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चाहता हूँ
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कमनसीब मैं अँधेरों में भटक रहा हूँ बेवफ़ाई उल्फ़त से यूँही निभा रहा हूँ उजालों से, घर अपना जला रहा हूँ ग़ुनाह कुछ कम नहीं कर रहा हूँ ख़ुदी पर भरोसा अब न रहा क़ायदा-ए-मोहब्बत में उलझ रहा हूँ क्या कहूँ? क्या कर रहा हूँ शामें-ज़िन्दगी में राह ढूँढ रहा हूँ तेरी कायनात में कहीं भी कुछ भी कम नहीं, तेरे सामने अपनी क़िस्मत बिगाड़ रहा हूँ ख़ुशी से ख़ुशनसीब बना दे, ऐ दोस्त! |