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लीलाधर जगूड़ी की कविताः विज्ञापन संस्कृति बनाम स्त्री विमर्श
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विज्ञापन ने मानवीय गतिविधि के हर क्षेत्र में जनमानस को गहराई से प्रभावित किया है। विज्ञापन उपभोग की शैली, उसके स्तर व स्वरूप को प्रभावित करता है। सतत् माँग और नये बाज़ारों का सृजन करता है। वह बाज़ार तक पहुँचने का शॉर्टकट बन गया है। व्यक्ति को वस्तु बनाने की इस प्रक्रिया को एक सजग साहित्यकार अपना काव्यार्थ बनाता है। विज्ञापन यूँ कहें उपभोक्तावाद या बाज़ारवाद की संस्कृति के मूल में निहित मंशा या षडयंत्र की पहचान कराना भी कवि का दायित्व बन जाता है। इस दृष्टि से लीलाधर जगूड़ी की कविताओं पर पाठकीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। आज स्त्री ने हर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व क़ायम किया है, चाहे वह प्रशासनिक क्षेत्र हो या सामाजिक, घर हो या कोर्ट कचहरी, डॉक्टर, इंजिनीयर अथवा सेना का क्षेत्र, जो क्षेत्र पहले सिर्फ़ पुरुषों के आधिपत्य माने जाते थे, उनमें स्त्रियों क़ी भागीदारी प्रशंसा का विषय है। इसी तरह प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी स्त्रियों की भागीदारी से अछूता नहीं है। स्त्री विमर्श के संदर्भ में स्त्री केन्द्रित विज्ञापनों या स्त्री का बाज़ारीकरण एक अहम पहलू है। दरअसल आज हम "वैश्वीकरण के उस दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ चौतरफ़ा बाज़ार ही बाज़ार है। बाज़ार के बाहर के कुछ भी नहीं है। आज बाज़ार इतना ताक़तवर, लचीला और सर्वव्यापी हो गया है कि वह किसी की भी आस्था, विश्वास, भावना, व्यवहार, मूल्य, कर्म, मिथक, परम्परा, घटना, हालात वगैरह का अपने उत्पाद बेचने के लिए मनमाफ़िक इस्तेमाल कर सकता है। बाज़ार के हाथ में ग़रीब से ग़रीब और कृपण शख़्स को भी उपभोक्ता बनाने की जादू की छड़ी है। बाज़ार यह जान गया है कि इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी उसका घर-परिवार, उसकी आस्था और उसका विश्वास होता है. इन सबके बीच घुसपैठ कर बाज़ार को व्यापक और विस्तृत किया जा सकता है, घटिया से घटिया और बेकार से बेकार उत्पाद बेचा जा सकता है।1 जगूड़ी की दृष्टि इस ओर गई हैः मैल जितना उत्पादक हो सकता है यह साबुनों और लीलाधर जगूड़ी के काव्य में वर्णित समकालीन संस्कृति मुनाफ़ा व प्रतिस्पर्धा की संस्कृति है जहाँ अपनी सहूलियत के हिसाब से धर्म व ईश्वर के संदर्भ भी बदल जाते हैं। विश्व "समुदाय" से "बाज़ार" में परिवर्तित हो गया है। विज्ञापन की ताकत देखिए कि चीज़ों की विश्वसनीयता या मानक उसके विज्ञापन निर्धारित करते हैं। विज्ञापन ने सामाजिक संरचना को ही बदल कर रख दिया है। विज्ञापन संस्कृति में पुरुष मानसिकता और स्त्री की बदलती मानसिकता के विषय में प्रभा खेतान लिखती है, ".....पृष्ठभूमि में व्यापक स्तर पर स्त्री-देह का, उसके कपड़ों एवं सौंदर्य प्रसाधन का विज्ञापन इस पूर्वानुमति तथ्य पर आधारित है कि वास्तव जगत् की स्त्री देह में ही कोई कमी है, इसलिए इन प्रसाधनों, कपड़ों एवं डाइटिंग से इसे भोग के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।" चूँकि दुनिया और समाज में बनाए, पुरुष की नज़रों में वह सुन्दर लगे, यह ज़रूरी माना जाता है। यहाँ स्त्री व्यक्ति के रूप में भी बार-बार अदृश्य पितृ-सत्तात्मकता के प्रभाव में दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में स्वयं को प्रस्तुत करती है। इसमें शायद कुछ सच्चाई और तथ्य भी है, कारण, स्त्री जानती है कि आधी लड़ाई, वह अपनी देह के स्तर पर जीत ही जाएगी....।"3 इसलिए नारी देह की परिधि तक सीमित रहने वाले ऐसे विज्ञापनों को क्या स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ा हुआ एक क़दम माना जा सकता है? शायद नहीं, क्योंकि यहाँ न तो स्त्रियों की आत्मसचेत व आत्मनिर्भर छवि ही दिखाई देती है और न ही सामाजिक बदलावों और गतिशीलता की झलक ही।4 इतना सब होने के बावजूद भी आज विज्ञापनों में बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाली स्त्री के हितों की अनदेखी हो रही है। उन्हें विज्ञापन के ज़रिये जैसा चाहिए वैसा परोसा जा रहा है । उनका लक्ष्य सुदृढ़ आत्मनिर्भर सुंदर स्त्री बनाना
