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रामदरश मिश्र के प्रतीक: एक व्यापक सर्वेक्षण
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“ओ कोई अज्ञात फूल! वसन्त के आने व उसकी हवा बहने से शुष्क मन में रंग भर जाता है, यौवन जाग जाता है और कवि मन दीवानगी की कल्पना से भर जाता है- “आओ प्रिय! एक तरफ वसन्त उल्लास व प्रेम जाग्रत करता है वहीं दूसरी ओर महानगरों में बेपहचान होकर बैठा-बैठा सोचता है। स्पष्ट है कि वसन्त स्वयं निराशा व बेपहचान का प्रतीक बन जाता है- “बसों में फट गये हैं ‘पतझर’ को कवि आशा व विश्वास का प्रतीक मानकर चित्रित करता है क्योंकि पतझर के बाद वसन्त का आगमन होता है। ‘पतझर की दोपहर’, ‘पतझर की अनुभूति’ आदि कविताओं में इसका चित्रण हुआ है। एक उदाहरण अवलोकनीय है- “निष्पत्र, खिले गुलाब-सा मिश्रजी ने ‘जंगल’, ‘सड़क’ और ‘गली’ को प्रतीक रूप में अनेक स्थानों पर प्रयोग किया है। कवि कभी स्वयं को जंगल में पाता है तो कभी स्वयं में जंगल। इन दोनों रूपों में जंगल समाज में फैली भयावहता, भावनाओं व संवेदनाओं के ह्रास का प्रतीक बनकर उभरता है। चमचमाती कोलतार ‘सड़क’ पूँजीपति लोगों व पूँजीपति शक्तियों का प्रतीक है तो ‘गली’ आम जनता का प्रतीक है। ‘गलियाँ और सड़कें’ कविता उच्च व निम्न वर्ग का अन्तर प्रतीकार्थ व्यक्त करती दिखाई देती है- “टूटे मकानों के बन्द दरवाज़ों पर ‘कंधे पर सूरज’ काव्य-संग्रह तक आते-आते कवि में प्रतीकात्मक परिपक्वता देखने को मिलती है। यहाँ कवि समकालीन जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को प्रतीकों का रूप देता है। ‘हम नन्हें-नन्हें जीव’ कविता में ‘छोटे’ शब्द शोषित व पीड़ित वर्ग का प्रतीक और ‘ऊँचे’ शोषक व पूँजीपतियों का प्रतीक है- “आज हम छोटे हैं यहाँ पंख फड़फड़ाना’ शोषित वर्ग की जड़ता तोड़ने का और ’नयी चढ़ान’ व ‘नयी उड़ान’ उनके विकास का प्रतीक है। मध्यवर्ग का आदमी समस्याओं से जकड़ा हुआ है। उसके जीवन में समय के साथ-साथ समस्याएँ विविध रूप लेकर आती है। ‘गठरी’ दैनिक जीवन की इन्हीं समस्याओं व विसंगतियों का प्रतीक है- “मुझे अपने चारों ओर गठरियाँ ही गठरियाँ दीखने लगीं समाज में गठरियों की सर्वव्यापकता है जिससे चारों तरफ अव्यवस्था फैली हुई है। ‘रावण का पुतला’ इन्हीे अव्यवस्थाओं का प्रतीक है- “मैं राजा राम की आत्मा में समा रहा हूँ आधुनिक कविता में ‘साँप’ को बुराई का प्रतीक मानकर बखूबी चित्रित किया गया है। मिश्रजी की कविता में भी ‘साँप’ समाज में फैले पूँजीपति व सत्ताधारी शोषकों का प्रतीक बनकर उभरता है। ‘समय देवता’ कविता में “गेहुंवन साँपों का समूह/कुण्डली मारे बैठा होता है गड़े रत्नों पर/आराम से चूहों को पान की तरह चुभलाता हुआ”9 इसी तरह ‘साक्षात्कार’ कविता में कवि इन साँपों की समाज में व्यापकता को विविध रूप देकर व्यक्त करता है- “बड़े साँप ‘साँप’ के साथ-साथ मिश्रजी ने ‘चूहे’ का प्रतीक भी काव्य में प्रस्तुत किया है। पूँजीपति व सुविधाभोगी वर्ग से स्वार्थी व पिछलग्गू लोग हमेषा संरक्षण पाते आये हैं। इन्हीं लोगों को कवि ने ‘चूहे’ का प्रतीक दिया है। ये लोग अपनी सुरक्षा के लिए आम जन को कष्ट-पीड़ा देते रहते हैं- “चूहे फिर उतरा गये हैं सड़क पर ‘बिल्ली रानी’ हमारी व्यवस्था का प्रतीक है। इस व्यवस्था में