रहता।

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