नहीं था। माँग और आपूर्ति की अवधारणा को तोड़ते हुए अब माँग पैदा करने पर ज़ोर है। आज विज्ञापन का मूल उद्देश्य सूचना प्रदान करने की बजाए उत्पाद विशेष के लिए बाज़ार तैयार करना बन कर रह गया है। इसके लिए एक स्त्री का "टूल्स" के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। यह अफ़सोस की बात ही है कि किसी भी चीज़ के प्रचार-प्रसार के लिए एक स्त्री का किसी वस्तु की तरह उपयोग किया जा रहा है। वस्तु होते व्यक्ति की हर समस्या का समाधान इनके पास है। मानो कठपुतली बनती जा रही जीवन की डोर इनके पास ही है। पसीने से बचने के ह्ज़ार उपाय करते हुए जीना या, जो है उसे बेचते जाओ बाज़ार ने आदमी के दैनिक व्यवहार को प्रभावित किया है। भारतीय समाज का ठेठ स्वरुप गाँवों तक भी बाज़ार की पहुँच है। गाँवों में जहाँ आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। जहाँ पीने के पानी के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता हो, स्वास्थ्य सुविधाएँ, सड़क, बिजली या तो काग़ज़ों पर ही हैं या नदारद हैं, वहाँ तक बाज़ार ने अपनी पैठ बना ली है। मिनरल वाटर की बोतलें, तथाकथित ठण्डे पेय हमें हर गाँव, क़स्बे के नुक्कड़ पर मिल जाऐंगे। "किसी भी कंपनी के विज्ञापनों मैं चाहे उस प्रोडक्ट का सम्बन्ध महिलाओं से हो न हो सुंदर महिलाओं को ज़रूर स्थान दिया जा रहा है। जीवन का कोई भी ऐसा कोना नहीं है जो बाज़ार के सब कुछ लील लेने वाले प्रभाव से बचा हो। पुरुषों के शेविंग क्रीम से लेकर उनके अंतःवस्त्रों तक के विज्ञापनों में देह-दर्शना नारी की पैठ तो काफ़ी पहले ही हो चुकी थी। आज स्थिति यह है कि बिना नारी देह के विज्ञापनों की ग्लैमरस दुनिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती।"8 विज्ञापन सुंदरी द्वारा प्रस्तुत करने योग्य जीवन
में महिला उत्थान या महिला सशक्तीकरण से इन प्रतियोगिताओं का दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है। यह सस्ते विज्ञापनी दुनियाँ का एक ख़ास अंदाज़ है। यह स्त्री गुलामी की तरफ बढ़ता हुआ एक और क़दम है। इसे हम दासी प्रथा का आधुनिक संस्करण भी कह सकते हैं। इन आयोजनों की पृष्ठभूमि विज्ञापनी संस्कृति से बनती और फैलती है। प्रतियोगिताओं की देह-भाषा सेक्सवादी खेमे को बढ़ाती है। इन प्रतियोगिताओं में सजावट की चीज़ बनी महिला उत्थान या विकास का रास्ता नहीं दर्शाती, बल्कि यह महिलाओं को महज एक व्यापार की वस्तु या प्रोडक्ट समझने वाली मानसिकता को दर्शाती है।"10 विज्ञापन सुन्दरी द्वारा प्रस्तुत करने योग्य बनाया
जाएगा इस जीवन को इस संदर्भ में कुमुद शर्मा का कहना है कि, "मिस वर्ड की कतार में हिन्दुस्तानी लड़कियों की गिनती भले ही बढ़ जाए, लेकिन इससे हिन्दुस्तानी औरत की स्थिति नहीं बदल जाएगी। ये प्रतियोगिताएँ जिन सामाजिक मूल्यों का सर्जन करेंगी, उनमें आत्मरति और आत्म-मुग्धता का भाव ज्यादा प्रधान होगा।"12 यह समकालीन यथार्थ है कि प्रचार तंत्र का आश्रय अपनी बात को पहुँचाने के लिए लिया जा रहा है। "जो संस्थाएँ रिसर्च करती हैं उनके निष्कर्ष हैं कि अखबारों ने भले ही आतंक को काफी फैलाया हो पर विज्ञापनों ने समाज की कुछ ऐसी नैतिक सेवाएँ भी की हैं कि एड्स के डर को कहीं ज्यादा फैलाकर पत्नी को प्रतिव्रता और पति को पत्नीव्रत बना दिया, जो कोई धार्मिक कथा न कर पाई। इसका श्रेय कंडोम बनाने वाली कम्पनियों को जाता है। जो अपने मुनाफे का पाँच प्रतिशत एड्स के प्रचार पर खत्म करती है।"