हमेशा असहाय व गरीब लोगों का शोषण होता है, शक्तिशाली लोगों का कभी शोषण नहीं होता है। कवि चूहे व चिड़िया का भेद इसी सन्दर्भ में ‘बिल्ली रानी’ के सामने रखता है- “बिल्ली रानी, रामदरश मिश्र जन समान्य के कवि है। अतः उनके काव्य में आम मानव-जीवन से संबंधित प्रतीकों की संख्या अधिक है। “कवि की लोक संवेदना छोटे-छोटे प्रतीकों और बिम्बों से बड़ा चित्र उकेरती है। न कहीं संप्रेक्षण का गैप है, न ध्वनियों और रंगों का मोह-जाल, न दर्शनों की ऊल जलूल गहराई जिसमें कवि की बात ही कहीं फंस जाय।“13 उनके छोटे-छोटे प्रतीक विचारगत गम्भीरता को व्यक्त करते है। ‘कल्पवृक्ष’ आधुनिक जीवन शैली का, ‘धूल’ जन चेतना का, ‘लोकराम’ आम आदमी का, ‘पत्थर’ दलित का, ‘चींटे’ मेहनती लोगों का, ‘लकड़हारा’ गरीब वर्ग का, ‘पहाड़ा’ दिन-रात की बढ़ती समृद्धि का, ‘माँ’ संवेदना का, ‘रोशनी का फुआरा’ वर्तमान संसाधनों का, ‘परकटी धूप’ असहाय लोगों का, ‘ताल’ मन का, ‘आकाश’ मन की स्थिति का, ‘निशान’ स्नेह व प्रेम का, ‘हस्ताक्षर’ क्रान्तिमयी चेतना का ‘कंधे पर सूरज’ आन्तरिक संवेदना का, ‘नदी बहती है’ सुविधाओं का, ‘सरकण्डे की कलम’ यथार्थ का और ‘काली आँधियाँ’ परिवर्तन का प्रतीक है। ‘दवा की तलाश’ कविता में ‘माँ‘ को ग्रामीण संवेदना का प्रतीक दिया गया है। वह महानगर के जंगल से अपने बेटे के वापस आने की बाट देख रही है- “कल गाँव से नया-नया आने वाला एक युवक समकालीन समाज में पारिवारिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन निरन्तर जारी है। मिश्रजी ने इसे ‘दूब’ व ‘आम के पत्ते’ का प्रतीक रूप देकर व्यक्त किया है। दूब पर खेलते-कूदते बच्चे पूजा के लिए दूब का पता पूछ रहे हैं। यह सांस्कृतिक विघटन का प्रत्यक्ष प्रमाण है- “मेरे ही आत्मीय विस्तार में इसी प्रकार ‘प्लास्टिक के फूल’ संवेदना के ह्रास का, ‘प्राकृतिक फूल’ सांस्कृतिक मूल्यों का, ‘विरासत’ सांस्कृतिक धरोहर का, ‘बीज’ नैतिकता का, ‘कठफोड़वा’ व्यक्तिवादी भावना का, ‘चिट्ठियाँ’ संवेदना का, ‘पेड़’ सद्भावना व एकता का प्रतीक है। आधुनिक जीवन-शैली में सुविधाभोगी वृत्ति बढ़ रही है। मिश्रजी ‘बाजार’ प्रतीक के माध्यम से पश्चिमीकरण की समाज में सर्वत्र व्यापकता को व्यक्त करते हैं- “क्या ज़माना आ गया है मिश्रजी ने अपनी काव्य प्रतिभा में दैनिक जीवन की उपयोगी अनेक वस्तुओं को प्रतीक रूप दिया है। मेज, कलम, हाथ, कोयले का चूल्हा, चमचा, सूई, चाकू, पंखा, फाइल, माइक, कुर्सियाँ आदि का चित्रण इसी रूप में हुआ है। जब ‘सुई’ विभिन्न प्रकार की रचनाओं का सृजन करती है तो वह ममता, स्नेह व प्यार का प्रतीक रूप ले लेती है- “मैं खुद नंगी पड़ी होती हूँ निष्कर्षतः विवेचन और विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रामदरश मिश्र के काव्य में नवीन व परम्परागत विविध प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। उनके निजी प्रतीक सँवरे हुए है जो कला में बेजोड़ है। कवि के कथ्य और शिल्प में प्रतीकों से भाव बोध का जुडाव हुआ है। समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने में प्रतीकों ने अहम भूमिका निभाई है। कविता में प्रतीक सम्प्रेषण के सशक्त माध्यम बनकर आये हैं और आधुनिक काव्य-जगत् में मिश्रजी की विशिष्टता को भी इंगित करते हैं। सन्दर्भ दयाराम |