13 इसलिए यहाँ प्रश्न नैतिकता का नहीं है बल्कि आधुनिकता का है। "जहाँ अनैतिकता नहीं आधुनिकता देखी जाएगी बार-बार।"14 सौंदर्य के व्यावसायीकरण के कारण सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर स्त्री के अर्ध-नग्न शरीर को विश्व सुन्दरी का ख़िताब पहनाया जाता है। इसके लिए उसे कितनी क़ीमत चुकानी पड़ती है, इसका अंदाज़ा शायद ही लगाया जा सकता है। विज्ञापनों के द्वारा प्रायोजित खेल के नैपथ्य में देखिए- वह स्त्री कहाँ है जो ड्रैस की डिज़ाइनर है निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि समकालीन कविता में स्त्री घर की चाहारदीवारियों से निकलकर बाज़ार जा पहुँची है, जहाँ वह मात्र उपभोग की वस्तु बनकर रह गई है। वह सार्वजनिक सम्पत्ति व विनिमय की चीज़ है और बाज़ार उसका मूल्य उसके शारीरिक आकर्षण में देखता है। उसका शरीर वस्तुओं के विनिमय की अधिक गुंजाइश रखता है। लीलाधर जगूड़ी की कविता भी वर्तमान उपभोक्तावादी मानसिकता के केन्द्र में स्थित स्त्री के शारीरिक सौंदर्य का बाज़ारीकरण का पर्दाफ़ाश करती है। कि किस प्रकार का त्रासदमय जीवन वह यापन करती है। कि उसे अपनी इच्छा के अनुरूप अपना जीवन जीने का अधिकार नहीं है। इस विज्ञापनी मृगमरीचिका की वह भुक्तभोगी है। इस रहस्यमयी दुनियाँ जो उपर से रोमांचकारी दिखती है और उसके नैपथ्य में अंधकार ही अंधकार है की परत दर परत शिनाख़्त उसे है। क्योंकि, "एक विश्व सुंदरी रह चुकी का बयान आता है, हमसे बेहतर मीडिया वाले जानते हैं, कि हम किस-किस मतलब के विज्ञापन हैं….। विज्ञापन वाले भाँप गये कि यह किस मतलब का सिघाड़ा है, ठहराव छिपाने के लिए यह किस तरह की जलकुम्भी है।16 अंत में दिखने में तो यह सड़क बाज़ार है, …., सौदागरों और जादूगरों से भरी इस सड़क से, कई रास्ते निकलते हैं, जो हर आने-जाने वाले को पता नहीं कहाँ पहुँचाकर लौट आते हैं।17 कह सकते हैं कि विज्ञापन की दुनियाँ एक अनन्त मायावी मृगमरीचिका है। सौंदर्य प्रतियोगिताओं का आयोजन करना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सोची समझी चाल है। जिसकी आड़ में सौदर्य का बाज़ारीकरण एवं व्यावसायीकरण करना है। कुमुद शर्मा का मानना है कि, "यह स्त्री के सौंदर्य का बाज़ारीकरण हैं इसके साथ ही यह एक मनुष्य की उच्च स्तरीय क्षमताओं को कुठित करके चकाचौंध की क़ैद में डालने की साजिश भी। स्त्रियाँ अपना बौद्धिक, सांस्कृतिक? आर्थिक व सामाजिक विकास करने की बजाए सस्ते, कामुक और उपभोक्तावादी सांस्कृतिक जाल में उसी तरह फँसने को आतुर हो जाती है जिस तरह चिराग को देखकर कोड़े-मकोड़े और पतंगे जलने को खिंचे चले आते हैं।"18 लीलाधर जगूड़ी का काव्यार्थ स्त्री संवेदना के इन तमाम पहुलुओं को लताशती है। और उन चीज़ों की शिनाख़्त करती हैं कि, बाज़ार जो मात्र बाज़ार है, वहाँ मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता। अमीर ग़रीब के मुहावरे नहीं रह जाते। वहाँ है तो केवल वस्तु विनिमय या उत्पादों को खपाने का खेल। दूर-दराज और बीहड़ इलाक़े की महिलाएँ भी बाज़ार के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि सौंदर्य प्रतियोगिता में विश्वसुंदरी का ख़िताब जीतने वाली महिला। एक सजग साहित्यकार के रूप में जगूड़ी ने मानवीय मूल्यों के संवेदनाशून्य होती प्रक्रिया का प्रकाशन किया है। महिला सशक्तीकरण, उनकी स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा, स्वास्थ्य, भेद-भाव, उनके साथ होने वाली हिंसा इत्यादि तमाम मुद्दे विज्ञापन के नारों की गूँज में कहीं दम घोट रहे हैं। संदर्भः 1. विज्ञापन, बाज़ार और स्त्री
<http://shashikanthindi.blogspot.com/2011/02/blog-post_23.html> डॉ. हरेन्द्र सिंह, |